लेक्चरार से बने नेता, ‘दलबदलू’ या ‘कुशल-नेता’, जानें कौन हैं उपेंद्र कुशवाह?

बिहार चुनाव 2025 से ठीक पहले एनडीए के सीट शेयरिंग फॉर्मूले ने कुशवाहा को फिर सुर्खियों में ला दिया. रविवार को एनडीए ने ऐलान किया कि जेडीयू और बीजेपी 101-101 सीटों पर लड़ेंगी, एलजेपी (आरवी) 29, हम 6 और आरएलएम को 6 सीटें मिलेंगी. लेकिन कुशवाहा इससे खुश नहीं दिखे.
आखिर कौन हैं उपेंद्र कुशवाह, जिनकी बिहार चुनाव में चर्चा हो रही है. उनका राजनीतिक इतिहास क्या रहा है और उनकी पार्टी का बिहार चुनाव में क्या रोल है.
उपेंद्र कुशवाहा राष्ट्रीय लोक मोर्चा (RLM) पार्टी के अध्यक्ष हैं. पहले उनकी पार्टी का नाम राष्ट्रीय लोक जनता दल (RLJD) था, लेकिन बाद में उसका नाम बदल दिया गया.
क्यों चर्चा में हैं दिल्ली दौरा
दिल्ली में गृह मंत्री अमित शाह के साथ उनकी मीटिंग पर चर्चा शुरू हो गई. एयरपोर्ट पर उन्होंने कहा, ‘एनडीए के फैसलों पर पुनर्विचार की जरूरत है. मुझे उम्मीद है सब ठीक हो जाएगा.’ नित्यानंद राय ने भी कहा, ‘सब ठीक है और जल्द ठीक हो जाएगा.’ लेकिन क्या कुशवाहा का यह कदम चिराग पासवान जैसे सहयोगियों पर भी असर डाला , जिन्होंने महुआ सीट पर कैंडिडेट का ऐलान रोक दिया गया.
6 फरवरी 1960 को वैशाली जिले के जावज गांव में पैदा हुए उपेंद्र कुशवाहा का नाम हमेशा सुर्खियों में रहता है. बिहार की राजनीति में उन्हें कुछ लोग ‘दलबदलू’ और कुछ कुशल राजनेता मानते हैं. 65 साल के कुशवाहा ने अपनी राजनीतिक यात्रा में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं. राजनीति में आने से पहले वे 1985 में वैशाली के समता कॉलेज में राजनीति विज्ञान के लेक्चरर थे.
युवा लोक दल से समता पार्टी तक
कुशवाहा की राजनीति की शुरुआत 1980 के दशक में हुई. वे 1985-1988 तक युवा लोक दल के राज्य महासचिव रहे. फिर 1988-1993 तक युवा जनता दल के राष्ट्रीय महासचिव बने. 1994-2002 तक वे समता पार्टी के राज्य महासचिव रहे. साल 2000 में वे जनदाहा से बिहार विधानसभा के सदस्य चुने गए. साल 2002 में समता पार्टी के उपनेता और 2004 में विपक्ष के नेता बने. लेकिन 2007 में नीतीश कुमार से मतभेद के चलते जेडीयू से निकाले दिए गए. फिर उन्होंने 2009 में राष्ट्रीय समता पार्टी बनाई, लेकिन कुछ महीनों बाद ही इसे जेडीयू में विलय कर दिया.
जेडीयू से अलग होकर बनाई आरएलएसपी
2010 में वे राज्यसभा सदस्य चुने गए. लेकिन 2013 में फिर नीतीश कुमार पर ऑटोक्रेट होने का आरोप लगाया, नाराज होकर जेडीयू से इस्तीफा दे दिया और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (आरएलएसपी) बनाई. 2014 में एनडीए में शामिल होकर कराकट से लोकसभा चुनाव जीते और मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री बनें. इस दौरान वे ग्रामीण विकास मंत्रालय में भी राज्य मंत्री रहे.
2018 में पीएम मोदी से बिहार को लेकर किये वादों पर नाराज हुए और एनडीए छोड़ दिया. उन्होंने कहा “मुझे आरएसएस सरकार का हिस्सा बनकर अच्छा नहीं लगा. नरेंद्र मोदी जी बिहार के लोगों की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाए. विशेष दर्जे के लिए कुछ नहीं किया गया. शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था की स्थिति खराब है.”
बसपा-एआईएमआईएम से गठबंधन
साल 2019 में यूपीए में शामिल हुए और कराकट व उजियारपुर से चुनाव लड़े, लेकिन दोनों जगह से हार गए. 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव के लिए ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेकुलर फ्रंट बनाया, जिसमें बसपा और एआईएमआईएम शामिल थे. 2021 में फिर आरएलएसपी को जेडीयू में विलय कर दिया और पार्टी के संसदीय बोर्ड अध्यक्ष बने. उन्हें विधान परिषद सदस्य बनाया गया.
कुढनी विधानसभा उपचुनाव में चुनाव के नतीजे बीजेपी के हक में आए. उपचुनाव में भाजपा के केदार प्रसाद गुप्ता ने जदयू के मनोज कुशवाह को 3649 वोटों के अंतर से हराया. दिसंबर 2022 में एक्स पर पोस्ट किया, “क्या हार में, क्या जीत में किंचित नहीं भयभीत मैं. कर्तव्य पथ पर जो मिला यह भी सही वो भी सही.” यह कुढ़नी उपचुनाव के बाद था, जहां उन्होंने सीखने की बात कही.
नई पार्टी आरएलएम और राज्यसभा वापसी
चुनाव नतीजों के 3 महीने बाद, फरवरी 2023 में फिर जेडीयू से इस्तीफा दे दिया. उपेंद्र कुशवाहा ने आरोप लगाया कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भविष्य के लिए अपना उत्तराधिकारी चुनने में पारदर्शी नहीं हैं. इसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय लोक जनता दल बनाई, जो बाद में राष्ट्रीय लोक मोर्चा (आरएलएम) बन गई. साल 2024 में एनडीए में शामिल होकर बिहार से राज्यसभा के लिए निर्विरोध चुने गए. लेकिन 2024 लोकसभा चुनाव में कराकट से हार गए.
दलबदलू या कुशल नेता?
बिहार की राजनीति में उपेंद्र कुशवाहा ऐसा नाम है, जो ‘दलबदलू’ की छवि से घिरे रहते हैं. 65 साल के कुशवाहा ने अपनी सियासी यात्रा में कई पार्टियां बदलीं, कई गठबंधन तोड़े-जोड़े, लेकिन कुशवाहा समुदाय में उनकी पकड़ आज भी मजबूत मानी जाती है. वे कुशवाहा (कोइरी) समुदाय के ‘सबसे मजबूत नेता’ माना जाते हैं, जो बिहार में 4-5% वोटरों का प्रतिनिधित्व करते है. हाल ही में 2024 लोकसभा चुनाव में कराकट से हार के बावजूद, एनडीए ने उन्हें राज्यसभा भेजकर उनके महत्व को स्वीकार किया. हालांकि, आलोचक कहते हैं कि वे नेताओं को नहीं संभाल पाते और उनकी महत्वाकांक्षा ही उनकी कमजोरी है.