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इंसुलिन की खोज के एक सदी बाद, टाइप-1 डायबिटीज के इलाज की एक उम्मीद तो मिली

डायबिटीज टाइप-1 के मरीजों के लिए जरूरी खबर आई है! लंबे समय से इंसुलिन के इंजेक्शन पर निर्भर रहने वाले मरीज़ों को अब आज़ादी मिल सकती है. स्वीडन में वैज्ञानिकों ने एक छोटा लेकिन बेहद ज़रूरी अध्ययन किया है, जिसने इस उम्मीद को फिर से ज़िंदा कर दिया है.

वैज्ञानिकों ने एक 42 साल के व्यक्ति पर यह प्रयोग किया, जो पिछले 37 सालों से डायबिटीज़ के साथ जी रहा था.

जीन एडिटिंग: वैज्ञानिकों ने डोनर से 8 करोड़ के करीब ‘आइलेट सेल्स’ (Insulin बनाने वाली कोशिकाएं) लीं. इन सेल्स को CRISPR नाम की एक ख़ास तकनीक से ‘एडिट’ किया गया.

रिजेक्शन रोका: उन्होंने कोशिकाओं के दो जीन (B2M और CIITA) को निष्क्रिय  कर दिया. ऐसा इसलिए किया गया ताकि शरीर का इम्यून सिस्टम इन बाहर से आई हुई कोशिकाओं को ‘बाहरी कोशिका’ मानकर खारिज न कर दे.

सुरक्षा संकेत: सेल्स में एक तीसरा जीन (CD47) भी जोड़ा गया. यह जीन कोशिकाओं को ‘सुरक्षित रहने का संकेत’ देता है, जो उन्हें शरीर की प्राकृतिक हमलावर कोशिकाओं जैसे नेचुरल किलर सेल्स द्वारा नष्ट होने से बचाता है.

इंजेक्शन: इन विशेष रूप से तैयार की गई सेल्स को मरीज़ की बांह की मांसपेशी में इंजेक्शन के ज़रिए डाल दिया गया.

सबसे बड़ी बात यह सब बिना किसी ‘इम्यूनोसप्रेशन’ (दवा जो इम्यून सिस्टम को दबाती है) के किया गया, जो कि एक अभूतपूर्व उपलब्धि है. अगर यह तकनीक सफल होती है, तो टाइप-1 डायबिटीज़ का इलाज पूरी तरह बदल सकता है.

उसे कोई इम्यूनोसप्रेसिव दवाएं नहीं दी गईं. फिर भी, आश्चर्यजनक रूप से, ट्रांसप्लांटेशन के बाद 12 हफ्तों तक, एडिटेड सेल्स के खिलाफ कोई इम्यून रिस्पॉन्स नहीं पाया गया. सी-पेप्टाइड टेस्ट, जो शरीर की अपनी इंसुलिन स्राव की माप है, ने दिखाया कि ग्राफ्ट काम कर रहा है. सेल्स भोजन के जवाब में इंसुलिन रिलीज कर रही हैं. एमआरआई और पीईटी स्कैन ने खुलासा किया कि ट्रांसप्लांटेड आइलेट्स जीवित हैं, वैस्कुलराइज्ड हैं, और कार्य कर रही हैं.

किसी भी ट्रांसप्लांट की मुख्य समस्या हमेशा शरीर का विदेशी ऊतक को अस्वीकार करना रही है. इम्यून सिस्टम की प्रवृत्ति है कि उसे जो खुद का नहीं लगता, उसे नष्ट कर दे. इस बार, वह पुरानी समस्या सफलतापूर्वक हल होती दिख रही है. ट्रांसप्लांटेड आइलेट सेल्स इम्यूनोसप्रेसिंग दवाओं की जरूरत के बिना जीवित रहीं, जो एक मील का पत्थर है जो कभी असंभव माना जाता था.

इस पर अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों ने लिखा कि, “ये परिणाम बताते हैं कि विशेष रूप से बदली गई (जीन-एडिटेड) कोशिकाएं शरीर के इम्यून सिस्टम की पकड़ से बच गईं.”

सीधे शब्दों में कहें तो वैज्ञानिकों ने पाया कि ये नई कोशिकाएं शरीर के अंदर पूरी तरह काम कर रही थीं, लेकिन शरीर ने इन पर हमला नहीं किया और इन्हें खारिज (Reject) नहीं किया.

यह सच है कि यह ख़बर उम्मीद जगाती है, लेकिन यह अभी इलाज नहीं है. वैज्ञानिक अभी इसे बड़े पैमाने पर सफल नहीं मान सकते, क्योंकि अभी तक यह प्रयोग सिर्फ़ एक ही मरीज़ पर हुआ है, सेल की मात्रा कम थी, और मरीज़ पर सिर्फ़ तीन महीने नज़र रखी गई है. इसलिए, अभी इसे सभी मरीज़ों पर लागू नहीं किया जा सकता. मगर इस प्रयोग ने सोचने का तरीका बदल दिया है.

अगर ये जीन-एडिटेड कोशिकाएँ (Gene-edited cells) बड़े पैमाने पर बनाई जा सकीं और लंबे समय तक शरीर में काम करती रहीं, तो शायद इंसुलिन इंजेक्शन की ज़रूरत ही ख़त्म हो जाए. इस अध्ययन की मुख्य वैज्ञानिक, डॉ. सोनजा श्रेपफर ने कहा है, “ये बदली हुई कोशिकाएँ वास्तव में ट्रांसप्लांट (प्रत्यारोपण) की बड़ी बाधा को पार कर गई हैं.”

यह प्रयोग चिकित्सा के क्षेत्र में एक नए तरीक़े की शुरुआत है. पुराना तरीक़ा: पहले जब भी कोशिका प्रत्यारोपण (Cell Transplantation) की कोशिश की गई, तो मरीज़ को जीवन भर ऐसी दवाएँ खानी पड़ती थीं जो इम्यून सिस्टम को दबाती थीं. (ताकि शरीर नई कोशिकाओं पर हमला न करे).

नया तरीक़ा: अब वैज्ञानिक इम्यून सिस्टम को दबाने के बजाय, उसे चकमा देना सीख गए हैं. कोशिकाओं को इस तरह से बदला गया है कि वे खुद ही इम्यून सिस्टम से छिप जाती हैं.

ब्रेकथ्रू टी1डी के डॉ. आरोन कोवाल्स्की कहते हैं, “यह अध्ययन दिखाता है कि बिना इम्यून सिस्टम को दबाए भी इंसुलिन बनाने की प्रक्रिया को फिर से शुरू किया जा सकता है.” ब्रिटिश कोलंबिया यूनिवर्सिटी के डॉ. टिम कीफर ने इसे “बिना दवाई के प्रभावी इलाज की दिशा में एक बड़ा पड़ाव” बताया.

टाइप-1 डायबिटीज़ एक ऐसी बीमारी है, जिसने आधुनिक चिकित्सा विज्ञान को एक नई पहचान दी. आज से लगभग सौ साल पहले, जब इंसुलिन की खोज हुई थी, तब इसे एक चमत्कार माना गया था.

अगर यह नया तरीका (जीन एडिटिंग) पूरी तरह कामयाब हो जाता है, तो विज्ञान चिकित्सा जगत की इस सबसे लंबी कहानियों में से एक को शायद हमेशा के लिए बंद कर सकता है—यानी डायबिटीज़ को अतीत की बात बना सकता है.

लेखक का परिचय: डॉ. शरत आर एस एक बच्चों के डॉक्टर (Pediatrician) हैं और मेडिकल जेनेटिक्स में फेलोशिप कर रहे हैं. जब वे आम लोगों के लिए रोजमर्रा के स्वास्थ्य से जुड़े सवालों को सुलझा नहीं रहे होते, तब वे अपने ब्लॉग में भारतीय फुटबॉल के बारे में लिखते हैं.

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