सुप्रीम कोर्ट में SIR पर बहस, मतदाता सूची और EC अधिकारों पर सवाल

सुप्रीम कोर्ट में गुरुवार को स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) को लेकर एक बार फिर जमकर बहस हुई. चुनाव आयोग द्वारा कई राज्यों में मतदाता सूची के व्यापक सत्यापन अभियान पर सवाल उठाते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने नागरिकता और मतदाता पंजीकरण से जुड़े महत्वपूर्ण तर्क रखे. उन्होंने कहा, 2003 का वोटर लिस्ट देखने के लिए कहा जा रहा है. अगर मेरे पिता ने 2003 में वोट ही नहीं दिया या उससे पहले ही उनकी मृत्यु हो गई तो मैं इसे कैसे साबित कर पाऊंगा? इस पर सीजेआई सूर्यकांत ने गजब जवाब दिया.
सिब्बल के सवाल पर CJI सूर्यकांत ने कहा, अगर आपके पिता का नाम 2003 की लिस्ट में नहीं है और आपने भी इस पर ध्यान नहीं दिया… तो शायद आपने अवसर खो दिया. फर्क सिर्फ इतना है कि यदि माता–पिता का नाम 2003 की सूची में नहीं है… तो फिर स्थिति अलग होगी. CJI की इस टिप्पणी को कोर्टरूम में मौजूद कई लोगों ने एक संकेत के रूप में देखा कि परिवार की नागरिकता का ऐतिहासिक रिकॉर्ड मतदाता सूचियों में अनुपस्थित होना व्यक्ति की जिम्मेदारी को कम नहीं करता. हालांकि, अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में प्रक्रिया न्यायसंगत और पारदर्शी होनी चाहिए.
EC के अधिकारों पर सिंघवी का सवाल
बहस के दौरान कपिल सिब्बल ने चुनाव आयोग द्वारा SIR चलाने पर सवाल उठाए. उन्होंने कहा कि SIR जैसी प्रक्रिया को लागू करने का कोई स्पष्ट अधिकार EC को नहीं दिया गया है. सिब्बल ने इसे भव्यता का भ्रम बताया. इस पर पीठ ने कड़ा रुख अपनाते हुए कहा, आपकी दलील के अनुसार, EC कभी भी यह अभ्यास करने की शक्ति नहीं रखेगा. और यह कोई रोजाना का अपडेट नहीं है, बल्कि एक विशेष प्रक्रिया है. यदि हम मान लें कि पहले कभी SIR नहीं हुआ तो इसका यह अर्थ नहीं कि चुनाव आयोग इसे कभी भी नहीं कर सकता. पीठ ने संकेत दिया कि मतदाता सूचियों की शुद्धता सुनिश्चित करना आयोग का मूल दायित्व है, और SIR उसी का विस्तारित रूप है. गुरुवार की सुनवाई के बाद अदालत ने कहा कि वह पूरे मामले की विस्तृत सुनवाई 2 दिसंबर से आगे करेगी. इससे पहले भी बुधवार की सुनवाई में बेंच इस मुद्दे पर महत्वपूर्ण टिप्पणियां कर चुकी है.
SIR पहली बार हो रहा है-यह तर्क मान्य नहीं
सुनवाई के दौरान CJI की अध्यक्षता वाली बेंच ने साफ कहा था कि यह तर्क कि SIR देश में पहले कभी नहीं हुआ, इसकी वैधता की जांच का आधार नहीं हो सकता. बेंच ने कहा कि चुनाव आयोग के पास फॉर्म-6 में दिए गए विवरण की शुद्धता जांचने का अंतर्निहित अधिकार (inherent power) है. फॉर्म-6 वह दस्तावेज है, जिसे कोई भी नागरिक मतदाता पंजीकरण के लिए भरता है. EC का कहना है कि कई राज्यों में मतदाता सूचियों में बड़ी मात्रा में त्रुटियां, डुप्लीकेसी या पुरानी प्रविष्टियां हैं. SIR उसी को ठीक करने का एक विशेष अभियान है.
आधार कार्ड पर अहम टिप्पणी
बेंच ने गुरुवार को भी अपनी पुरानी स्थिति दोहराई. कोर्ट ने कहा, आधार कार्ड नागरिकता का पूर्ण और अंतिम प्रमाण नहीं है. इसलिए इसे दस्तावेज़ों की सूची में एक विकल्प माना गया है, न कि निर्णायक प्रमाण. अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि SIR के दौरान किसी मतदाता का नाम सूची से हटाया जाता है, तो निर्वाचन अधिकारी को उसे नोटिस देना अनिवार्य होगा. यह सुनिश्चित करने के लिए कि किसी भी नागरिक का मताधिकार बिना सुनवाई के न छीना जाए, कोर्ट बेहद सख्त है.
मामला इतना संवेदनशील क्यों है?
SIR का विरोध करने वाले कई याचिकाकर्ताओं का कहना है कि इसका दुरुपयोग कर बड़ी संख्या में लोगों के नाम मतदाता सूची से हटाए जा सकते हैं. नागरिकों पर 20 साल पुराना रिकॉर्ड साबित करने का बोझ अनावश्यक है. सीमावर्ती राज्यों में यह राजनीतिक हथियार बन सकता है. वहीं चुनाव आयोग का तर्क है कि हर राज्य में लाखों नाम फर्जी, डुप्लीकेट या अप्रासंगिक हैं. स्थलांतरण, मृत्यु और डुप्लीकेसी की सूचना नागरिक समय पर नहीं देते. SIR से चुनावी प्रक्रिया साफ और विश्वसनीय बनेगी.



