विलुप्त होते जा रही है राजस्थान की यह पारंपरिक हस्तकला, 10 साल पहले 500 कारीगर थे, आज है केवल 70

Last Updated:October 18, 2025, 13:30 IST
Nagaur Tanklaan Handicraft: राजस्थान के नागौर जिले के टांकलां क्षेत्र की हस्तकला अपनी अनोखी पहचान और सांस्कृतिक महत्व के लिए जानी जाती है. यहां के कारीगर सूत और धागों से दरियां, कालीन और सजावटी चादरें बुनते हैं, जिनमें लोकदेवताओं और परंपरा की झलक मिलती है. लेकिन आधुनिक मशीनें, युवाओं का पलायन, बाजार में पहचान की कमी और कम दाम इस कला को संकट में डाल रहे हैं. एक दरी बनाने में 110 घंटे की मेहनत लगती है, लेकिन इसका उचित मूल्य नहीं मिल पाता.
नागौर. राजस्थान के नागौर ज़िले का टांकलां क्षेत्र आज भी परंपरा और कला के जादू से चमकता है. यहा के कारीगरों के हाथों में वह अद्भुत जादू है, जो साधारण सूत को रंग-बिरंगे सपनों में बुन देता है. यह सिर्फ एक हुनर नहीं, बल्कि पीढ़ियों से चली आ रही जीवनशैली, संस्कृति और पहचान का प्रतीक है. लेकिन आज यह अनमोल कला पहचान के अभाव में धीरे-धीरे विलुप्ति की ओर बढ़ रही है. एक समय था जब टांकलां के हर घर से करघों की ठक-ठक आवाज़ गूंजती थी. करीब 10 साल पहले इस क्षेत्र में लगभग 500 कारीगर इस कला से जुड़े हुए थे. आज हालत यह है कि यह संख्या घटकर सिर्फ 70 रह गई है. कला की इस गिरती संख्या के पीछे कई कारण हैं आधुनिक मशीनें, युवाओं का पलायन, सरकारी उपेक्षा और बाज़ार में पहचान का अभाव शामिल है.
यहां के बुनकर केवल कपड़ा नहीं बुनते, बल्कि हर धागे में संस्कृति की कहानी बुनते हैं. इनके द्वारा बनाई जाने वाली दरियां, कालीन और सजावटी चादरें अपनी नायाब डिज़ाइन और बारीक हस्तकला के लिए जानी जाती है. इन दरी-कामों में माता लक्ष्मी, लोकदेवता तेजाजी और राजस्थानी परंपरा के प्रतीक चित्र बखूबी झलकते हैं. यहीं नहीं, टांकलां की हस्तकला की पहचान अब देशभर में फैल चुकी है. यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कई मौकों पर इन कारीगरों की बनी वस्तुएं उपहार स्वरूप दे चुके हैं. इतना सुंदर व टिकाऊ होने के बावजूद भी इस कला पर सकंट के बादल मंडरा रहे हैं.
पहचान खोते जा रहा है टांकलां की हस्तकला
करीब 32 सालों से करघे पर काम कर रहे कारीगर सोहनराम प्रजापत कहते हैं, हमारे हाथों से बनी दरियां और कालीन दुनिया की बेहतरीन हस्तकला है, लेकिन अगर सरकार और समाज ने इसे पहचान नहीं दी, तो नई पीढ़ी इसे नहीं अपनाएगी. यह परंपरा बस तस्वीरों में रह जाएगी. सोहनराम बताते हैं कि पहले एक दरी की बुनाई में पूरा परिवार मिलकर काम करता था. लेकिन आज न तो युवाओं की रुचि रही और न ही मेहनत के बदले उचित दाम मिल रहे. अगर मेहनत का फल और सम्मान दोनों नहीं मिले, तो कौन करेगा यह काम?
एक दरी की बुनाई में लगते हैं 110 घंटे
उन्होंने बताया कि यह दुख की बात है कि जहां बाजार में मशीनों से बनी चीजें ऊंचे दामों पर बिक रही है, वहीं हाथों से बनी दरी और कालीन सस्ते में बेचने पड़ते हैं. कारीगर बताते हैं कि एक दरी की बुनाई में 110 घंटे से अधिक समय और मेहनत लगती है, लेकिन उन्हें उसका मूल्य बहुत कम मिलता है. कला जीवित है, पर कारीगरों का जीवन संघर्षमय बन गया है. अगर सरकार और प्रशासन समय रहते इस कला को संरक्षण नहीं देंगे, तो आने वाले वर्षों में यह पारंपरिक बुनाई सिर्फ किताबों इतिहास के पन्नों और कहानियों तक सीमित रह जाएगी.
अद्भुत हस्तकला की सांस्कृतिक पूंजी है टांकलां कला
टांकलां कला के कारीगरों का कहना है कि यह कला सिर्फ कपड़ा नहीं, बल्कि राजस्थान की आत्मा का रंग है. हर धागा एक कहानी कहता है. यह मेहनत, धैर्य और सुंदरता की कहानी से परिपूर्ण है. अगर हम आज इन कारीगरों का साथ नहीं देंगे, तो कल हमारी अगली पीढ़ी केवल कहानियों में ही हाथों की जादूगरी के बारे में सुनेगी. टांकलां की यह अद्भुत हस्तकला हमारी सांस्कृतिक पूंजी है. इसे बचाना न सिर्फ कारीगरों का हक़ है, बल्कि हमारी ज़िम्मेदारी भी है. इनके हाथों की मेहनत को पहचान देना ही सच्ची आत्मनिर्भर भारत की मिसाल होगी.
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दीप रंजन सिंह 2016 से मीडिया में जुड़े हुए हैं. हिंदुस्तान, दैनिक भास्कर, ईटीवी भारत और डेलीहंट में अपनी सेवाएं दे चुके हैं. 2022 से हिंदी में अपनी सेवाएं दे रहे हैं. एजुकेशन, कृषि, राजनीति, खेल, लाइफस्ट…और पढ़ें
दीप रंजन सिंह 2016 से मीडिया में जुड़े हुए हैं. हिंदुस्तान, दैनिक भास्कर, ईटीवी भारत और डेलीहंट में अपनी सेवाएं दे चुके हैं. 2022 से हिंदी में अपनी सेवाएं दे रहे हैं. एजुकेशन, कृषि, राजनीति, खेल, लाइफस्ट… और पढ़ें
Location :
Nagaur,Rajasthan
First Published :
October 18, 2025, 13:30 IST
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विलुप्ति के कगार पर राजस्थान की पारंपरिक हस्तकला, तंगहाली में जी रहे कारीगर