गणगौर सवारी पर भी पड़ा राजनीति का असर! कैसे एक संशोधन ने बदल दी परंपरा ?

रविन्द्र कुमार/ झुंझुनूं- शेखावाटी अंचल के गांवों, कस्बों और शहरों में गणगौर का पर्व पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. विशेष रूप से चैत्र शुक्ल तृतीया तिथि को गणगौर की सवारी निकाली जाती है. यह परंपरा वर्षों पुरानी है, जो समय के साथ बदलती रही है.
1975 तक नगरपालिका से निकली सवारीवर्ष 1975 तक नगरपालिका द्वारा गणगौर की सवारी का आयोजन किया जाता था. उस समय यह सवारी खेतान मोहल्ला स्थित आखागढ़ से शुरू होकर समस तालाब तक जाती थी. लेकिन आपातकाल के बाद संविधान में “धर्मनिरपेक्ष” शब्द जुड़ने के बाद, नगरपालिका ने इस धार्मिक आयोजन से हाथ खींच लिया.
जिम्मेदारी श्याम मंदिर से गोपाल गोशाला तकसंविधान संशोधन के बाद सवारी निकालने की जिम्मेदारी पहले राणी सती रोड स्थित श्याम मंदिर को दी गई, लेकिन आर्थिक सीमाओं के चलते अंततः यह दायित्व गोपाल गोशाला को सौंपा गया. अब प्रत्येक वर्ष यहां से गणगौर की शाही सवारी निकलती है.
खर्च में आया बड़ा बदलाव1975 में नगरपालिका द्वारा गणगौर सवारी पर मात्र 15 रुपये खर्च किए गए थे. वहीं 2004 में यह खर्च 500 रुपये, 2010 में 5,000 रुपये और 2024 में करीब 60,000 रुपये तक पहुंच गया. इससे साफ झलकता है कि आयोजन की भव्यता वर्षों में कितनी बढ़ चुकी है.
धर्मनिरपेक्षता के कारण सरकारी मदद बंदपूर्व सचिव सुभाष क्यामसरिया के अनुसार, 1976 में संविधान में “धर्मनिरपेक्ष” शब्द जोड़े जाने के बाद नगरपालिका ने धार्मिक आयोजनों से दूरी बना ली. इसी के चलते गणगौर की सवारी की सरकारी सहायता भी बंद कर दी गई.
पहले कर्मचारी सिर पर रखते थे गणगौर की मूर्तिनगर परिषद के पूर्व कर्मचारी प्रभुदयाल डुलगच बताते हैं कि पहले पालिका कर्मचारी गणगौर की प्रतिमा को सिर पर रखकर चलते थे. सवारी में धर्मदास भवन, चूना चौक, छावनी बाजार, कपड़ा बाजार, गुदड़ी बाजार होते हुए गढ़ तक जुलूस निकलता था. अब गणगौर को रथ में बैठाकर सवारी निकाली जाती है.
आज भी जीवित है परंपराहालांकि अब गणगौर की प्रतिमा श्याम मंदिर में विराजमान रहती है और केवल सवारी वाले दिन गोशाला ले जाई जाती है, लेकिन वर्षों पुरानी यह परंपरा आज भी जीवित है और लोगों के आस्था और श्रद्धा का प्रतीक बनी हुई है.