Nehru Vote Chori: क्या जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बनने के चुनाव में सरदार पटेल से हार गए थे, क्या कहते हैं तथ्य

Nehru Vote Chori: सोशल मीडिया या कुछ राजनीतिक भाषणों में अक्सर ये दावा किया जाता है कि जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बनने के लिए हुए चुनाव में सरदार वल्लभभाई पटेल से हार गए थे. लेकिन असल में इस बात का कोई विश्वसनीय ऐतिहासिक तथ्य नहीं मिलता. कांग्रेस के रिकॉर्ड और तमाम इतिहासकार भी इस तरह के किसी दावे को सही नहीं मानते. हकीकत में साल 1946 में प्रधानमंत्री पद के लिए कोई चुनाव हुआ ही नहीं था. ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस से कहा था कि वह अंतरिम सरकार के लिए अपना नेता चुने. वही आगे जाकर स्वतंत्र भारत का पहला प्रधानमंत्री बनता. यह निर्णय कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे के हिसाब से होना था. कांग्रेस अध्यक्ष आम तौर पर सरकार का प्रमुख बनने के लिए स्वाभाविक दावेदार था.
नेहरू कैसे बने भारत के पहले प्रधानमंत्री भारत के पहले आम चुनाव 25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 के बीच हुए थे. इन चुनावों के बाद भारत की पहली संवैधानिक रूप से चुनी गई सरकार सत्ता में आयी और जवाहरलाल नेहरू तब देश के प्रधानमंत्री बने. लेकिन यह चुनाव तो आजादी के लगभग साढ़े चार साल बाद हुआ था. भारत तो अगस्त 1947 में ही आजाद हो गया था. तो फिर 15 अगस्त 1947 से लेकर पहले आम चुनाव तक देश का शासन किसके हाथों में था? और जवाहरलाल नेहरू पहले प्रधानमंत्री कैसे बन गए, जबकि उस समय तक कोई चुनाव नहीं हुआ था? इसका जवाब यह है कि 15 अगस्त 1947 को भारत को आजादी मिलने पर, नेहरू को अंतरिम सरकार का प्रधानमंत्री बनाया गया था.
1946 में हुआ कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष का चुनावअसल में, 14 अगस्त 1947 की आधी रात (तकनीकी तौर पर 15 अगस्त 1947) को संविधान सभा द्वारा चुने गए भारत के पहले गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने ही जवाहरलाल नेहरू को भारत के पहले प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई थी. उस समय देश के उप-प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के रूप में वल्लभ भाई पटेल भी सक्रिय राजनीति में थे और वह प्रधानमंत्री पद के मजबूत दावेदार हो सकते थे. हालांकि, 1946 में कुछ ऐसी घटनाएं घटीं जिनके कारण सरदार पटेल देश के पहले प्रधानमंत्री नहीं बन पाए. इन घटनाओं का संबंध कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद के चुनाव से था. ऐसा माना जाता है कि 1946 की गर्मियों में जो घटनाक्रम हुआ था, उसके बाद किसी भी स्थिति में वल्लभ भाई पटेल देश के पहले प्रधानमंत्री नहीं बन पाते.
आजादी की तैयारी और कैबिनेट मिशन
साल 1946 में भारत में दो महत्वपूर्ण घटनाएं एक साथ चल रही थीं. एक तरफ, देश में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ अपने चरम पर था, जिससे ब्रिटिश सरकार पर दबाव बढ़ रहा था. दूसरी तरफ, द्वितीय विश्व युद्ध अपने आखिरी चरण में था. यह बात लगभग तय हो चुकी थी कि जैसे ही विश्व युद्ध समाप्त होगा ब्रिटिश सरकार को भारत को आजाद करना पड़ेगा. ऐसे में, भारतीय नेताओं ने आजाद भारत के शासन की तैयारी शुरू कर दी थी. इसी दौरान, 29 मार्च 1946 को ब्रिटेन की लेबर पार्टी के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने भारतीय नेताओं से बातचीत के लिए कैबिनेट मिशन प्लान भारत भेजा. इस मिशन में तीन ब्रिटिश सांसद शामिल थे: सर स्टेफर्ड क्रिप्स, ए.वी. अलेक्जेंडर और पैथिक लॉरेंस. इनका मुख्य उद्देश्य भारत में संविधान की रूपरेखा तैयार करने के लिए संविधान सभा के गठन और अंतरिम सरकार बनाने का प्रस्ताव देना था. ऐसे माहौल में जहां एक ओर मुस्लिम लीग लगातार पाकिस्तान बनाने की मांग पर अड़ी हुई थी, वहीं दूसरी ओर आजाद भारत की अंतरिम सरकार की रूपरेखा क्या होगी और उसका नेतृत्व कौन करेगा? इस पर भारतीय नेताओं के बीच गहन विचार-विमर्श और मंथन (माथापच्ची) शुरू हो गयी थी.
कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव, पीएम पद की दावेदारीअंतरिम सरकार बनाने के प्रस्ताव को देखते हुए महात्मा गांधी ने तुरंत नए कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव कराने के लिए कहा. उस समय यह बात स्पष्ट थी कि जो भी कांग्रेस अध्यक्ष बनेगा, वह आगे चलकर देश के पहले प्रधानमंत्री पद का सबसे मजबूत दावेदार होगा. उस समय, मौलाना अबुल कलाम आजाद कांग्रेस के अध्यक्ष थे और वह 1940 से इस पद पर बने हुए थे. अपनी किताब में उन्होंने लिखा है कि वह 1946 में भी दोबारा अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ना चाहते थे. हालांकि, महात्मा गांधी ने ही उन्हें ऐसा न करने के लिए कहा. आमतौर पर, कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी (AICC) के सभी सदस्यों के मतदान से होता था. लेकिन गांधी जी चाहते थे कि यह प्रक्रिया जल्द से जल्द पूरी हो जाए. इसलिए यह फैसला लिया गया कि केवल प्रदेश कांग्रेस कमेटी (PCC) के अध्यक्षों के मतों से ही अगला अध्यक्ष चुना जाएगा.
पटेल का समर्थन, नेहरू का नहींतत्कालीन दस्तावेज़ों से पता चलता है कि 15 पीसीसी (प्रदेश कांग्रेस कमेटियों) ने अपने अध्यक्ष पद के लिए नाम भेजे थे. 12 पीसीसी ने वल्लभ भाई पटेल के नाम का समर्थन किया था. दो पीसीसी ने जे.बी. कृपलानी के नाम का समर्थन किया था. सिर्फ एक पीसीसी ने अपना मत स्पष्ट नहीं किया था. सबसे खास बात यह है कि किसी भी पीसीसी ने जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने की सिफारिश नहीं की थी. लेकिन गांधी जी का मत अलग था. उन्होंने पहले जे.बी. कृपलानी से अपना नाम वापस लेकर जवाहरलाल नेहरू का समर्थन करने को कहा. इसके बाद, गांधी जी के कहने पर ही वल्लभ भाई पटेल ने भी नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष पद सौंपे जाने का समर्थन कर दिया. इस तरह, सरदार पटेल को सबसे अधिक समर्थन मिलने के बावजूद महात्मा गांधी के हस्तक्षेप से जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए और पहले प्रधानमंत्री बनने का उनका मार्ग प्रशस्त हुआ.
लेकिन दस्तावेजों में नहीं है इसका जिक्रलेकिन इतिहासकारों और उपलब्ध दस्तावेजों से यह दावा पुष्ट नहीं होता. इतिहासकारों और किताबों के अनुसार क्या हुआ? गांधी जी के पोते और पटेल पर सबसे प्रामाणिक जीवनी के लेखक राजमोहन गांधी लिखते हैं: पीसीसी के नामांकन खुले तौर पर सार्वजनिक नहीं हुए थे. यह कहना गलत है कि 12 ने पटेल के लिए नामांकन भेजे थे, इसका कोई आधिकारिक रिकॉर्ड नहीं है. यह सही है कि कई पीसीसी नेता पटेल के पक्ष में थे, लेकिन मतदान जैसी कोई प्रक्रिया नहीं थी. राजमोहन गांधी स्पष्ट लिखते हैं कि पटेल गांधी के फैसले के खिलाफ नहीं थे और गांधी द्वारा नेहरू को प्राथमिकता देने पर उन्होंने खुद हटने का निर्णय लिया. बी.आर. नंदा, जिन्हें पटेल के इतिहास का सबसे प्रमाणिक लेखक माना जाता है, लिखते हैं, पीसीसी के नामांकन अनौपचारिक थे. गांधी दोनों नेताओं को जानते थे, गांधी का मानना था कि नेहरू की अंतरराष्ट्रीय छवि और सोच नई दुनिया के लिए ज्यादा उपयुक्त है. यह चुनाव में हारना वाला मामला कभी था ही नहीं. Indian National Congress and the Struggle for Freedom किताब में स्पष्ट है: अध्यक्ष बनने के लिए नेहरू को गांधी का समर्थन मिला, इसलिए वे निर्विरोध चुने गए. कोई औपचारिक मतदान या पटेल की हार जैसा प्रसंग नहीं था. नेहरू के प्रमुख जीवनीकार सर्वपल्ली गोपाल लिखते हैं: पीसीसी नामांकन में कई नेताओं ने मौन समर्थन दिया था, मगर पटेल को व्यापक समर्थन होने का दस्तावेजी प्रमाण नहीं है. गांधी का निर्णायक रोल था और उन्होंने नेहरू को चुना.
कांग्रेस अध्यक्ष को ही बनना था प्रधानमंत्रीयह बात लगभग निश्चित थी कि 1946 में कांग्रेस के जो नए अध्यक्ष चुने जाते, वही आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री भी बनते. अगर वल्लभ भाई पटेल अध्यक्ष चुने जाते, तो शायद देश की राजनीतिक तस्वीर कुछ और होती. हालांकि, पटेल के पक्ष में वोट देने वाले एक पीसीसी अध्यक्ष द्वारका प्रसाद मिश्रा ने बाद में कहा था कि उनका वोट पटेल को ‘कांग्रेस अध्यक्ष’ बनाने के लिए था, न कि उन्हें ‘देश का प्रधानमंत्री’ बनाने के लिए. महात्मा गांधी के हस्तक्षेप से नेहरू अध्यक्ष बन चुके थे और फिर 1 अगस्त 1946 को वायसराय लॉर्ड वेवल ने कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू को अंतरिम सरकार बनाने का न्योता दिया. 2 सितंबर 1946 को नेहरू ने अपने 11 अन्य सदस्यों के साथ पद की शपथ ली. नेहरू को तब जो पद मिला उसे आधिकारिक तौर पर ‘प्रधानमंत्री’ तो नहीं कहा गया, लेकिन उन्हें ही राष्ट्राध्यक्ष (सरकार का प्रमुख) माना गया. इसके बाद, 4 जुलाई 1947 को ब्रिटिश संसद में भारतीय स्वतंत्रता विधेयक पेश किया गया और 18 जुलाई को इसे मंजूरी मिल गई.
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के अनुसार: भारतीय संविधान सभा ने 15 अगस्त 1947 को लॉर्ड माउंटबेटन को भारत का पहला गवर्नर जनरल (राष्ट्रपति जैसा पद) चुना. और इसी दिन, 15 अगस्त 1947 को, लॉर्ड माउंटबेटन ने जवाहरलाल नेहरू को आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई. इस तरह बिना आम चुनाव हुए ही कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने के कारण जवाहरलाल नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री बन गए.



