Rajasthan

AC से ज्यादा कूल-कूल है ये देसी कुटिया, 40 डिग्री में ठंड से कांप रहे हैं ग्रामीण

Last Updated:May 15, 2025, 14:56 IST

बढ़ती गर्मी से निजात पाने के लिए लोग तरह-तरह के उपाय कर रहे हैं. ऐसे में भरतपुर के ग्रामीण इलाकों में गर्मी से राहत पाने के लिए स्थानीय लोग अपने पारंपरिक खरपतवार और घास-फूस वाली झोपड़ियां बनाकर चिलचिलाती गर्मी…और पढ़ेंX
देसी
देसी झोपडी 

हाइलाइट्स

भरतपुर में देसी झोपड़ियां गर्मी से राहत देती हैं.खरपतवार और घास-फूस से बनी झोपड़ियां ठंडी हवा देती हैं.गांव वाले झोपड़ियों का उपयोग मवेशियों के लिए भी करते हैं.

 मनीष पुरी/भरतपुर- भरतपुर के ग्रामीण इलाकों में गर्मी के मौसम में एक अनोखी और पर्यावरण के अनुकूल परंपरा देखने को मिलती है. यहां के लोग अपने अनुभव और पारंपरिक ज्ञान का उपयोग करते हुए खरपतवार, घास-फूस और अन्य स्थानीय संसाधनों की मदद से झोपड़ियां बनाते हैं. ये झोपड़ियां उनके घरों के आसपास बनाई जाती हैं. चिलचिलाती धूप व लू के बीच ग्रामीणों को राहत देने का प्राकृतिक साधन बन जाती हैं.

इन झोपड़ियों को विशेष तकनीक से तैयार किया जाता है. ताकि भीतर बैठने या लेटने पर ठंडी हवा का अहसास हो घास-फूस की परतें न केवल छाया देती हैं. बल्कि हवा को भीतर से ठंडा कर देती हैं. जिससे यह एक प्राकृतिक एयर कूलर की तरह काम करती हैं. इसके नीचे बैठना या आराम करना बेहद सुकूनदायक होता है. खासकर जब बाहर तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर हो.

गांव वाले इन झोपड़ियों का उपयोग केवल खुद के लिए ही नहीं करते बल्कि अपने मवेशियों की सुरक्षा के लिए भी करते हैं. गर्मियों की लू से बचाने के लिए इन झोपड़ियों के नीचे पशुओं को बांधा जाता है. ताकि उन्हें भी ठंडी और छायादार जगह मिल सके यह दोहरा लाभ न केवल मानव जीवन के लिए उपयोगी है. बल्कि पशु कल्याण की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है. इस पूरी व्यवस्था की सबसे खास बात यह है कि यह पूरी तरह से देसी और प्राकृतिक है.

झोपड़ी निर्माण में किसी बाहरी या महंगे संसाधन की जरूरत नहीं होती केवल उपलब्ध खरपतवार, बांस, रस्सी और घास का इस्तेमाल कर इसे तैयार किया जाता है. जिससे लागत लगभग शून्य हो जाती है. साथ ही यह पर्यावरण को नुकसान भी नहीं पहुंचाती जिससे यह सतत जीवनशैली का एक आदर्श उदाहरण बन जाती है. हर साल गर्मियों में भरतपुर और आसपास के गांवों में सैकड़ों की संख्या में ऐसी झोपड़ियां बनाई जाती हैं. यह परंपरा ग्रामीणों की पारंपरिक बुद्धिमत्ता, प्रकृति के प्रति सम्मान और स्वावलंबी जीवनशैली का प्रतीक बन चुकी है.

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