poem by Sukhendra | कविता-हां, मैं मजदूर हूं
कविता
जयपुर
Updated: April 24, 2022 09:16:35 am
सुखेंद्र कुमार माथुर हर सुख-सुविधा से मैं दूर हूं, हां मैं मजदूर हूं
आपके ख्वाबों को पूरा करने को, मैं मजबूर हूं।
पेट की खातिर ख़ुद के, हाथ-पैर तोड़ता हूं,
रोम रोम से मेहनत करने वाला, हां मैं मजदूर हूं।।
हर सुख…….

कविता-हां, मैं मजदूर हूं
बेबसी,लाचारी और मजबूरी,मेरा गहना है,
दुनिया के सामने इसको मैंने, यूं पहना है।
मेहनत के सिवा मेरा कोई भी, अपना नहीं,
अपने ही जाल में फसां हुआ, हां मैं मजदूर हूं।।
हर सुख……. कोई दिन ऐसा आएगा, खुशियां द्वार चूमेगी,
मेरी नींद दिन में कोई,सुहाना सपना देखेगी।
काटता जा रहा औरो के लिए, निजी जिंदगी,
अपना कोई वजूद नही क्योंकि, हां मैं मजदूर हूं।।
हर सुख……..
मेरी कद्र महलों में रहने वाले, कभी ना कर पाएंगे,
शोषण हमारी पीढियों पर, ये यूं करते चले जाएंगे।
बनाया इस दुनिया को, हम जैसों ने इतना हसीन,
उनमें से निकला हुआ वो ही,हां मैं एक मजदूर हूं।।
हर सुख…….
मजदूर दिवस घोषित करके,कोई एहसान कर दिया,
इस दिन भी चैन नहीं,कैसा काम महान कर दिया।।
कई पीढियां हमारी खो गई,दिन अच्छे की आस में,
घाणी के बैल की तरह जीने वाला,हां मैं मजदूर हूं।।
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