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क्या हिमाचल की बाढ़ भी मानव निर्मित त्रासदी है, अब तक हुई 150 से ज्‍यादा की मौत, हजारों करोड़ की संपत्ति बही

Man-made Disasters: हिमाचल प्रदेश में अब से पहले कभी भी इतनी बारिश नहीं देखी गई है. नतीजा ये निकला कि राज्‍य के कई इलाकों में बाढ़ आ गई. इस साल मानसून में अचानक आई बाढ़ ने हिमाचल प्रदेश में लोगों की जिंदगी और संपत्ति दोनों को नुकसान पहुंचाया है. अब तक इस त्रासदी में 150 से ज्‍यादा लोगों की मौत हो चुकी है. इसके अलावा करीब 10,000 करोड़ रुपये की संपत्ति का भी नुकसान हुआ है. विशेषज्ञों का कहना है कि इस तबाही के लिए अकेला जलवायु परिवर्तन ही जिम्‍मेदार नहीं है. उनके मुताबिक, इसके लिए अंधाधुंध किया जाने वाला विकास भी जिम्‍मेदार है.

हिमाचल प्रदेश में साल 2022 से पहले के पांच साल के दौरान प्राकृतिक आपदा के कारण 1,550 लोगों की जान चली गई. वहीं, करीब 12,444 घरों को बुरी तरह से नुकसान पहुंचा है. इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज-6 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के हिमालय और तटीय क्षेत्र जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे. हिमालय में कम समय में ज्‍यादा बारिश होने का स्‍पष्‍ट पैटर्न नजर आ रहा है. भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, इस अवधि में सामान्य बारिश 720 मिमी से 750 मिमी के बीच होने की उम्मीद जताई गई है. कुछ मामलों में यह 2010 में 888 मिमी और 2018 में 926.9 मिमी से ज्‍यादा हुई थी.

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जून से अब तक हिमाचल में हो चुकी 511 मिमी बारिश
इस साल अब तक हुई बारिश के लिए पश्चिमी विक्षोभ के साथ दक्षिण-पश्चिम मानसून के संयुक्त असर को जिम्मेदार ठहराया गया है. हिमाचल प्रदेश में जून 2023 से लेकर अब तक कुल 511 मिमी बारिश हो चुकी है. जलवायु परिवर्तन के अलावा मानवजनित कारकों ने भी इस आपदा में बड़ा योगदान दिया है. साल 1971 में वजूद में आने के बाद शुरू किया गया हिमाचल प्रदेश का विकास मॉडल बाकी पर्वतीय राज्यों के लिए उदाहरण के तौर पर रहा है. इस मॉडल को डॉ. परमार मॉडल के नाम से जाना जाता है. इसका नाम संस्थापक मुख्यमंत्री डॉ. वाईएस परमार के नाम पर रखा गया है. ये मॉडल भूमि सुधार, सामाजिक कल्याण में मजबूत राज्य के नेतृत्व वाले निवेश और मानव संसाधनों पर जोर देता है.

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हिमाचल प्रदेश में जून 2023 से लेकर अब तक कुल 511 मिमी बारिश हो चुकी है.

राज्‍यों को अपने संसाधन तैयार करने को किया मजबूर
हिमाचल प्रदेश तमाम प्रयासों के परिणामस्वरूप सामाजिक विकास सूचकांकों में दूसरे स्थान पर है. राज्‍य में 1980 के दशक तक हर घर तक बिजली पहुंच गई थी. इसके अलावा स्वास्थ्य देखभाल केंद्रों के जरिये दूरदराज के इलाकों में कनेक्टिविटी में सुधार हुआ था. कई स्कूल खुले, कृषि में प्रगति हुई. इससे आर्थिक और सामाजिक जीवंतता को बढ़ावा मिला. उदारीकरण के आने से भी अहम बदलाव हुए. केंद्र सरकार ने कड़े राजकोषीय सुधारों की मांग की और पर्वतीय राज्यों को राजकोषीय प्रबंधन के लिए खुद के संसाधन तैयार करने को मजबूर किया गया. इसके बाद वन, जल, पर्यटन और सीमेंट उत्पादन समेत प्राकृतिक संसाधनों का दोहन विकास का प्रमुख केंद्र बन गया.

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राज्‍य में अंधाधुंध किया गया सड़कों का चौड़ीकरण
हिमाचल प्रदेश में पनबिजली परियोजनाओं का तेजी से निर्माण हुआ, जिससे अक्सर नदियों के पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान हुआ. यही नहीं, राज्‍य में भूवैज्ञानिक व इंजीनियरिंग मूल्यांकन के बिना सड़कों का चौड़ीकरण किया गया, भूमि के इस्‍तेमाल में बदलाव करने वाले सीमेंट संयंत्रों का विस्तार हुआ और कृषि पद्धतियों में नकदी फसल पर जोर दिया गया. इसने यहां की पारिस्थितिकी और नदी प्रणाली को प्रभावित किया. निवेश आकर्षित करने के लिए पहाड़ी राज्यों की क्षमता को मेगावाट के तौर पर मापा जाने लगा. इससे जलविद्युत परियोजनाओं की खोज पर जोर दिया जाने लगा. बहुपक्षीय एजेंसियों की फंडिंग प्राथमिकताओं में अहम बदलाव आया.

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खुदाई का कचरा नदी किनारे फेंकने से बढ़ी मुसीबत
साल 2000 से पहले बहुपक्षीय एजेंसियां ​​बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं के वित्तपोषण का विरोध कर रही थीं. फिर उन्होंने अपना रुख बदल दिया और ऐसे उद्यमों के लिए धन मुहैया कराना शुरू कर दिया, जिससे इन परियोजनाओं के लिए फंड आसानी से उपलब्ध हो गया. क्षेत्र में बाढ़ के विनाशकारी प्रभाव का मुख्य कारण इन जलविद्युत परियोजनाओं का अनियंत्रित निर्माण है, जिसने पहाड़ी नदियों को महज धाराओं में बदल दिया है. पानी को पहाड़ों में खोदी गई सुरंगों की मदद से मोड़ने वाली तकनीक का इस्‍तेमाल किया गया और खुदाई से निकले कचरे को नदी के किनारे फेंक दिया गया. इससे ज्‍यादा बारिश या बादल फटने पर पानी नदी में वापस आ जाता है और अपने साथ गंदगी को भी ले जाता है.

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हिमाचल प्रदेश में स्‍थपित जलविद्युत परियोजनाओं ने नदियों के पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचाया.

नदियों के पारिस्थितिकी तंत्र को पहुंचाया नुकसान
ये विनाशकारी प्रक्रिया पार्वती, ब्यास और सतलज जैसी नदियों के साथ-साथ कई छोटे जलविद्युत बांधों में भी नजर आती है. इसके अलावा सतलुज नदी पर 150 किमी लंबी सुरंगों की योजना बनाई गई है या उन्हें चालू कर दिया गया है, जिससे पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को काफी नुकसान हुआ है. वर्तमान में 168 जलविद्युत परियोजनाएं परिचालन में हैं, जो 10,848 मेगावाट बिजली पैदा करती हैं. भविष्य को देखते हुए यह अनुमान लगाया गया है कि 2030 तक 22,640 मेगावाट ऊर्जा का दोहन करने के लिए 1,088 जलविद्युत परियोजनाएं चालू हो जाएंगी. राज्‍य में जलविद्युत परियोजनाओं में यह उछाल क्षेत्र में आपदाओं की चिंता पैदा करता है.

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सड़क निर्माण में कई चीजों की अनेदखी की गई
सड़क विस्तार का उद्देश्य पर्यटन को बढ़ावा देना और बड़ी संख्या में आने वाले लोगों को आकर्षित करना है. सड़क-चौड़ीकरण परियोजनाओं में दो-लेन सड़कों को चार-लेन में और सिंगल लेन को दो-लेन सड़कों में बदलना शामिल है. सार्वजनिक-निजी-भागीदारी परियोजनाओं को तेजी से पूरा करने की जरूरत पर जोर देती है. ऐसे में जरूरी भूवैज्ञानिक अध्ययन और पर्वतीय इंजीनियरिंग कौशल को दरकिनार किया गया है. परंपरागत रूप से पर्वतीय क्षेत्रों को ऊर्ध्वाधर दरारों से नहीं काटा जाता है, बल्कि सीढ़ीदार बनाया जाता है. इससे पर्यावरण को होने वाले नुकसान को कम किया जा सके. दुर्भाग्य से मनाली और शिमला दोनों चार-लेन परियोजनाओं में पहाड़ों को लंबवत काटा गया है. इससे बड़े पैमाने पर भूस्खलन हुआ.

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सीमेंट संयंत्र भी हैं मुसीबत के लिए जिम्‍मेदार
भूस्‍खलन के बाद मौजूदा सड़कों को बहाल करना समय लेने वाली प्रक्रिया है, जिसमें अक्सर महीनों या साल भी लग जाते हैं. इस तरह के सड़क विस्तार के परिणाम सामान्य बारिश के दौरान भी नजर आते रहते हैं. फिसलन से भारी बारिश या बाढ़ के दौरान विनाश की भयावहता बढ़ जाती है. बिलासपुर, सोलन, चंबा जैसे जिलों में बड़े पैमाने पर सीमेंट संयंत्रों की स्थापना और पहाड़ों की कटाई के लिए भूमि उपयोग में बदलाव किए गए, जो बारिश के दौरान अचानक आने वाली बाढ़ को सीधा न्‍योता है. सीमेंट संयंत्र प्राकृतिक परिदृश्य को बदल देते हैं और वनस्पति के हटने से भूमि की पानी सोखने की क्षमता कम हो जाती है.

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भूस्‍खलन के बाद मौजूदा सड़कों को बहाल करना समय लेने वाली प्रक्रिया है, जिसमें अक्सर महीनों या साल भी लग जाते हैं.

नकदी फसलों का रुख करना पड़ रहा भारी
कृषि और बागवानी पैटर्न में धीरे-धीरे बदलाव हो रहा है. इससे भूमि जोत और उपज दोनों में बदलाव आ रहा है. किसान अब पारंपरिक अनाज के बजाय नकदी फसल को अपना रहे हैं. इस बदलाव का असर फसलों के खराब होने की प्रकृति के कारण कम समय में बाजारों तक परिवहन पर पड़ता है. लिहाजा, जल्दबाजी में सड़कें बनाई जा रही है. आधुनिक उत्खननकर्ताओं को निर्माण कार्य में लगाया जाता है, लेकिन मलबा डंप करने के लिए उचित नालियां या क्षेत्र नहीं बनाए जा रहे. ऐसे में जब बारिश होती है, तो पानी अपना रास्ता खोज लेता है. पानी अपने साथ डंप की गई गंदगी को ले जाता है और नदी के पारिस्थितिकी तंत्र में जमा कर देता है. इसे सामान्य बारिश में भी नाले और नदियां तेजी से बढ़ने लगती हैं.

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मुसीबत से निपटने को क्‍या करना चाहिए
राज्य में कुल निर्दिष्ट सड़कों की लंबाई 1,753 किमी है. लेकिन, लिंक और ग्रामीण सड़कों समेत सभी की कुल लंबाई 40,000 किमी से ज्‍यादा है. प्रमुख हितधारकों को एक साथ लाने और नीतिगत ढांचे की नाकामियों के साथ शुरू की गई परियोजनाओं के विशिष्ट पहलुओं पर चर्चा करने के लिए एक जांच आयोग स्थापित किया जाना चाहिए. स्थानीय समुदायों को उनकी संपत्तियों पर सशक्त बनाने के लिए एक नई वास्तुकला की जरूरत है. पुलिया, गांव की नालियां, छोटे पुल, स्कूल व अन्य सामाजिक बुनियादी ढांचे के रूप में हुए नुकसान की भरपाई की जानी चाहिए. इसके लिए परिसंपत्तियों का बीमा किया जाना चाहिए. इनका संरक्षक स्थानीय समुदाय को बनाया जाना चाहिए. इससे परिसंपत्तियों का तेजी से पुनर्निर्माण करने में मदद मिलेगी.

Tags: Flash flood in Uttarakhand, Flood alert, Himachal pradesh news, Natural Disaster

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