अलवर में ठंड से बाजार गर्म, कंबलों का क्रेज चरम पर; लेकिन अचानक कारीगरों की रोजी पर क्यों आ गया संकट?

Last Updated:November 26, 2025, 22:00 IST
अलवर में सर्दी बढ़ते ही बाजारों में कंबलों की मांग तेज़ हो गई है और लोग पारंपरिक रजाइयों की जगह हल्के रेडीमेड कंबलों को अधिक पसंद कर रहे हैं. बढ़ती लागत और बदलती जीवनशैली के कारण रुई से भरी रजाइयों का चलन लगातार कम होता जा रहा है. कारीगरों का कहना है कि रेडीमेड कंबलों के बढ़ते उपयोग से पारंपरिक रजाई–गद्दा कला और उनकी रोज़गार पर बड़ा असर पड़ रहा है. वहीं विशेषज्ञों का मानना है कि कॉटन रजाइयाँ स्वास्थ्य के लिए बेहतर होती हैं, लेकिन फिर भी आधुनिक विकल्पों की ओर रुझान बढ़ता जा रहा है.
अलवर. सर्दी ने अलवर जिले में दस्तक दे दी है और इसके साथ ही बाजारों में गर्म कपड़ों की खरीदारी तेजी से बढ़ रही है. लोग ठंड से बचाव के लिए कंबल और रजाइयाँ खरीद रहे हैं, लेकिन इस बार कंबलों की मांग सबसे ज्यादा देखने को मिल रही है. नई पीढ़ी परंपरागत रुई से भरने वाली रजाइयों की जगह अलग-अलग क्वालिटी और डिज़ाइन वाले हल्के और गर्म कंबलों को अधिक पसंद कर रही है. इन्हें संभालना आसान होता है और कीमत में भी कई विकल्प उपलब्ध होने से लोग तेजी से कंबलों की ओर आकर्षित हो रहे हैं.
बाजारों में कंबलों की बढ़ती मांग के कारण रजाई–गद्दों का चलन धीरे-धीरे कम हो रहा है. हालांकि बरसों से घरों में रुई से भरी जाने वाली रजाइयाँ सर्दी से बचाव का सबसे भरोसेमंद साधन मानी जाती रही हैं, लेकिन अब बदलती पसंद और आधुनिक विकल्पों ने बाजार का रुझान बदल दिया है. इसके बावजूद ग्रामीण इलाकों में अभी भी रजाई–गद्दों की मरम्मत, पीनाई और भराई का काम सर्दियों की शुरुआत में शुरू हो जाता है जो पुराने दिनों की याद दिलाता है.
कंबलों और रेडीमेड गद्दों का बढ़ता क्रेजदुकानदार सुनील उर्फ सुन्नत खान बताते हैं कि पहले लोग रुई से भरी रजाई और हाथों से तैयार गद्दों का इस्तेमाल करते थे, लेकिन अब रेडीमेड कंबल और गद्दों की मांग तेजी से बढ़ी है. उन्होंने बताया कि पारंपरिक रजाई स्वास्थ्य के लिए बेहतर मानी जाती है क्योंकि इन्हें रुई से बार-बार भरा जा सकता है और लंबे समय तक उपयोग किया जा सकता है. वहीं कंबलों में यह सुविधा नहीं होती. उन्होंने यह भी कहा कि रजाई गद्दों को तैयार करने वाले कारीगरों की रोजी रोटी पर भी संकट खड़ा हो रहा है क्योंकि अब लोग रेडीमेड सामान को प्राथमिकता देने लगे हैं.
बढ़ती लागत और बदलती जीवनशैली ने बदला रुझानग्रामीण क्षेत्रों में जैसे ही सर्दी शुरू होती है लोग रजाई और गद्दों में रुई की भराई, पीनाई और धागा डालने का काम शुरू कर देते हैं. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में कपास के दाम बढ़ने और आधुनिक जीवनशैली के कारण लोगों का रुझान परंपरागत रजाई–गद्दों से हटकर तैयार कंबलों और रेडीमेड गद्दों की ओर बढ़ा है. वर्तमान में एक जोड़ी रजाई–गद्दे की भराई, पीनाई और धागा डालने की मजदूरी करीब 400 रुपये तक पहुंच चुकी है. रजाई का अस्तर 200 से 350 रुपये और गद्दे का अस्तर 150 से 250 रुपये तक मिलता है. वहीं रुई का दाम बढ़कर 150 से 250 रुपये प्रति किलो हो गया है जिससे पारंपरिक रजाइयाँ बनवाना महंगा होता जा रहा है. इस वजह से लोग अब केवल जरूरत भर की रजाइयाँ ही तैयार करवा रहे हैं.
स्वास्थ्य पर असर और पारंपरिक कला पर संकटस्थानीय कारीगर सुन्नत खान के अनुसार परंपरागत रजाइयाँ पूरी तरह सूती और कॉटन से बनती थीं जो स्वास्थ्य के लिए बेहतर होती हैं. जबकि बाजार में उपलब्ध अधिकांश रेडीमेड कंबल प्लास्टिक की बोतलों से तैयार किए जाते हैं जो स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक हो सकते हैं. इसके बावजूद सर्दियों में कंबलों की मांग सबसे अधिक रहती है और इसी कारण पारंपरिक रजाइयाँ धीरे-धीरे घरों से गायब होती जा रही हैं. यह बदलाव न केवल पुरानी कारीगरी पर असर डाल रहा है बल्कि उन परिवारों की आजीविका को भी प्रभावित कर रहा है जो पीढ़ियों से रजाई–गद्दे बनाने का काम करते आ रहे हैं.
Anand Pandey
नाम है आनंद पाण्डेय. सिद्धार्थनगर की मिट्टी में पले-बढ़े. पढ़ाई-लिखाई की नींव जवाहर नवोदय विद्यालय में रखी, फिर लखनऊ में आकर हिंदी और पॉलीटिकल साइंस में ग्रेजुएशन किया. लेकिन ज्ञान की भूख यहीं शांत नहीं हुई. कल…और पढ़ें
नाम है आनंद पाण्डेय. सिद्धार्थनगर की मिट्टी में पले-बढ़े. पढ़ाई-लिखाई की नींव जवाहर नवोदय विद्यालय में रखी, फिर लखनऊ में आकर हिंदी और पॉलीटिकल साइंस में ग्रेजुएशन किया. लेकिन ज्ञान की भूख यहीं शांत नहीं हुई. कल… और पढ़ें
Location :
Alwar,Rajasthan
First Published :
November 26, 2025, 22:00 IST
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ठंड से कंबलों का क्रेज चरम पर; लेकिन कारीगरों की रोजी पर क्यों आ गया संकट?



