Darbar Transfer: क्या है 150 साल पुरानी जम्मू-कश्मीर की दरबार ट्रांसफर प्रथा, जो 4 साल बाद फिर हुई शुरू

Darbar Transfer: जम्मू और श्रीनगर के बीच दरबार ट्रांसफर की 150 साल पुरानी परंपरा एक बार फिर शुरू हो गई है. ये दोनों जम्मू और कश्मीर के दो राजधानी शहर हैं. हर छह महीने पर होने वाली इस प्रथा को चार साल पहले बंद कर दिया गया था. क्योंकि सरकारी कार्यालयों के स्थानांतरण पर सरकारी खजाने से लगभग 200 करोड़ रुपये खर्च होते थे. 31 अक्टूबर को कार्यालय समय के बाद श्रीनगर में सिविल सचिवालय और अन्य विभाग अपने काम बंद कर देंगे. सामान्य प्रशासन विभाग के आयुक्त सचिव एम. राजू द्वारा जारी आदेश के अनुसार ये 3 नवंबर को जम्मू में फिर से खुलेंगे.
मुख्यमंत्री सचिवालय सहित सिविल सचिवालय के सभी विभागों के अलावा राजस्व, वन, जम्मू-कश्मीर के मुख्य निर्वाचन अधिकारी, जम्मू-कश्मीर तकनीकी शिक्षा बोर्ड, परिवहन आयुक्त और कस्टोडियन जनरल जैसे 38 अन्य विभागों के प्रमुखों के कार्यालय पूरी तरह से श्रीनगर से जम्मू स्थानांतरित हो जाएंगे. रेशम उत्पादन, बागवानी, भूविज्ञान एवं खनन और अर्थशास्त्र एवं सांख्यिकी सहित 47 अन्य विभाग जम्मू में एक शिविर में स्थानांतरित होंगे.
दरबार ट्रांसफरदरबार ट्रांसफर की प्रक्रिया पहले हर छह महीने बाद निभाई जाती थी. श्रीनगर गर्मियों की राजधानी होती थी और जम्मू सर्दियों की. गर्मियों की शुरुआत से पहले जम्मू से श्रीनगर और सर्दियों में जम्मू से श्रीनगर में सिविल सचिवालय और केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन के अन्य कार्यालयों का ट्रांसफर किया जाता है. सरकारी कार्यालय अप्रैल के आखिरी शुक्रवार और शनिवार को जम्मू में बंद रहते थे और एक सप्ताह के अंतराल के बाद पहले सोमवार को श्रीनगर में फिर से खुलते थे. इसी तरह सर्दियों की शुरुआत के साथ कश्मीर में कार्यालय अक्टूबर के आखिरी शुक्रवार और शनिवार को बंद रहते थे और नवंबर में एक सप्ताह के अंतराल के बाद पहले सोमवार को जम्मू में फिर से खुलते थे. 2021 में उपराज्यपाल प्रशासन ने इस परंपरा को तोड़ दिया.
क्या है इसका इतिहासइसकी शुरुआत 1872 में महाराजा गुलाब सिंह द्वारा की गई थी, जो तत्कालीन जम्मू और कश्मीर राज्य के पहले डोगरा शासक थे. इस राज्य में वर्तमान केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) के क्षेत्र भी शामिल थे. इसका उद्देश्य राज्य में तत्कालीन सत्ता के केंद्र जम्मू से दूर के क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के करीब अपने प्रशासन को ले जाना था. जम्मू-कश्मीर और लद्दाख, जो भौगोलिक, भाषाई और सांस्कृतिक रूप से एक-दूसरे से बहुत अलग हैं, उन दिनों सड़क मार्ग से बहुत कम जुड़े हुए थे. आमतौर पर यह समझा जाता है कि दरबार मूव की शुरुआत प्रशासन को कश्मीर के लोगों के दरवाजे तक पहुंचाने के लिए की गई थी. गर्मियों के दौरान कश्मीर से शासन करने से लद्दाख को पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करने में भी मदद मिली जो जम्मू की तुलना में कश्मीर के ज्यादा करीब है. इससे पहले कि सर्दियों में बर्फबारी के कारण लद्दाख का संपर्क टूट जाए. इस व्यवस्था ने जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के लोगों के बीच बेहतर मेलजोल और जुड़ाव को भी बढ़ावा दिया.
इधर से उधर होने में करोड़ों का खर्च2019 तक प्रशासन कार्यालय के रिकॉर्ड और अधिकारियों को एक राजधानी से दूसरे राजधानी शहर ले जाने के लिए सैकड़ों ट्रकों और बसों का इस्तेमाल करता था. सुरक्षित परिवहन के लिए जम्मू-कश्मीर पुलिस और अर्धसैनिक बल पूरे जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर तैनात रहते थे. ट्रकों और बसों को किराये पर लेने पर होने वाले खर्च के अलावा लगभग 10,000 की संख्या वाले परिवहन कर्मचारियों को उनके आवास की व्यवस्था के अलावा यात्रा भत्ता और दैनिक भत्ता भी दिया जाता था. माना जाता है कि इस पर हर साल 200 करोड़ रुपये खर्च होते थे. अफसरों और कर्मचारियों को दोनों राजधानियों में घर दिए जाते थे. दरबार मूव परंपरा की आलोचना 2019 के बाद बढ़ गई, क्योंकि सरकार हर साल इस प्रक्रिया पर काफी रुपये खर्च करती थी, जबकि उसके पास अपने कर्मचारियों को वेतन देने के लिए भी पर्याप्त धन नहीं होता था.
हाईकोर्ट ने भी उठाए सवालजम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने 2020 में एक जनहित याचिका का निपटारा करते हुए कहा था कि दरबार मूव की परंपरा का कोई कानूनी औचित्य या संवैधानिक आधार नहीं है. तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश गीता मित्तल और न्यायमूर्ति राजेश ओसवाल की खंडपीठ ने कहा कि इस प्रथा के कारण समय, प्रयास और ऊर्जा की अनावश्यक गतिविधियों में भारी बर्बादी हुई है. उन्होंने कहा कि राज्य के बहुमूल्य संसाधनों (वित्तीय और भौतिक) का पूरी तरह से गैर-जरूरी उपयोग नहीं किया जा सकता, जब केंद्र शासित प्रदेश अपने लोगों को बुनियादी जरूरतें भी उपलब्ध कराने में असमर्थ है. अदालत ने सिफारिश की कि यदि इस प्रथा को युक्तिसंगत बनाया जाए तो बचाए गए संसाधनों और समय का उपयोग केंद्र शासित प्रदेश के कल्याण और विकास के लिए किया जा सकता है. बचाए गए धन का उपयोग खाद्य कमी, बेरोजगारी और स्वास्थ्य सेवा से संबंधित मुद्दों को हल करने के लिए भी किया जा सकता है.
आजादी के बाद भी जारी रही प्रथादेश आजाद होने के बाद इसे लेकर कई तरह के विचार सामने आए. जो लोग श्रीनगर को एकमात्र राजधानी मानते हैं उनका कहना है कि श्रीनगर, जम्मू और कश्मीर की जान है. कश्मीर उत्तर में है तो जम्मू दक्षिण में बसा है. राजनीतिक और भौगोलिक दोनों ही रूप से ये सही है. वहीं, कई लोग इसके खिलाफ भी थे. सर्दियों में श्रीनगर का तापमान इतना कम हो जाता है कि लोग ठंड से परेशान हो जाते हैं. इसके चलते वे अपना दफ्तर और घर दोनों ही चीजें जम्मू में शिफ्ट होना सही समझते हैं. हालांकि, जम्मू में भी ठंड पड़ती है, लेकिन इतनी नहीं जितनी श्रीनगर में होती है. दूसरी ओर दुकानदार और व्यापारी श्रीनगर को स्थायी राजधानी मानने से इनकार करते हैं. क्योंकि सर्दियों के समय में वे जम्मू कमाई का जरिया ढूंढ सकते हैं. 1987 में डॉ. फारूक अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे. उस समय उन्होंने श्रीनगर को एकमात्र राजधानी बनाने के लिए एक आदेश जारी किया था. इसका जम्मू स्थित दुकानदारों और राजनीतिक लोगों ने जमकर विरोध किया. उन्हें विरोध प्रदर्शन के बाद फैसला बदलना पड़ा.
अकेली राजधानी नहीं जो इतनी ठंडीअगर दरबार ट्रांसफर का मुख्य कारण सर्दियां हैं. क्योंकि श्रीनगर में इस दौरान काम करना काफी मुश्किल होता है. लेकिन, क्या श्रीनगर इकलौती राजधानी है जहां कड़ाके की ठंड पड़ती है? या तापमान इतना नीचे गिरता है? जरा मॉस्को के बारे में सोचिए! ये दुनिया की तीसरी सबसे ठंडी राजधानी है. ठंड में मॉस्को का तापमान -10 डिग्री सेल्सियस होता है. वहीं अगर श्रीनगर को देखा जाए तो ठंड के मौसम में तीन डिग्री तक ही तापमान गिरता है. जब रूस की एक राजधानी हो सकती है तो जम्मू और कश्मीर की क्यों नहीं? वहीं, जम्मू-कश्मीर ही अकेला ऐसा राज्य नहीं है, जिसकी दो राजधानियां हैं. महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की भी दो राजधानियां हैं. महाराष्ट्र की मुंबई (मुख्य/ग्रीष्मकालीन) और नागपुर (शीतकालीन) और हिमाचल प्रदेश की शिमला (ग्रीष्मकालीन) और धर्मशाला (शीतकालीन) हैं. उत्तराखंड (देहरादून और गैरसैंण) भी दो राजधानियों वाला राज्य है.



