लैला मजनू नाटक: दर्शकों को खूब हँसाया-रुलाया एनएसडी कलाकारों ने, रामगोपाल बजाज का जादू बरकरार

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के अभिमंच में ‘लैला मजनू’ नाटक का प्रीव्यू शो देखने का मौका मिला. एनएसडी में ‘अंधा युग’ के बाद रामगोपाल बजाज के निर्देशन में यह दूसरा नाटक है. लैला मजनू के किस्सों के अभीतक हमें फिल्मों और नौटंकियों के माध्यम से देखते-सुनते आए हैं, लेकिन यह नाटक इनसे बिल्कुल अगल है. राम गोपाल बजाज के निर्देशन में एनएसडी के रंगमंडल द्वारा मंचित ‘लैला मंजनू’ को अद्भुत नाटक कहा जा सकता है. प्रसिद्ध नाटककार इस्माइल चुनारा का लिखा यह नाटक काव्यात्मक शैली में है. नाटक का हिंदुस्तानी भाषा में अनुवाद किया है साबिर इरशाद उस्मानी ने.
लैला मजनू के अफसाने को फिर से एक रिवायती शायरी और नाटक के अंदाज में बयां किया गया है. नाटक में लैला मजनू की कहानी कोरस के माध्यम से कही गई है. नाटक का संगीत बहुत ही प्रभावशाली है. हालांकि अलग-अलग संगीत और गीतों को जोड़कर लैला मजनू का संगीत तैयार किया गया है.
नाटक की शुरूआत औरतों के एक कोरस से होती है. इसमें बताया जाता है कि कैसे दो जवान दिलों में प्यार पनपा. और प्यार के इस जुनून और शिद्दत ने लोगों को यह सोचने को मजबूर कर दिया कि कैस (मजनू) पर बुरी रूह का साया है.
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यहां लैला के पिता को जब पता चलता है कि लैला और कैस के बीच मुहब्बत पनप रही है तो वे खानदान की इज्जत का वास्ता देते हुए लैला को घर में ही नजरबंद कर देते हैं.
कैस अपने पिता को लैला से पिता से मिलकर शादी की बात करने के लिए राजी करता है. कैस के पिता लैला के पिता से मिलते हैं, लेकिन लैला के पिता कैस को एक मजनू और शायर करते हुए अपनी बेटी का निकाह करने से मना कर देते हैं.
कैस मायूस हो जाता है और उदाली की दलदल में डूबने लगता है. उसके पिता कैस को इस दर्द से उबरने के लिए उसे जियारत पर मक्का ले जाते हैं. लेकिन यहां कैस काबा में लैला को याद करता हुआ फूट-फूट कर रोने लगता है.
कैस खुदा से फरियाद करता है- मुझे प्यार करने दें, अल्लाह, मुहब्बत के लिए मुहब्बत करने दें. कैस लैला की याद में दीवाना हो जाता है. वह सड़कों, गलियों, रेगिस्तान और जंगलों में भटकने लगता है. बस लैला को पुकारता रहता है और शायरी करता रहता है.
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भटकते-भटकते कैस की मुलाकात शहजादे नौफील से होती है. नौफील एक नर्मदिल और शायरी पंसद शहजादा है. वह कैस को अपना दोस्त बनाता है और लैला से मिलवाने का वादा करता है. लैला की खोज में नौफील और कैस कई रेगिस्तान भटकते हैं, कई ऊंचे पर्वतों, गहरे दरियाओं और समुद्रों को पार करते हैं. एक जगह उसका सामना लैला के पिता से होता है. दोनों में युद्ध होता है और बड़ी संख्या में लोग मारे जाते हैं. वह लैला के पिता को गिरफ्तार कर लेता है और कैस तथा लैला का निकाह कराने की बात कहता है. लेकिन यहां एक लड़की का पिता कहता है कि वह कैसे अपनी फूल सी बेटी को एक मजनू के हवाले कर सकता है. पिता के तर्क के आगे नौफील हार जाता है और लैला के पिता को आजाद कर देता है.
अब लैला का निकाह एक शहजाते इब्न सलेम से हो जाता है. इब्न सलेम खुद लैला से बहुत मुहब्बत करता है. लैला शहजादे से निकाह तो कर लेती है लेकिन वह उससे दूरी बनाकर रहती है. लैला भी दिनरात कैस को याद करती रहती है. कुछ समय बाद इब्ने सलेम की मौत हो जाती है. लैला दो साल तक अपने शौहर की मौत का शोक मानने के बाद खुद को तमाम बंधनों से आजाद करती है और कैस की खोज में निकल पड़ती है.
यहां नाटक में बड़ा ही मार्मिक मोड़ आता है. लैला कैस को खोज लेती है. लेकिन कैस से मिलकर वह दुखी हो जाती है. क्योंकि जिस कैस से वह मुहब्बत करती है वह तो यह है ही नहीं. लैला कैस से कहती है-‘कैस, मैं आ गई. ’ कैस अचरज भरी नजरों से उसे देखता है. फिर अपनी धुन में आगे बढ़ जाता है. लैला कैस को रोकती है. कैस कहता है-‘तुम कौन हो, क्या चाहती हो?’ लैला लगभग रोते हुए चिल्लाती है-‘मैं तुम्हारी लैला हूं, देखो, मैं तुम्हारे पास आ गई हूं.’ कैस टका–सा जवाब देता है-‘तुम मेरी लैला नहीं हो, मेरी लैला तो मेरी रूह में समाई हुई है.’ ऐसा कहकर वह आगे बढ़ जाता है. लैला कैस के ठुकराने पर दुखी होकर घुटनों के बल बैठकर दोनों बाहें आसमान की ओर उठा खुदा से पूछती है-‘ऐ खुदा, मैंने नियम से रोजे रखे, कुरान का पाठ किया, फिर भी मेरी किस्मत में जुदाई क्यों?’
कैस अब इस दुनियावी जिंदगी को छोड़कर मुहब्बत की जिंदगी में दाखिल हो गया है. इस गम में लैला भी इस दुनिया को रुखस्त कर जाती है. और इसी दृश्य के साथ पूरा थिएटर तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठता है.
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कोरस में माधवी शर्मा, पोतशंगबम रीता, शिवानी भारतीय, शिल्पा भारती, सुगंध पांडे तथा पूजा गुप्ता दर्शकों पर अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रही हैं. अनंत शर्मा ने कैस का जो रोल निभाया है, उससे कई बार एहसास हुआ कि सचमुच का मजनू मंच पर आ गया है. लैला की भूमिका में मधुरिमा तरफदार ने उर्दू जुबान के लंबे-लंबे संवादों को खूब तालियां बटोरीं. चेहरे की भावभंगिमा प्रभावशाली थी. इब्ने सालिम बने बिक्रम लेप्चा ‘अंधा युग’ के अश्वथामा की तरह यहां भी दर्शकों को अपने अपनी एक्टिंग के जादू में बांधने पर सफल रहे. पूरे नाटक में किस्सागो बने दो कलाकार छाए रहे. उनके संवाद, अभिनय आदि काबिले तारीफ है.
लैला मजनू नाटक का सह निर्देशन किया है राजेश सिंह ने. वेशभूषा अम्बा सान्याल की है. लाइट मैनेजमेंट अवतार साहनी और मंच सज्जा अदिति विस्बास की है.
सही मायनों में देखा जाए तो ‘लैला मजनू’ नाटक के माध्यम से समाज में महिलाएओं की स्थिति पर कटाक्ष किया गया है. यहां लैला और लैला की मां के कई ऐसे संवाद हैं जो कहते हैं कि औरतें केवल मर्दों की पिछलग्गू होती हैं. उनका अपना कोई अस्तित्व नहीं होता. लैला का आखिरी संवाद भी यही दर्शाता है कि धर्म और ईश्वर के यहां भी औरतों की नहीं सुनी जाती. यह नाटक प्रेम, सत्ता, राजनीति और स्त्री मुक्ति के प्रश्नों को नए सिरे से जांच–पड़ताल की मांग करता है.
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Tags: Hindi Literature, Hindi Writer, Literature, Literature and Art
FIRST PUBLISHED : April 26, 2023, 15:46 IST