Maharaja surajmal hindu jat king who given befit reply to ahmad shah abdali by letter nodvm

भरतपुर. ‘मैं आम-सा किसान हूं, जिसकी हिंदुस्तान में कोई खास हैसियत नहीं. आप जैसा महान शासक बड़े लाव-लश्कर के साथ मेरा सामना करना चाहता है…सिर्फ नियति ही जानती है कि युद्ध का अंजाम क्या होगा! यदि आप मुझसे जीत भी गए तो आपकी प्रतिष्ठा में शायद ही कोई इजाफा हो. लेकिन अगर ईश्वर की मेहरबानी से युद्ध का परिणाम विपरीत रहा तो आपकी शौहरत झटके में ख़त्म हो जाएगी. रहा सवाल मेरे क़त्ल और मेरे राज्य को बरबाद करने का, तो वीरों को इस बात का कोई डर नहीं होता है. मेरे लिए इससे बढ़कर कोई वरदान नहीं हो सकता कि मैं शहादत का पान करूं, जो कि देर-सवेर मुझे करना ही है…
…रही बात भरतपुर, डीग और कुम्हेर के मेरे किलों की, जिन्हें हुज़ूर के सरदारों ने मकड़ी के जाले-सा कमजोर बतलाया है, उनकी परख जंग के बाद ही हो पाएगी. भगवान ने चाहा तो वे सिकंदर के गढ़ जैसे अजेय ही रहेंगे’.
सूरजमल की चिट्ठी में विनय और अभिमान अनूठा मिश्रण
यह उस गौरवशाली चिट्ठी का मजमून है जो भरतपुर रियासत के राजा सूरजमल ने अफगान आक्रांता अहमद शाह अब्दाली की धमकी के जवाब में लिखी थी. सूरजमल ने जो जवाब दिया उसमें विनय और अभिमान दोनों का ही अनूठा मिश्रण था. इससे पहले अब्दाली ने सूरजमल को फिर से पत्र लिखकर कहा कि यदि अब भी राज कर देने में आनाकानी की गई तो भरतपुर, डीग और कुम्हेर के किलों को धूल में मिला दिया जाएगा. विभिन्न इतिहासकारों और स्त्रोतों के हवाले से भारत के पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने अपनी किताब ‘महाराजा सूरजमल’ में इस ख़त का वर्णन किया है.
जाट राजा अपने गौरवशाली इतिहास को नहीं लिखवा पाए
दरअसल, राजा सूरजमल का इतिहास में ज़िक्र राजस्थान के अन्य राजपूत राजाओं या मराठा सरदारों की तुलना में बेहद कम है? राजा सूरजमल अपने समय के सबसे प्रभावशाली, निडर और स्वाभिमानी राजा थे. नटवर सिंह लिखते हैं कि मुस्लिम इतिहासकार जाट राजाओं का गुणगान करने में सहज नहीं रहे. पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और केएम पाणिक्कर (राजनयिक) ने भी सूरजमल का ज़िक्र नहीं किया है. लेकिन इस सबमें सबसे ज्यादा कमी ख़ुद जाटों की भी रही जिनके पास गौरवमयी इतिहास तो था, लेकिन उसे लिखवाने के लिए इतिहासकार नहीं था. राजपूतों का इतिहास कर्नल टॉड ने लिखा, इस काम के लिए मराठों के पास ग्रांट डफ थे और सिखों के पास कनिघंम. लेकिन जाटों के पास ऐसा कोई नहीं था जो उनके इतिहास को लिख पाता.
गोकुला जाट ने शाही सेना को कई बार धूल चटाई
राजा सूरजमल के जीवट को जानने से पहले हम उनके समय से पूर्व एक किस्से से शुरुआत करते हैं. जिसका आग़ाज़ 1660 के दशक में हुआ. तब दिल्ली का तख़्त पर बादशाह औरंगजेब के पास था. उस दौर में राजकोष घाटे में था और इसकी भरपाई सल्तनत के किसानों से अलग-अलग करों की जबरदस्त उगाही कर पूरी की जा रही थी. तब मथुरा के नजदीकी क्षेत्र में गोकला नाम के एक जमींदार ने अपने समर्थकों के साथ मिलकर कर देने से इंकार कर दिया. यह मनाही औरंगजेब को खासी नागवार गुज़री और उन्होंने शाही सेनाओं को गोकला और उनके प्रभाव वाले गांवों पर चढ़ाई के लिए भेज दिया. लेकिन यह शाही सेना जाट किसानों पर जीत हासिल करने में नाकाम रही और ऐसा कई बार हुआ.
अकबर के मकबरे को लूटकर गोकला की मौत का बदला लिया
दिसंबर, 1669 में हुई एक भिड़ंत में मुगल सेना ने गोकला और उनके करीबी बंदी बना लिए. ये सभी बागी आगरा लाए गए जहां इस्लाम न स्वीकारने पर इन्हें बीच चौराहे पर बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया गया. इस घटनाक्रम ने जाट किसानों के आक्रोश को दबाने के बजाय और भड़का दिया. बृज क्षेत्र के जाटों ने गोकला के वशंज राजाराम सिनसिनवार को अपना सरदार चुना जिन्होंने मार्च-1688 में आगरा के पास सिकंदरा में मौजूद बादशाह अकबर के मकबरे को लूटकर गोकला की मौत का बदला लिया.
मुगलों की शान और शक्ति के प्रतीक पीतल के दरवाजे तोड़े
इतालवी इतिहासकार निकोलो मनुची ने इस बारे में लिखा है कि ‘जाटों ने मुगलों की शान और शक्ति के प्रतीक इस मकबरे पर लगे पीतल के दरवाजों को तोड़ दिया, मकबरे में जड़ित स्वर्ण और बहुमूल्य रत्न उखाड़ लिए गए. जो कुछ भी जाट अपने साथ नहीं ले जा पाए उसे तबाह कर दिया गया. नाराज़ जाटों ने बादशाह अकबर की कब्र खोदकर उनके अवशेषों को भी जला दिया.’ चूंकि अग्नि का संबंध हिंदू अंतिम संस्कार पद्धति से जुड़ा है इसलिए यह घटना गोकला के इस्लामीकरण पर तुली मुग़लिया सल्तनत को जाटों के प्रतीकात्मक जवाब के तौर पर देखी जाती है.
गोद लिए सूरजमल ने युवावस्था में ही जमाई धाक
इसके कुछ ही महीनों के बाद राजाराम सिनसिनवार भी मुगल सेना से हुई एक मुठभेड़ में मारे गए. राजाराम के वंशज बदन सिंह को जयपुर के महाराज सवाई जयसिंह ने बृजराज की उपाधि दी और इन्हीं बदन सिंह के गोद लिए बेटे सूरजमल ने 1732 में भरतपुर रियासत की स्थापना की. सूरजमल युवावस्था में ही अपने युद्धकौशल के चलते आस-पास के क्षेत्र में अपनी धाक जमा चुके थे. लेकिन उन्हें बड़ा गौरव अगस्त-1748 में बगरू (जयपुर-अजमेर के बीच) के युद्ध में मिला. दरअसल जयसिंह के निधन के बाद सत्ता को लेकर उनके बेटों ईश्वरी सिंह और माधोसिंह में विवाद हो गया. जयसिंह की इच्छा अपने ज्येष्ठ पुत्र ईश्वरी सिंह को राजा बनाने की थी.
जाट युवराज सूरजमल ने अपने दम पर युद्ध का रुख मोड़ा
इतिहासकार केआर कानूनगो अपनी किताब ‘जाटों का इतिहास’ में इस घटना का ज़िक्र कुछ यूं करते हैं कि ‘ईश्वरी सिंह के मदद मांगने पर बदनसिंह ने सूरजमल को 10,000 घुड़सवारों के साथ जयपुर भेजा. उधर माधो सिंह को उनकी ननिहाल मेवाड़ के अलावा मारवाड़, कोटा और बूंदी के शासकों के साथ मराठों का भी समर्थन हासिल था. यह सात योद्धाओं बनाम एक (सूरजमल) की जंग थी. लेकिन जाट युवराज ने अपने दम पर युद्ध का रुख ईश्वरी सिंह के पक्ष में अनपेक्षित ढंग से मोड़ दिया.’
सालाबत खां के दो प्रमुख सेनापतियों को मार गिराया
राजा सूरजमल को यश बढ़ोतरी का एक और अवसर मिला. जोधपुर के महाराज अभय सिंह के निधन के बाद पुत्र राम सिंह गद्दी पर बैठे. लेकिन मामा बख़्त सिंह ने सत्ता हथिया ली. रामसिंह सहायता हेतु ईश्वरी सिंह के पास गए और इस तरह उन्हें सूरजमल की भी मदद मिल गई. उधर बख़्त सिंह किसी तरह दिल्ली के मुग़ल शासक अहमद शाह का समर्थन हासिल करने में सफल रहे. शाह ने मुख्य सिपहसालार मीर बक़्शी सालाबत खां को जंग पर भेजा. लेकिन सूरजमल ने जनवरी-1750 में हुई भिड़ंत में सालाबत खां के दो प्रमुख साथी सेनापतियों को मार गिराया. इसके बाद सालाबत खां को सूरजमल की शरण में जाना पड़ा. सूरजमल ने अपनी शर्तों पर उसकी जान बख्शी.
उत्तर से दक्षिण तक बजने लगा था सूरजमल का डंका
इस संधि ने उत्तर भारत में भरतपुर रियासत का नाम कर दिया. क्योंकि तब तक शायद ही ऐसा कोई दूसरा हिंदू राजा हुआ था जो मुगलों से अपनी शर्तें मनवा सका हो. इसके बाद 1754 में मराठा और मुगल सेना के करीब 80,000 सैनिकों ने मिलकर सूरजमल को कुम्हेर (भरतपुर के पास एक कस्बा) के दुर्ग में घेर लिया. जनवरी महीने में शुरु हुई यह घेराबंदी मई तक चली. लेकिन कुम्हेर दुर्ग पर फतेह हासिल नहीं की जा सकी. मराठा सरदार मल्हारराव होल्कर के बेटे खंडेराव इसमें मारे गए और निराश होकर होल्कर को सूरजमल से संधि करनी पड़ी. माना जाता है कि मुग़लों के बाद मराठों से भी अपनी शर्तें मनवाने पर राजा सूरजमल का डंका दक्षिण भारत तक बजने लगा था.
अहमद शाह अब्दाली की सूरजमल को लूटने की इच्छा प्रबल
अठ्ठारहवीं सदी के मध्य में जब मुगल साम्राज्य कमजोर पड़ने लगा था, तब अफ़गानी आक्रमणकारी अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब को जीतकर जनवरी-1757 में दिल्ली पर हमला बोल दिया. इतिहासकार यदुनाथ सरकार ने अपनी किताब ‘फॉल्स ऑफ द मुग़ल्स’ (मुग़लों का पतन) में लिखा है कि अब्दाली के मन में हिंदुस्तान के सबसे धनी शासक सूरजमल को लूटने की इच्छा प्रबल हो गई थी. लिहाजा उसने सूरजमल को राजकर लेकर हाजिर होने का संदेश भिजवाया, जिसे उन्होंने अनसुना कर दिया.
सूरजमल के बेटे के हमले के अब्दाली का रोष और बढ़ा
इसी बीच सूरजमल के बेटे जवाहर सिंह ने फरीदाबाद और वल्लभगढ़ के पास लूटपाट कर रही एक अफ़ग़ान टुकड़ी पर हमला कर उसे हरा दिया. इसके चलते जाटों के प्रति अब्दाली का रोष और बढ़ गया. अफ़ग़ान सेनाओं ने अपमान का बदला भरतपुर के नजदीकी धार्मिक नगर मथुरा और उसके आस-पास के इलाकों में भारी लूट और क़त्लेआम मचाकर लिया. इसके बाद अब्दाली ने सूरजमल को फ़िर से पत्र लिखकर कहा कि यदि अब भी कर देने में आनाकानी की गई तो भरतपुर, डीग और कुम्हेर के किलों को धूल में मिला दिया जाएगा. इस पर सूरजमल ने जो जवाब उपरोक्त अनूठा पत्र लिखा.
सूरजमल और भाऊ के बीच वैचारिक मतभेद बना ही रहा
अहमद शाह अब्दाली का मुकाबला करने मराठों की तरफ़ से सदाशिव राव भाऊ आए. बुजुर्ग मराठा सरदारों के अनुनय करने पर सूरजमल ने भाऊ को समर्थन तो दे दिया. लेकिन उन दोनों के बीच वैचारिक मतभेद बना ही रहा. कानूनगो लिखते हैं कि ‘जब मराठा सेनाध्यक्ष ने अपने सहयोगियों से युद्ध के बारे में मशवरा मांगा तो सूरजमल ने महिलाओं, अनावश्यक सामान और युद्ध में कम उपयोग आने वाली बड़ी तोपों को ग्वालियर, झांसी या भरतपुर के किसी भी किले में छोड़ देने की सलाह दी. सूरजमल का मानना था कि महिलाओं को सुरक्षित स्थान पर छोड़ देने से मराठे युद्ध में उनके सम्मान की चिंता से मुक्त भी रहेंगे और लोगों की संख्या घटने से मुश्किल घड़ी में अनाज की कमी भी नहीं आएगी. वरिष्ठ मराठा सरदारों ने राजा सूरजमल से सहमति जताई लेकिन भाऊ ने इस सलाह को बुढ़ापे का नतीजा माना.’
सूरजमल ने सम्मान को प्रतीक को बचाने के लिए की 5 लाख की पेशकश
इस युद्ध के दौरान जब मराठा-जाट मित्र सेना ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया तो पेशवा ने नारोशंकर को दिल्ली का वज़ीर नियुक्त किया. जबकि सूरजमल दिल्ली के पूर्व वजीर ग़ाजीउद्दीन-इमाद-उल-मुल्क को इस पद पर बिठाने का वचन दे चुके थे. लेकिन भाऊ ने उनकी एक न सुनी. इसके बाद सदाशिव राव ने दिल्ली महल के दीवान-ए-आम की छत में जड़ी चांदी और हीरे-जवाहरात को लूटकर सैनिकों को वेतन देने का मन बनाया. लेकिन सूरजमल ने उस छत के सम्मान का प्रतीक होने का हवाला देकर उसे न तोड़ने के बदले अपनी तरफ़ से पांच लाख रुपए देने की पेशकश की जिसे भाऊ ने ठुकरा दिया. जबकि उस छत को तोड़ने से सिर्फ़ तीन लाख रुपए की ही सामाग्री प्राप्त हुई.
भाऊ की हठधर्मिता का मराठाओं ने जबरदस्त नुकसान उठाया
राजा सूरजमल का धैर्य इसके बाद जवाब दे गया और उन्होंने मराठों का साथ छोड़ देने का फैसला लिया. सदाशिव भाऊ की हठधर्मिता का मराठाओं को जबरदस्त नुकसान उठाना पड़ा. अहमद शाह अब्दाली को कई छोटी-बड़ी रियासतों से लगातार रसद मिल रही थी. लेकिन मराठे इसके लिए सिर्फ़ भरतपुर पर निर्भर थे, क्योंकि वर्षों तक लगातार लूट-खसोट झेल चुकी दिल्ली इतनी कंगाल हो चुकी थी कि वहां अनाज तक नहीं बचा था. इतिहास में ज़िक्र मिलता है कि 14 जनवरी 1761 को मराठे भूखे पेट ही मैदान-ए-जंग में उतरे थे.
मराठों को शरण दी और सत्कार पर 10 लाख खर्च किए
इस युद्ध के बाद जब लुटे-पिटे मराठा सैनिक दयनीय हालात में अपनी स्त्रियों के साथ लौट रहे थे तब जाट राजा ने उनके सत्कार के लिए भरतपुर किले के दरवाजे खोल दिए. उन्होंने ऐसा अहमद शाह की नाराज़गी मोल लेकर किया. यदि तब सूरजमल इन मराठों को आश्रय नहीं देते तो इनमें से शायद ही कोई वापिस पूना पहुंच पाता. अलग-अलग आंकड़ों के मुताबिक तब करीब तीस से चालीस हजार मराठाओं की भरतपुर में डेढ़ से दो सप्ताह तक ख़ातिर की गई. इस पर जाट राजा के तकरीबन दस लाख रुपए खर्च हुए. सूरजमल ने विदा के वक़्त प्रत्येक मराठा सैनिक को एक रुपया नकद, एक कपड़े का टुकड़ा और एक सेर अनाज देकर ग्वालियर भिजवाने का प्रबंध करवाया.
गोकला के चलते जाटों के लिए आगरा किला जीतना गर्व का क्षण
इससे नाराज अहमद शाह अब्दाली ने एक बार फ़िर भरतपुर पर हमले की योजना बनाई, लेकिन सूरजमल ने उसे बातचीत में उलझाए रखा और उसके दिल्ली रहते हुए ही आगरा के किले पर कब्जा कर लिया. तब उत्तर भारत में मौजूद फ्रेंच मिशनरी फादर एफ ज़ेविअर वेंडेल ने इस बारे में लिखा है कि ‘इस किले से सूरजमल को पचास लाख रुपए मिले. इनमें से सूरजमल ने एक लाख रुपए अहमद शाह के पास भिजवा दिए और पांच लाख रुपए बाद में देने का वायदा किया जो कि कभी पूरा नहीं हुआ. अहमद शाह भी हठी जाट राजा से यह राशि हासिल करके खुश था.’ जाटों के लिए आगरा किले पर फ़तेह करना महत्वपूर्ण क्षण था क्योंकि लगभग 90 वर्ष पहले गोकला को यहीं मौत के घाट उतारा गया था.
पानीपत के तीसरे युद्ध के बाद राजा सूरजमल वीरगति को प्राप्त हुए
जाटों ने तेजी से अपना साम्राज्य बढ़ाने की दिशा में काम पानीपत के तीसरे युद्ध के बाद शुरु किया, जो कि मथुरा, आगरा, धौलपुर, मैनपुरी, हाथरस, अलीगढ़, एटा, मेरठ, रोहतक, फर्रुखनगर, मेवात, रेवाड़ी और गुडगांव तक फैल गया. उस वक्त तत्कालीन मुग़ल बादशाह का संरक्षक उसका रुहेला वजीर नजीबुद्दौला था जिसे अहमदशाह अब्दाली का समर्थन हासिल था. लिहाजा नजीबुद्दौला और सूरजमल के बीच टकराव तय था. 25 दिसंबर 1763 को कुछ घुड़सवारों के साथ जा रहे सूरजमल को शत्रु सेना ने ग़ाजियाबाद के पास घेर लिया. लड़ते हुए सूरजमल वीरगति को प्राप्त हुए.
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