गांवों में उगने वाली यह घास है बेहद पवित्र, गर्मियों में बनती है पशुओं का चारा, बिना इसके नहीं होते शुभ कार्य

कालू राम जाट/दौसा : किसी भी धार्मिक कार्य में कुश घास का बहुत अधिक महत्व है. यह घास अगर जरा सी भी भूमि के अन्दर रह जाये तो वह पौधे का रूप धारण कर लेती है. यह देव, पितर, प्रेत व पूजा में समान महत्व रखती है. इसको अनामिका में धारण करने के बाद ही सभी मांगलिक और अमांगलिक कार्यों में विधान पूर्ण कार्यक्रमों में उपयोग किया जाता है. लेकिन दौसा के ग्रामीण क्षेत्रों में यह कुश घास स्वतः ही उत्पन्न हो जाती है.
यह होती है कुश घास
कुश की पत्तियां नुकीली, तीखी और कड़ी होती है. कुश एक प्रकार का तृण है. इसे गांवों में ढाब बोला जाता है. धार्मिक दृष्टि से यह बहुत पवित्र समझी जाती है और इसका उपयोग राजमहलों से लेकर इसका हर जगह उपयोग करते हैं. आज भी नित्य-नैमित्तिक धार्मिक कृत्यों और श्राद्ध आदि कर्मों में कुश का उपयोग होता है. यहीं नहीं कुश से तेल निकाला जाता है जिसका वैदिक साहित्य में अनेक जगहों पर उल्लेख है. अर्थवेद में इसे क्रोध नाशक और अशुभ निवारक बताया गया है.
कुश घास का है पौराणिक महत्व
दौसा के ग्रामीण इलाकों में उगने वाली यह कुश घास का प्रयोग ग्रहण काल में किया जाता है. मान्यता है कि ग्रहण काल से पूर्व सूतक में इसे अन्न-जल आदि में डालने से ग्रहण के दुष्प्रभाव से बचते है. कुश की जड़ों से निर्मित दानों से बनी माला पापों का शमन, कलंक हटाने, प्रदूषण मुक्त करने व व्याधि का नाश करने हेतु बनाए जाती है. पशुओं में कम लोकप्रिय कुश अध्यात्म के क्षेत्र में विशेष महत्व रखती है. कुश को लाल कपड़े में लपेटकर घर में रखने से समृद्धि बनी रहती है.पंचकों में मृत्यु होने पर- ऐसी मान्यता है कि यदि किसी की पंचक में मृत्यु हो जाए तो घर में पांच सदस्य मरते हैं. इसके निवाराणार्थ 5 कुश के पुतले बनाकर मृतक के साथ जलाया जाता है.
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कुश को माना जाता है अत्यधिक पवित्र
आचार्य संतोष चंद्र पांडेय ने बताया कि कुश घास में बने आसन पर बैठकर पूजा करना ज्ञानवर्धक, देवानुकूल व सर्वसिद्ध दाता बनता है. इस आसन पर बैठकर ध्यान साधना करने से तन-मन से पवित्र होकर बाधाओं से सुरक्षित रहता है. साथ ही इस इस तरह के कामों के लिए महत्व दिया जाता है चूंकि कुश घास की उत्पत्ति स्वयं भगवान वाराह के श्री अंगों से हुई है, अतः कुश को अत्यंत पवित्र माना गया. इसलिए किसी भी पूजन-पाठ, हवन-यज्ञ आदि कर्मों में कुश का प्रयोग किया जाता है.
जब भगवान श्रीहरि ने वाराह अवतार धारण किया तब हिरण्याक्ष का वध करने के बाद जब पृथ्वी को जल से बाहर निकाले और अपने निर्धारित स्थान पर स्थापित किया. उसके बाद वाराह भगवान् ने भी पशु प्रवृत्ति के अनुसार अपने शरीर पर लगे जल को झाड़ा तब भगवान वाराह के शरीर के रोम (बाल) पृथ्वी पर गिरे और वह कुश के रूप में बदल गये. वहीं यह यह घास गर्मियों के दिनों में आवारा पशुओं के लिए गांव में खाने के भी काम में आती है क्योंकि इस घास को ज्यादा पानी की आवश्यकता नहीं रहती है. यह गर्मियों के दिनों में भी हरी भरी रहती है और यह सदाबहार घास है.
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FIRST PUBLISHED : February 17, 2024, 21:10 IST