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जोधपुर. दो दशक पहले बेंगलुरू में हुए दो घंटे की कार्यशाला ने राजस्थान (Rajasthan) के किसान का जीवन के लक्ष्य बदल दिए. पहले खेतों से ज्यादा से ज्यादा उपज लेने के लिए केमिकल, यूरिया और रासायनिक खेती का चलन था. जैविक खेती (Organic Farming) ज्यादा प्रचलन में नहीं आई थी. ऐसे में जोधपुर (Jodhpur) के भंसर कुटारी गांव के एक किसान रतन लाल डागा (Rata Lal Daga) ने जैविक खेती का निर्णय लिया. इस फैसले ने उनकी और उनके खेतों दोनों की दशा और दिशा बदल दी. उन्होंने केवल प्राकृतिक खेती के तरीकों का सहारा लेते हुए रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों को अपने 60 एकड़ के खेत से दूर कर दिया.
बेंगलुरु में जैविक खेती पर एक सत्र में भाग लिया
राजस्थान के भंसर कुटारी गांव के एक किसान रतन भी 60 एकड़ की पैतृक भूमि पर सफलतापूर्वक पेशे का अभ्यास करने वाले एक पारंपरिक किसान थे. दिलचस्प बात यह है कि दो दशक पहले भी, उन्हें भारत भर में यात्रा करके कार्यशालाओं में भाग लेने और अन्य किसानों से विभिन्न कृषि विधियों को सीखने की इच्छा रहती थी. साल 2000 में ऐसे ही एक अवसर पर, उन्होंने कृषि विश्वविद्यालय, बेंगलुरु में जैविक खेती पर एक सत्र में भाग लिया. उन्हें क्या पता था कि ये दो घंटे उसकी खेती की दिशा हमेशा के लिए बदल देंगे.
रासायनिक उर्वरकों के नकारात्मक प्रभावों की गहन व्याख्या
इस कार्यशाला में कुलपति ने खेती में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के दुष्प्रभावों और नकारात्मक प्रभावों के बारे में बताया. तब जैविक खेती एक कम ज्ञात अवधारणा थी. रतन लाल के मुताबिक कार्यशाला में रासायनिक उर्वरकों के नकारात्मक प्रभावों की इतनी गहन व्याख्या की गई कि उन्होंने इससे तौबा कर ली और प्राकृतिक खेती की ओर रुख किया.
रासायनिक उर्वरकों से त्वचा पर खुजली-जलन की शिकायत
उन्होंने कहा कि जोधपुर आकर उन्होंने देखा कि पिछले कुछ वर्षों में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग बढ़ने से मिट्टी की गुणवत्ता और इसकी उर्वरता बिगड़ती जा रही है. तब भारी मात्रा में रसायनों का उपयोग करना एक आम बात थी. लेकिन मिट्टी दिन-ब-दिन सख्त होती जा रही थी और इसे अधिक पानी की आवश्यकता थी. इसके अलावा, मजदूरों ने अक्सर रासायनिक उर्वरकों का उपयोग करते समय त्वचा पर खुजली और जलन की शिकायत की. जिससे इन उर्वरकों की विषाक्तता का पता चलता है. रतन का कहना है कि उनके मजदूर अक्सर अस्पताल आते थे. “कुलपति की बात समझ में आने लगी और घटती गुणवत्ता के बारे में मेरे संदेह की पुष्टि हुई. मैंने तुरंत जैविक खेती में बदलाव करने का फैसला किया.
60 एकड़ के खेत को जैविक खेती में बदल दिया
बीस के दशक में जब राजस्थान में जैविक खेती अपनी प्रारंभिक अवस्था में थी, तब उन्होंने अपने60 एकड़ के खेत को जैविक खेती में बदल दिया. उन्होंने केवल प्राकृतिक खेती के तरीकों का सहारा लेते हुए रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों से पूरी तरह के किनारा कर लिया. रासायनिक से जैविक खेती में अचानक आने के कारण पहले वर्ष में, उनको फसल का नुकसान हुआ. मैंने जैविक तरीकों पर बहुत शोध किया और जैविक खेती करने वाले किसानों से जुड़ा. इस बीच, शुरुआती दिनों में फसल की पैदावार में गिरावट आई और बढ़ने में थोड़ा समय लगा.
प्राकृतिक खेती के बाद फसलों की उपज बढ़ी
उन्होंने बताया कि प्राकृतिक खेती के बाद फसलों की उपज बढ़ी है. अब वह एक एकड़ में 4-5 क्विंटल जीरा, 14-15 क्विंटल बाजरा प्रति एकड़ और 5 क्विंटल धनिया एक एकड़ में पैदा करते हैं. डागा पपीते के विशेषज्ञ हैं और वह करीब 2 एकड़ में 15 साल से पपीते की खेती कर रहे हैं. उन्होंने दो साल पहले अनार भी लगाया था और प्रति पेड़ 10-15 किलो उपज मिल रही है. वह कई सालों से आंवला उगा रहे हैं और प्रति पेड़ 100-150 किलोग्राम उपज प्राप्त करते हैं. इसी तरह, उनकी बेल (सुनहरा सेब) की फसल औसतन 100-150 किलोग्राम उपज देती है. वे बताते हैं कि सब्जियां और कुछ फसलें, जिन्हें कम तापमान की आवश्यकता होती है, हरे जाल में उगाई जाती हैं.
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गोबर, गोमूत्र, बेसन, गुड़ से खुद बनाते हैं जीवामृत खाद
वह अपनी खाद को जीवामृत के समान बनाते हैं, लेकिन इसे ‘तुरत फुरत खाद’ कहते हैं क्योंकि इसे जल्दी बनाया जा सकता है. वे कहते हैं, ”मैं तुरत फुरत खाद बनाने के लिए गोबर, गोमूत्र, बेसन, गुड़, बचे हुए फलों और नीम के पत्तों और दाल के चिल्का (बाहरी परत) का इस्तेमाल करता हूं.’ वे बताते हैं, मैंने दही जमाकर इसे तांबे के बर्तन में 10 दिनों के लिए रख दिया. यह डीएपी का एक विकल्प है और यह फसलों को सूक्ष्म पोषक तत्व प्रदान करता है. मैं इस दही के 5 लीटर को 200 लीटर पानी में मिलाकर एक एकड़ फसल पर स्प्रे करता हूं. यह फसलों को एक सुंदर गहरा रंग देता है.
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