जब घर छोड़ संन्यासी बनने के लिए नरेंद्र मोदी ने बढ़ाए थे कदम!

हाइलाइट्स
बचपन से किशोरवस्था के बीच मोदी ने धार्मिक और आध्यात्मिक पुस्तकों को खूब पढ़ा था.
ऐसे में वयस्क होकर गृहस्थ जीवन जीने से पहले ही मोदी ने घर- बार छोड़ना तय किया.
वडनगर की लाइब्रेरी में बैठकर नरेंद्र मोदी ने अपने आदर्श स्वामी विवेकानंद के बारे में पढ़ा था.
वर्ष 1967 में नरेंद्र मोदी ने ग्यारहवीं की परीक्षा पास की, जो सीनियर स्कूल सर्टिफिकेट यानी एसएससी के तौर पर भी जानी जाती थी. मार्च के महीने में परीक्षा हुई थी, महेसाणा जिले के विसनगर में ही परीक्षा केंद्र था. परिणाम आने के बाद मई के आखिरी दिन नरेंद्र मोदी ने बीएन हाई स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लिया था, जहां पर आठवीं कक्षा से ही पढ़ रहे थे मोदी.
ऐसा नहीं था कि मोदी सामान्य बच्चों की तरह रूटीन शिक्षा हासिल करना चाहते थे. पहली से ग्यारहवीं की स्कूली पढ़ाई करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए किसी कॉलेज में दाखिला लेना, उनकी मंशा नहीं थी.
… जब जगी थी देशसेवा की इच्छा
सच्चाई तो ये थी कि नरेंद्र मोदी ने स्कूल में पढ़ाई के दौरान ही जामनगर के बालाछड़ी जाने की सोची थी, सैनिक स्कूल से पढ़ाई करने के लिए, ताकि आगे चलकर फौज ज्वाइन कर सकें, देश सेवा कर सकें.
इसके लिए उनके मन ने तब जोर मारना शुरू किया था, जब 1962 की लड़ाई हुई थी और मोदी ने आकाशवाणी और अखबारों के जरिये चीन के हाथों भारत की शर्मनाक हार की खबर पढ़ी थी. यही नहीं, ट्रेन से गुजरते हुए भारतीय सैनिकों को भी देखा था, जो सीमित संसाधनों के बावजूद हालात को संभालने की कोशिश कर रहे थे.
चीनी सैनिकों के मुकाबले न तो भारतीय सेना के पास ढंग के हथियार थे और न ही हजारों फीट की उंचाई पर लड़ने के लिए जरूरी कपड़े, जूते और अन्य सामग्री. नेहरू की अगुआई में उस समय का राजनीतिक नेतृत्व हिंदी- चीनी, भाई- भाई के रंग में डूबा हुआ था, उसे लग रहा था कि गुटनिरपेक्ष, पंचशील और विश्व शांति की बात करने वाले भारत पर कोई हमला ही नहीं करेगा. लेकिन अपनी विस्तारवादी नीति के तहत पहले तिब्बत को पचा जाने और फिर नेफा और लद्दाख के इलाके में जब चीन ने अचानक हमला बोल दिया, तो हमारे हुक्मरानों की आंखें खुलीं, और भारतीय सैनिकों को चीन की सेना का मुकाबला करने के लिए भेज दिया गया, जिसके लिए सेना कहीं से तैयार नहीं थी. न तो रसद पहुंचाने की कोई व्यवस्था हो पाई थी और न ही कुशल अधिकारियों को तैनात किया गया.
जंग शुरू होते ही कमांडर को आया बुखार
बिना युद्ध अनुभव वाले लेफ्टिनेंट जनरल बीएम कौल को कोर कमांडर बना दिया गया, सिर्फ नेहरू से निकटता के कारण. लड़ाई शुरू होने के साथ ही कौल को डर के मारे बुखार आ गया, दिल्ली में अस्पताल के बेड से कौल भला कैसे सैन्य टुकड़ियों को उचित नेतृत्व दे सकते थे, अंदाजा ही लगाया जा सकता है. परिणाम स्वाभाविक था, भारतीय जवानों को बड़े पैमाने पर शहादत देनी पड़ी, मनोबल टूटा और चीन की सेना काफी अंदर तक घुस आई. तेजपुर का खजाना भी जला दिया गया और नेहरू ने असम के लोगों को भगवान के भरोसे छोड़ दिया. उस जमाने में आज का अरुणाचल प्रदेश नेफा के तौर पर जाना जाता था. शिलांग असम की राजधानी हुआ करती थी, जहां से चलता था नेफा का प्रशासन भी.
इस घटनाक्रम से बाकी देशवासियों की तरह मोदी जैसे लाखों छात्र भी व्यथित हुए. दुश्मन का मुकाबला करने के लिए हर कोई आगे बढ़कर योगदान देना चाह रहा था. लोगों ने बड़े पैमाने पर सेना राहत फंड में दान भी दिया था. मोदी जैसों को लग रहा था कि उम्र कम है, तो सेना ज्वाइन नहीं कर सकते, तो सैनिक स्कूल ही ज्वाइन कर लें, इससे आगे जाकर सेना में अधिकारी बनने का मार्ग आसान हो जाता था.
पकड़ी एनसीसी की राह
जिस समय चीन और भारत की लड़ाई हुई, उस समय मोदी बारह साल के थे. साल भर पहले ही जामनगर जिले के बालाछड़ी में समंदर के किनारे जहां जामनगर के महाराजा का ग्रीष्मकालीन महल हुआ करता था, सैनिक स्कूल की स्थापना की गई थी. जुलाई 1961 में स्थापित हुए इस स्कूल में दाखिला छठी क्लास से शुरू होता था, 10-12 साल वाले बच्चों को प्रवेश दिया जाता था. जो बच्चे छठी में प्रवेश नहीं ले पाते थे, उनके पास नौंवी में दाखिले का भी एक विकल्प रहता था. लेकिन घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, पिता दामोदरदास मोदी और मां हीराबा बड़ी मुश्किल से अपने छह बच्चों को पाल- पोस रहे थे, कहां से सैनिक स्कूल में पढ़ाई का खर्च उठा पाते. नन्हा नरेंद्र तो चाय की दुकान पर उनकी मदद कर रहा था, उसे बाहर भेजने को तैयार नहीं हुए पिता दामोदरदास मोदी.
नरेंद्र मोदी मन मसोस कर रह गये. लेकिन जल्दी ही उन्होंने एनसीसी की राह पकड़ी. किशोर वय के छात्रों में अनुशासन, देश प्रेम और एकता की भावना को सुदृढ़ करने के लिए 16 जुलाई 1948 को स्थापित हुई एनसीसी में दो डिविजन हुआ करते थे, जूनियर डिविजन और सीनियर डिविजन.
इस तरह मिला एनसीसी में प्रवेश
मोदी की सेहत बहुत अच्छी नहीं थी, बचपन के दिनों में दुबले- पतले और छोटी कद काठी के थे नरेंद्र मोदी, लेकिन फुर्ती में कोई कमी नहीं.
नरेंद्र मोदी तब तक बीएन हाईस्कूल में पहुंच चुके थे, जिसकी स्थापना 1949 में हुई थी और जिसकी स्थापना के लिए भगवताचार्य नारायणाचार्य ने 25000 रुपये दिये थे, जिसकी वजह से स्कूल को उनका नाम दिया गया. भगवताचार्य नारायणाचार्य यानी बीएन हाई स्कूल में अंग्रेजी के शिक्षक रहे गोरधनभाई पटेल से मोदी ने एनसीसी में शामिल होने के लिए अनुरोध किया, गोरधनभाई ही स्कूल में एनसीसी के इंस्ट्रक्टर थे. एनसीसी में दाखिले के लिए कम से कम तेरह साल की आयु होनी चाहिए थी और अच्छी सेहत की भी उम्मीद की जाती थी. गोरधनभाई मोदी की सेहत को देखकर आशंकित थे, लेकिन जब उन्होंने तमाम टेस्ट लिये, तो बाकी छात्रों की तुलना में नरेंद्र मोदी ज्यादा बेहतर साबित हुए और इस तरह उन्हें एनसीसी में प्रवेश मिला.
तीन साल तक नरेंद्र मोदी ने एनसीसी कैडेट के तौर पर काम किया. इस दौरान .22 राइफल से निशाना लगाने में वो काफी प्रवीण हो गये थे, लक्ष्य पर बिलकुल सही निशाना लगा लेते थे मोदी. उस समय भला किसे पता था कि सेना या फिर सैनिक स्कूल में भी नहीं जा पाने वाला ये छात्र सियासत के क्षेत्र में कितना सटीक निशाना लगा पाएगा और लगातार नई उंचाइयों पर जाएगा.
एनसीसी के इस दौर में मोदी हमेशा टर्नआउट में भी सबसे अव्वल रहते थे, ड्रेस और जूतों को हमेशा चमका कर रखना. शर्ट, पैंट और जूते ही नहीं, बेल्ट की पीतल वाली बकल को भी चमकाकर रखते थे मोदी.
एनसीसी के इन्हीं दिनों से मोदी को अपने को सलीके से रखने की आदत पड़ गई, जो अब तक जारी है और जिसकी देश- दुनिया नोटिस लेती है. मोदी के एनसीसी दिनों के एक- दो तस्वीरें 1965 में खीची गई थीं, जब वो उत्तर गुजरात के एक कैंप में गये थे. उन तस्वीरों में भी मोदी अच्छे टर्नआउट में दिखाई दे रहे हैं.
भारत- पाकिस्तान युद्ध
1965 का यही वो साल था, जब भारत और पाकिस्तान के बीच दूसरा युद्ध हुआ था. इसकी शुरुआत पाकिस्तान ने नरेंद्र मोदी के अपने गृह राज्य गुजरात की कच्छ सीमा में घुसपैठ कर ही की थी. उस वक्त कच्छ और सिंध के बीच की अंतरराष्ट्रीय सीमा को लेकर पाकिस्तान ने विवाद खड़ा करते हुए चुपके से अपनी फौज आगे बढ़ा दी थी और कच्छ के रन के दलदली इलाके में बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया था. उस समय सीमा पर चौकसी इतनी मजबूत नहीं हुआ करती थी. कच्छ के रन के इलाके में भारतीय सीमा की पहरेदारी सीआरपीएफ और गुजरात राज्य स्टेट रिजर्व पुलिस के जवानों की मिली- जुली टुकड़ी करती थी. इस घटनाक्रम के बाद ही सीमा की रखवाली के लिए विशेष केंद्रीय बल के तौर पर बीएसएफ की स्थापना की गई.
पाकिस्तान की कच्छ इलाके में घुसपैठ का मुकाबला करने के लिए बड़े पैमाने पर भारतीय सैनिकों को लगाया गया. कच्छ सीमा पर शुरु हुआ यही वो टकराव था, जो आगे चलकर भारत- पाकिस्तान के बीच भारी- भरकम युद्ध में तब्दील हुआ और भारतीय सेना लाहौर की दहलीज तक तक पहुंच गई. उस वक्त भारतीय सैनिकों का हौसला बढ़ाने के लिए मोदी महेसाणा स्टेशन तक गये थे, जहां से ट्रेनों के जरिये फौज की बड़ी मूवमेंट हो रही थी.
रंगमंच में भी आजमाया हाथ
स्कूल और एनसीसी के इन दिनों में ही मोदी रंगमंच की तरफ भी बढ़ गये थे. जोगीदास खुमाण, हरियाली का हत्यारा, स्नेह सगाई जैसे नाटकों में हिस्सा लिया था. वैसे भी आनर्त प्रदेश, जो प्राचीन काल में उत्तर गुजरात के इलाकों के लिए प्रयुक्त होता था और जिसमें वडनगर भी आता था, नाट्य विद्या के लिए जाना जाता था. आनर्त के लोग नाट्य कला में पारंगत होते थे. मोदी भी स्कूली दिनों में नाटकों में अभिनय करने में पारंगत हो चुके थे. ज्यादातर नाटक सामाजिक सुधार और महत्वपूर्ण संदेश देने वाले होते थे. इन नाटकों के मंचन के दौरान कई बार सामाजिक कार्यों के लिए धन भी जुटाया जाता था.
बहुत सारे चैरिटी शो नरेंद्र मोदी ने अपने साथियों के साथ मिलकर किये थे. मोदी अभिनय करते- करते खुद नाटक लिखने और निर्देशित करने भी लगे थे. ऐसा ही एक नाटक था पीलू फूल, जो छुआछूत की सामाजिक समस्या को लेकर था और इसके खिलाफ समाज को जागरूक करने के लिए था.
मोदी का उत्साह स्कूली दिनों में कई नाटकों में अच्छी भूमिका निभाने और निर्देशित करने के कारण काफी बढ़ गया था. वो विधिवत तौर पर नाट्य शास्त्र की पढ़ाई के लिए महाराष्ट्र के किसी ड्रामा स्कूल में दाखिला लेना चाह रहे थे. 11वीं की पढ़ाई करने के बाद इस दिशा में आगे बढ़ने का इरादा था, महाराष्ट्र में उस समय थियेटर की परंपरा काफी मजबूत थी, जहां नाटक सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना को जगाने का सशक्त माध्यम थे. उस दौर में मुंबइया फिल्मों में भी सेक्स, हिंसा और मसाला से भरपूर होने की जगह सामाजिक संदेश सुनाई पड़ते थे.
लेकिन पिता इसके लिए भी तैयार नहीं हुए. बेटे ने जब पिता दामोदरदास मोदी को अपने इरादे की जानकारी दी, तो पिता ने डांट दिया- बैठ यहां, तुम्हें नाचने वाला बनना है क्या. उस दौर में हर माता-पिता की ख्वाहिश यही होती थी कि बेटा पढ़- लिख कर डॉक्टर या इंजीनियर बने, उसके लिए ग्यारहवीं की पढ़ाई के बाद विज्ञान का पाठ्यक्रम दिलाया जाता था. पिता दामोदरदास मोदी अपने बेटे को कहां कलाकार बनाने के लिए तैयार होते, जहां न तो कमाई का कोई भरोसा था और न ही पैसे देकर सुदूर महाराष्ट्र में भेजने की कुव्वत.
एमएन कॉलेज में की पढ़ाई
ऐसी परिस्थिति में ग्यारहवीं यानी एसएससी पास करने के बाद विज्ञान की पढ़ाई के लिए सबसे अच्छा नजदीकी कॉलेज विसनगर में ही था. एमएन कॉलेज के तौर पर जाना जाता था. इस कॉलेज की स्थापना स्वतंत्रता हासिल होने के ठीक पहले, 1946 में हुई थी. इसकी स्थापना का श्रेय जाता है सेठ माणेकलाल नानचंद को, उन्होंने ही इसके लिए धन मुहैया कराया था, बड़ा दान दिया था. इसलिए कॉलेज को उन्हीं का नाम दिया गया.
मोदी के जन्म स्थल वडनगर की तरह विसनगर भी तब गायकवाड़ की रियासत का ही हिस्सा था. आखिर पूरा महेसाणा जिला ही बड़ौदा रियासत का हिस्सा था. महेसाणा के अंदर वडनगर और विसनगर दोनों ही आते थे, आज भी हैं. कॉलेज की इमारत काफी हद तक उस बड़ौदा कॉलेज की इमारत की तरह ही है, जिसकी स्थापना रियासत के सबसे प्रतापी शासक महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ तृतीय ने अपने शासन काल के दौरान की थी, 1881 में. ये बड़ौदा कॉलेज ही आजादी के दो साल बाद, 1949 में महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी के तौर पर तब्दील हुआ.
जिस तरह से बडौदा कॉलेज की प्रसिद्धि अपनी शैक्षणिक गुणवत्ता के कारण थी, वैसी ही शोहरत एमएन कॉलेज ने भी स्थापना के तुरंत बाद हासिल कर ली थी. उस जमाने में उच्च शिक्षा के केंद्र वैसे ही कम थे. परिस्थिति ये बनी कि अजमेर से लेकर अहमदाबाद के बीच सबसे अच्छे कॉलेज के तौर पर एम एन कॉलेज की गिनती होने लगी. कारण भी साफ था, न सिर्फ कॉलेज की अपनी इमारत भव्य थी, बल्कि यहां पढ़ाने वाले शिक्षक भी उच्च कोटि के थे. वैसे भी कोई शैक्षणिक संस्था अपनी इमारत से ज्यादा पढ़ाई के उच्च स्तर से ही शोहरत बटोरती है, प्राचीन काल में भी यही बात लागू होती थी और आधुनिक काल में भी.
विनायक कृष्ण गोकाक थे प्रिंसिपल
इस कॉलेज के शिक्षक कितने अच्छे थे, इसका अंदाजा इस बात से भी लग सकता है कि इस कॉलेज के संस्थापक प्रिंसिपल थे विनायक कृष्ण गोकाक. ये वही गोकाक थे, जिन्हें 1990 में कन्नड़ भाषा की अपनी रचना भारत सिंधु रश्मि के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला और देश- विदेश में शोहरत हुई. बाद के दिनों में उन्हें पद्म श्री से भी नवाजा गया.
मजे की बात ये थी कि गोकाक अंग्रेजी साहित्य के प्रोफेसर थे और ऑक्सफोर्ड से उन्होंने पढ़ाई की थी. जनवरी 1946 में एमएन कॉलेज के प्रिंसिपल बनने के पहले वो विलिंगडन कॉलेज, सांगली के प्रिंसिपल रह चुके थे. पूरे ढाई साल तक एमएन कॉलेज के प्रिंसिपल रहे थे गोकाक और इसकी जड़ें जुलाई 1949 तक मजबूत करने के बाद उन्होंने पदभार छोड़ा, कोल्हापुर गये और राजाराम कॉलेज के प्रिंसिपल बने. मोदी जब 1967 में एमएन कॉलेज दाखिला लेने के लिए गये, उससे पहले मशहूर गणितज्ञ पीसी वैद्य भी इस कॉलेज के प्रिंसिपल रह चुके थे.
उस जमाने में पुरानी शिक्षा पद्धति चल रही थी, नई शिक्षा पद्धति तो 1981 में लागू हुई. पुरानी शिक्षा पद्धति के तहत ग्यारहवीं की पढ़ाई करने के बाद छात्र एक साल के लिए प्री- यूनिवर्सिटी की पढ़ाई करते थे, फिर स्नातक की पढ़ाई करते थे.
नरेंद्र मोदी ने एमएन कॉलेज में विज्ञान प्रवाह से प्री- यूनिवर्सिटी करने के लिए दाखिला लिया. माता- पिता की यही इच्छा थी, उनकी संतान बड़ा होकर डॉक्टर या इंजीनियर बने, फिर अच्छी कमाई करे.
नहीं भा रही थी सामान्य पढ़ाई
परिवार वालों की इसी इच्छा के मुताबिक मोदी ने वर्ष 1967 में प्रवेश लिया. विसनगर ननिहाल भी थी, नाते- रिश्तेदार भी थे. घर वडनगर भी ज्यादा दूर नहीं था. लेकिन मोदी का मन यहां ज्यादा नहीं लगता था. कॉलेज की सामान्य पढ़ाई उनको बहुत भा नहीं रही थी. इसलिए कुछ समय के अंदर ही मोदी उचटने लगे थे कॉलेज जाने से. 1967-68 के सत्र में मोदी की उपस्थिति भी कम रही थी. महज 61 दिन कॉलेज गये थे मोदी.
मोदी से पहले इसी कॉलेज में दो और लोगों ने दाखिला लिया था, शंकरसिंह वाघेला और आनंदीबेन पटेल. उस समय भला किसे पता था कि आगे चलकर ये मोदी के राजनीतिक जीवन में कितनी बड़ी भूमिका निभाएंगे. किसे पता था कि जिस शंकरसिंह वाघेला के प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए वो बीजेपी की गुजरात इकाई में प्रवेश करेंगे संगठन महामंत्री के तौर पर, उन्हीं वाघेला के विद्रोह की वजह से उन्हें गुजरात छोड़ना भी पड़ेगा करीब छह वर्षों के लिए. या फिर ये भी किसे पता था कि जब गुजरात में रिकॉर्ड पौने तेरह साल तक मुख्यमंत्री रहने के बाद वो दिल्ली की तरफ कूच करेंगे, तो वो सत्ता की बागडोर कॉलेज की अपनी सीनियर रहीं आनंदीबेन पटेल को सौंप कर आएंगे.
जिस एमएन कॉलेज ने गुजरात को तीन- तीन मुख्यमंत्री देकर अब रिकॉर्ड बुक में अपना नाम दर्ज कराया है, वहां पढ़ने के दौरान मोदी भला सियासत के बारे में कहां सोचते थे, वो तो सांसारिक बंधनों से ही मुक्ति चाह रहे थे. और यही हुआ भी, विसनगर के एमएन कॉलेज में कुछ महीने गुजारने के बाद ही, परिवार का बंधन तोड़कर संन्यास की तरफ बढ़ने का इरादा मजबूत कर बैठे मोदी.
घर- गृहस्थी में नहीं था मन
माता- पिता तो बचपन से ही चिंतित रहते थे, नरेंद्र मोदी के मिजाज को देखते हुए, कहीं साधु न बन जाए उनका लाड़ला, इसलिए शादी भी जबरदस्ती कर दी थी अपने नाबालिग बेटे की, वडनगर में स्कूल की पढ़ाई खत्म होने के कुछ समय बाद ही. लेकिन मोदी का मन घर- गृहस्थी में कहां था. वो तो साधु- संन्यासी और संघ की शाखाओं में लगता था, जहां स्व से ज्यादा राष्ट्र की चिंता की बात होती थी. बचपन से ही नरेंद्र मोदी वकील साहब जैसे उन प्रचारकों को भी देखते थे, जो अपना घर- बार छोड़कर, गृह नगर से सैकड़ों किलोमीटर दूर गुजरात के ग्रामीण इलाकों और कस्बों में संघ की जड़ें जमाने में लगे हुए थे, लगातार प्रवास कर रहे थे.
अध्यात्म के उंचे शिखर को छूने की कोशिश
उन साधुओं को भी देखते थे मोदी, जो लगातार तप करते हुए अध्यात्म के उंचे शिखर को छूने की कोशिश कर रहे थे. वडनगर की लाइब्रेरी में बैठकर नरेंद्र मोदी ने अपने आदर्श स्वामी विवेकानंद के बारे में भी तो पढ़ा था, जो कम उम्र में ही संन्यास धारण कर पूरे देश और दुनिया में सनातन संस्कृति की पताका लहरा चुके थे और 1893 में शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में जाने से पहले गुजरात के भी तमाम शहरों- कस्बों का दौरा कर चुके थे.
बचपन से किशोरवस्था के बीच मोदी ने धार्मिक और आध्यात्मिक पुस्तकों को खूब पढ़ा था. जितना पढ़ा था, उतना ही अध्यात्म की तरफ झुकाव भी बढ़ता चला गया था. ऐसे में वयस्क होकर गृहस्थ जीवन जीने से पहले ही मोदी ने घर- बार छोड़ना तय किया.
घरवालों को अपने इरादे की जानकारी दी. स्वाभाविक तौर पर हाहाकार मचना ही था. लेकिन जब माता- पिता और पड़ोसियों के समझाने- बुझाने का कोई असर नहीं हुआ तो मोदी को मां हीराबा ने टीका लगाकर विदा किया. मोदी के यायावरी जीवन की ये शुरुआत हो रही थी, कहां जाएंगे, किससे दीक्षा लेंगे, मां- पिता, परिवार, सगे- संबंधी किसी को पता नहीं.
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FIRST PUBLISHED : January 4, 2024, 19:15 IST