Rajasthan

Chhappaniya Aakal Story. राजस्थान का 1956 का भीषण अकाल – Full History & Facts

Last Updated:November 14, 2025, 10:43 IST

Chhappaniya Aakal 1956: छप्पनिया अकाल (विक्रम संवत 1956) राजस्थान के इतिहास का सबसे भीषण अकाल माना जाता है. बारिश न होने से भूख-प्यास से लोग और पशु तड़पते रहे, कई ने खेजड़ी की छाल पीसकर रोटियाँ खाईं. हजारों लोग पलायन के लिए मजबूर हुए. यह अकाल दर्द, संघर्ष और इंसानियत की मिसाल बनकर आज भी याद किया जाता है.

बाड़मेर. राजस्थान ने कई बार सूखे और अकाल की मार झेली है, लेकिन विक्रम संवत 1956 (ईसवी सन 1899) का ‘छप्पनिया अकाल’ आज भी मरुस्थल की रेत में दबी सबसे भयानक त्रासदी के रूप में याद किया जाता है. कहते हैं उस साल आसमान रूठ गया था—बादल आते थे, पर बरसने से मानो इंकार कर देते थे. चारों तरफ भूख, प्यास और पलायन का दुखद मंजर था. राजस्थान में एक कहावत मशहूर थी — “तीजो कुरियो, आठवो काल” यानी हर तीसरे साल हल्का अकाल और हर आठवें वर्ष भीषण अकाल निश्चित माना जाता था. लेकिन 1956 का अकाल इन सभी से कई गुना भयावह साबित हुआ. यह अकाल केवल सूखा नहीं था, बल्कि चरम ताप और पशुधन की हानि का ऐसा मिश्रण था जिसने मानव जीवन को दाँव पर लगा दिया था.

साल 1899 था, पर हिंदू पंचांग के अनुसार वह विक्रम संवत 1956 चल रहा था. इसी कारण इसे “छप्पनिया अकाल” कहा गया. इस साल भूख से तड़पते लोगों के शरीर इतने सूख गए कि हड्डियाँ साफ दिखाई देने लगीं. मरुस्थल में तापमान 50–52°C तक पहुँच जाता था, ऊपर से पानी की कमी. पीने के पानी के स्रोत सूख चुके थे और लोग भूख और प्यास से रास्तों में ही दम तोड़ देते थे. अकाल के कारण लाखों पशुधन भी मारे गए, जिससे किसानों की आर्थिक रीढ़ टूट गई.

पेड़ों की छाल पीसकर खानी पड़ी—भूख का क्रूर सचपीने के पानी की कमी और अनाज के घोर अभाव ने लोगों को घास की रोटियाँ और पेड़ों की सूखी छाल खाने पर मजबूर कर दिया. बाड़मेर के बुजुर्ग मूलाराम पूनड़ बताते हैं — “लोग खेजड़ी की छाल पीसकर रोटी बनाते थे. दो दिन तक खाने पर गले में दर्द हो जाता था, पर मजबूरी थी… कुछ और बचा ही नहीं था.” मूलाराम कहते हैं कि यह अकाल भूख की परीक्षा कम और उम्मीद की सबसे बड़ी कसौटी था. छाल खाने के बाद भी लोगों को पेट भरने का भ्रम होता था, जबकि शरीर अंदर से खोखला होता जा रहा था.

पलायन—जीवित रहने की आखिरी कोशिशअकाल के दौरान हजारों लोग अपने पशुधन के साथ राजस्थान से पलायन कर मध्यप्रदेश, गुजरात और अन्य इलाकों की ओर निकल पड़े. रास्तों में कई लोग प्यास से गिर पड़ते थे, कई भूख से दम तोड़ देते थे. मृत्यु दर इतनी अधिक थी कि गाँव के गाँव उजड़ गए. मूलाराम याद करते हैं — “हमारे परिवार ने भी भेड़-बकरियाँ लेकर मध्यप्रदेश का रुख किया था. आज भी वो दिन याद आते हैं तो रूह काँप उठती है.”

इंसानियत बनी उम्मीद की रोशनीभयावह हालातों में भी लोगों ने एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ा. गाँवों में जो थोड़ा-बहुत अनाज बचा था, उसे बाँटा गया. कई परिवारों ने बेसहारा लोगों को अपने साथ रखा और उन्हें आश्रय दिया. यही इंसानियत उस अकाल में सबसे बड़ी ताकत बनी. जब अंततः बारिश लौटी, तो सिर्फ धरती ही नहीं भीगी—लोगों की आँखें भी उम्मीद और राहत के आँसुओं से भर गईं. यह अकाल संघर्ष, दर्द और साथ ही मानवीय भावना की अटूट मिसाल बन गया.

Location :

Barmer,Barmer,Rajasthan

First Published :

November 14, 2025, 10:43 IST

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रेत, प्यास और संघर्ष… रेगिस्तान का सबसे काला दौर, जब खाने को बची…

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