कविता-वर्तमान की महत्ता

बलवंत प्रजापति
क्यूं सोच रहा है आगे की, तेरा वर्तमान गुजर रहा है।
वादे जो ख़ुद से किए हैं तूने,उनसे अब क्यूं मुकर रहा है।
कभी मुश्किलें कभी बंदिशें कभी राह पे कांटे बिछे हैं।
जो थककर इनसे हार गया हो, वही तो सबसे पीछे है।
चोटिल गर कोई हो जाता तो, लडऩा उसने छोड़ा क्या
हुई व्यर्थ की अनबन से कहीं, मुंह अपनों से मोड़ा क्या
जलाकर जुगनू आशा रूपी अब धीरे -धीरे सुधर रहा है।
क्यूं सोच रहा है आगे की,तेरा वर्तमान गुजर रहा है।
मैंने अक्सर देखा उसको कुआं खोदकर पानी पीते
बदहाली में हार न मानी दुख भी उसके हंसकर बीते।
बोझिल गर वो हो गया तो, जीवन जीना छोड़ा क्या।
चाहे बीत गई समय की सीमा,सब्र का बांध तोड़ा
क्या जैसे गुजरे राम अरण्य से, वह वैसे-वैसे गुजर रहा है।
‘क्यूं सोच रहा है आगे की,तेरा वर्तमान गुजर रहा है।
मित्र मेरे वर्तमान में जी तू, संशय किस पर कर रहा
पूत तेरा गर सपूत है तो, संचय किसलिए कर रहा
कर्म पवित्र जब तेरे हैं. इसमें नसीब का रोड़ा क्या
फौलादी जब हौसले, हिमालय समक्ष निगोड़ा क्या
मौजूदा हालात से वो अथक प्रयास कर उभर रहा है।
क्यूं सोच रहा है आगे की, तेरा वर्तमान गुजर रहा है।