रेगिस्तान के धोरों में गुमनाम की जिंदगी बिता रहे देश के अंतिम सुरमंडल वादक! पढ़िए चांनण खान की कहानी

कुलदीप छंगाणी/ जैसलमेर: जिले के दूरस्थ ढाणी में 76 वर्षीय चांनण खान, जो देश के इकलौते सुरमंडल वादक हैं, वो गुमनाम की जिंदगी जी रहे हैं. अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर भी चांनण खान के सुरों में वही राग और जुनून कायम है. हर रोज वह घर के बाहर बनी चौकी पर बैठकर सुरमंडल का रियाज करते हैं और इस विरासत को अपने बेटे भेरसी खान को सौंपने का प्रयास कर रहे हैं. उनके लिए यह सिर्फ एक वाद्य यंत्र नहीं बल्कि लोकसंगीत की एक पूजा है, जो सांप्रदायिक एकता का संदेश भी देती है. चांनण खान चाहते हैं कि उन्हें सरकार या समाज से मदद मिले, ताकि वे इस परंपरा को और जीवित रख सकें.
लोक कलाकार प्रोत्साहन योजना से लाभ की उम्मीद अधूरीराजस्थान में लोक कला को प्रोत्साहित करने के लिए अगस्त 2023 में लोक कलाकार प्रोत्साहन योजना शुरू की गई थी, जिसमें कलाकारों को कलाकार कार्ड दिया जाता है और वे पंचायत चौपालों, विद्यालयों में प्रदर्शन कर सकते हैं. इसके लिए उन्हें प्रति दिन 500 रुपए का भुगतान किया जाता है. लेकिन जैसलमेर के करीब 35 किलोमीटर दूर स्थित कनोई ग्राम पंचायत में स्थित चांनण खान और उनके समुदाय को इस योजना का कोई लाभ नहीं मिल पाया है. चांनण खान के बेटे भेरसी खान ने बताया कि जब योजना का उद्घाटन हुआ था, तब उन्हें अपने सुरमंडल के साथ बुलाया गया था, लेकिन योजना का लाभ अब तक उन्हें नहीं मिला.
गुमनामी में जी रहे लोक कला के सच्चे साधकचांनण खान अब भी हर रोज अपने घर के बाहर बैठकर रियाज करते हैं और अपने बेटे को सुरमंडल बजाना सिखा रहे हैं, ताकि जैसलमेर की इस अद्वितीय कला को बचाया जा सके. उनका कहना है कि उनके पास एकमात्र सुरमंडल है, जिसके कारण प्रशिक्षण में कठिनाई होती है. वे बताते हैं कि उन्होंने अपने चाचा सादक खान से यह कला सीखी थी और अब अपने बेटे के अलावा मांगणियार समुदाय के और भी लोगों को सिखाना चाहते हैं. लेकिन संसाधनों के अभाव में यह मुमकिन नहीं हो पा रहा है.
सुरमंडल निर्माण में कमी का दावा, केवल एक कारीगर शेषकनोई के 54 वर्षीय किशनलाल सुथार, जो बढ़ई का काम करते हैं, का दावा है कि अब भारत में केवल वही सुरमंडल बना सकते हैं. उनका कहना है कि आजकल कोई कलाकार इसे बजाना नहीं जानता, इसलिए इसकी मांग भी घट गई है. सुरमंडल बनाने में शीशम और आम की लकड़ी का उपयोग होता है और इसे तैयार करने में 10-15 दिन का समय लगता है. श्रम अधिक होने और मजदूरी कम मिलने के कारण इसे सीखने में रुचि नहीं दिखाई जाती.
विदेशों में की मांगणियार लोक संगीत की प्रस्तुति, परन्तु भारत में उपेक्षितचांनण खान ने अपने समूह के साथ रूस, हॉलैंड, और जर्मनी जैसे देशों में मांगणियार लोक संगीत की प्रस्तुति दी है. वे कहते हैं, कभी-कभी कोई विदेशी पर्यटक आ जाता है, तब उसकी मांग पर प्रस्तुति दे देता हूं. बदले में 200-300 रुपए मिलते हैं, जिससे गुजर-बसर हो जाती है. उनके अनुसार, लोक संगीत उनके लिए एक पूजा के समान है, परंतु आज वे गुमनामी में जीवन व्यतीत कर रहे हैं.
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FIRST PUBLISHED : November 12, 2024, 14:14 IST