मुख्यमंत्री तीन किस्म के होते हैं- चुने हुए मुख्यमंत्री, रोपे हुए मुख्यमंत्री और तीसरे वे…

भारतीय राजनीत और खासकर चुनावों पर प्रसिद्ध व्यंग्यकार शरद जोशी ने तीखे कटाक्ष किए हैं. जिस प्रकार राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री के नाम को लेकर खूब खींचातान मची उस पर भी शरद जोशी का काफी पहले लिखा हुआ व्यंग्य एकदम सटीक बैठता है. राजकमल प्रकाशन से शरद जोशी के व्यंग्यों का एक संग्रह और शरद जोशी नाम से प्रकाशित हुआ है. इस संग्रह में एक व्यंग्य है- समाजवाद एक उपयोगी चिमटा. इस व्यंग्य में शरद जोशी ने मुख्यमंत्रियों के प्रकार, उनकी जाति और उनके काम करने के तरीकों पर व्यंग्य कसा है. मुख्यमंत्रियों के मौसम में आप भी इस व्यंग्य का आनंद उठाएं-
मुख्यमंत्री तीन किस्म के होते हैं: चुने हुए मुख्यमंत्री, रोपे हुए मुख्यमंत्री और तीसरे वे, जो इन दोनों की लड़ाई में बन जाते हैं. चुने हुए मुख्यमंत्रियों की तीन जात होती हैं. एक तो काबिलियत से चुने जाते हैं, दूसरे वे जो गुट, जाति, रुपयों आदि के दम जीतते हैं और तीसरे वे, जो कोई विकल्प न होने की स्थिति में चुन लिए जाते हैं. रोपे हुए मुख्यमंत्री दो तरह के होते हैं: एक तो जड़ें जमा लेते हैं, और दूसरे वे, जो उखड़े-उखड़े रहते हैं. रोपे हुए मुख्यमंत्री कोई जरूरी नहीं कि श्रीमती इंदिरा गांधी के ही हों. वे कांग्रेस अध्यक्ष, राजमाता के द्वारा रोपे गए भी हो सकते हैं. जो भी हो, वे होते रोपे हुए ही हैं. जब तक प्रदेशों की राजनीतिक मिट्टी नरम होती है, हवा आर्द्र, तब तक वे पनपते हैं. मिट्टी के सख्त होते ही, असहनीय रूखी हवा चलते ही वे बेसहारा हो जाते हैं. यह उनकी जड़ों का परीक्षाकाल होता है, दिल्ली द्वारा बुरकी गई खाद की जांच हो जाती है. नाई, नाई, बाल कितने? समक्ष प्रस्तुत हो जाते हैं.
हर मुख्यमंत्री दो जगह नजरें गड़ाए रहता है: एक प्रशासन पर, दूसरे संगठन पर. वह प्रशासन के सिर चढ़ संगठन पर रौब गालिब करता है ताकि संगठन के सिर पर बैठ प्रशासन में बना रहे. प्रशासन की दो किस्में होती हैं: एक चुस्त प्रशासन, एक ढीला ढाला प्रशासन. वास्तव में ये दोनों एक ही किस्म की होती हैं. मुख्यमंत्री जब आता है तब वह कहता है कि प्रशासन ढीला और गड़बड़ है. जब वह कुछ दिनों मुख्यमंत्री रह लेता है तब वह कहता है कि प्रशासन अब चुस्त और सक्षम है. जब वह जाने लगता है तब सब कहते हैं कि प्रशासन ढीला था, अक्षम था. प्रशासन वही होता है जो होता है, जब वह वाला होता है तब भ्रष्ट होता है. जब चुस्त होता है तब अधिक भ्रष्ट होता है. प्रशासन में चुस्ती की हवा बनाने पर पैसा खानेवाला अफसर अपने रेट बढ़ा देता है क्योंकि वह स्पष्ट कहता है कि प्रशासन चुस्त है, अतः काम कराना कठिन है. अफसर कई किस्म के होते हैं. कुछ बिलकुल नहीं खाते, कुछ बिल्कुल खाते हैं, कुछ कभी-कभी खाते हैं, कुछ स्वयं नहीं खाते, अपने भ्रष्ट मातहतों द्वारा बटोरी रिश्वत से अंश लेते हैं. शासन यही सब होता है जिसके सम्मान की रक्षा करना मुख्यमंत्री अपनी नैतिक जिम्मेदारी मानते हैं. संगठन प्रभावित होता है. मगर जब तक होना होता है तब तक होता है. एक दिन वह होना बंद कर देता है.
केवल सत्ता के लिए जो पार्टियां चलती हैं, उनमें राजनीतिक कालगर्ल होती हैं- हरिशंकर परसाई
संगठनवाले प्रशासन को अक्षम, अयोग्य घोषित करने लगे रहते हैं और मुख्यमंत्री की टांग खींचने लगते हैं. प्रशासन तटस्थ दर्शक की मुद्रा अख्तियार कर लेता है. संगठन में कुछ समाजवादी होते हैं, कुछ उनसे ज्यादा समाजवादी होते हैं, शेष उनसे ज्यादा समाजवादी होते हैं. जो जितना ज्यादा असंतुष्ट होता है, वह उतना ज्यादा समाजवादी होता है. अतः हर टक्कर समाजवाद बनाम समाजवाद की टक्कर होती है. जनता समझती है, हमारी इसी में भलाई है. वह अखबार पढ़ती है.
समाजवाद सबका सहारा है. वह उखड़नेवाले मुख्यमंत्री का अंतिम सहारा है, उखाड़ने की कोशिश करने वालों का वही शस्त्र है. पिछले वर्षों में पदाभिलाषी नेता कुर्सी के लिए लड़ते थे. आजकल बेहतर समाजवादी बेहतर समाजवाद के लिए लड़ते हैं. रोपा हुआ मुख्यमंत्री समाजवाद में स्थायित्व टटोलता है. उखड़ा हुआ मुख्यमंत्री समझता है कि उसके बाद समाजवाद क्यों आने लगा? समाजवाद बहुत किस्म का होता है मगर सारी किस्मों की एक विशेषता होती है कि वह निरन्तर आता रहता है. आते रहने की सूचना समाजवाद की एकमात्र पहचान है. आ रहा है. वह सिनेमा नहीं जो एक दिन वाकई शहर में लग जाए. वह आता रहता है. मुख्यमंत्री, संगठन प्रशासन उसे बुलाते रहते हैं. असली लड़ाई समाजवाद लाने की नहीं, समाजवाद को बुलाते रहने के अधिकार की लड़ाई है. दोनों पक्ष बुलाना चाहते हैं. वामन, बनिया, ठाकुर- सब समाजवाद बुला रहे हैं. कान्यकुब्ज, गैर-कान्यकुब्ज, सभी चाहते हैं कि हम उसे बुलाएं. घनघोर सद्भावना है.
समाजवाद के कई अर्थ होते हैं: एक राजनीतिक अर्थ होता है, एक प्राइवेट और गुट का अर्थ होता है. शब्द सबका होता है, अपना होता है. यह नारा है, सहारा है, दांवपेंच है, प्राइवेट कोशिश है. यह पोस्टर है, डंडा है, कीचड़ है, समाजवाद ब्रह्म है या किसी और ब्रह्म की महामाया है. सबसे लिपटा हुआ है. बहुत है, बहुस्वार्थी है. वही जमता है, वही उखड़ता है. वही जाता है, वही खाता है. वही आसान है, वही उखाड़ता है. ओम फटकार है. प्रान्तीय राजनीति के कनकटे जोगी चिमटा लेकर खड़े हो गए हैं. ओम हीं क्लीम समाजवाद जयते. समाजवाद को खतरा है अतः मारो समाजवाद को. वही मार जाएगा जो अमर है. वे चिमटे ले टूट पड़े हैं एक-दूसरे पर.
पुस्तकः और शरद जोशी
लेखकः शरद जोशी
प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन
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FIRST PUBLISHED : December 13, 2023, 09:49 IST