इस गांव में खेत का खरपतवार भी है उपयोगी, इनसे बनाए जाते हैं आकर्षक सजावटी सामान

मनीष पुरी/भरतपुर. लकड़ी से बने पारंपरिक फर्नीचर का स्थान धीमे-धीमे लोहा एवं स्टील के फर्नीचर ने लिया प्लास्टिक फर्नीचर के रूप में कब हमारे घरों में घुस गया हमें पता भी नहीं चला. पर्यावरण संतुलन को बिगड़ने के लिए जिम्मेदार ऐसे कारनामों के बीच इको फ्रेंडली फर्नीचर जेठ की गर्मी में सावन के रिमझिम त्योहार जैसी शीतलता प्रदान करने वाली प्रतीत होती है.
हम बात कर रहे हैं भारत में परंपरागत रूप से बनाए जाने वाले मूढों की. ऐसे मूढ़े सदियों से गरीबों के फर्नीचर के तौर पर जाने जाते रहे हैं. इन मूढ़ों को बनाने के लिए किसी भी पेड़ को काटने की आवश्यकता नहीं है. जी हां कोई पेड़ नहीं कटेगा और आपके लिए बन जाएगा शानदार इको फ्रेंडली फर्नीचर. लेकिन इसे बनाना आसान नहीं है. इस फर्नीचर का निर्माण करना इसके लिए चाहिए धैर्य और कड़ा परिश्रम.
लगभग काम में आता है फसल का चौथा हिस्सा
दरअसल, खेतों की मेड़ों पर खड़े खरपतवार में मौजूद इसका कठोर भाग जिसे सरकंडा कहते हैं. यहां भरतपुर में इसे सेटा के नाम से भी जाना जाता है. इको फ्रेंडली फर्नीचर का मुख्य आधार यही सेटा है. खरपतवार के रूप में खड़े हुए इस फूस में से सेटा अलग करने की प्रक्रिया बहुत जटिल है.इस पूरी प्रक्रिया के दौरान साल का लगभग चौथा हिस्सा काम आ जाता है.
रबी की फसल के दौरान इस फूस को काटने का काम किया जाता काटने के बाद इसके पूरे (गुच्छा) बांधे जाते हैं. फिर इसको सुखाया जाता है. फिर इसको अलग-अलग खेतों की मेड से इकट्ठा किया जाता है. उसके बाद मूड़ा बनाने वाले कारीगर इन्हें अपने घर ले जाते हैं. फिर इसमें से घर पर मुढ़ा बनाने के लिए सेटों और मूंज को अलग किया जाता है. चार पाई बनानी वाली मूंज भी इसी में से बनाई जाती है. अलग करने के बाद मूढ़ा बनाए जाते है.
अलग-अलग है सबकी रेट
भरतपुर बयाना सड़क मार्ग पर स्थित बयाना तहसील का गांव बीरमपुर के पास कुलवरिया ऐसे फर्नीचर के लिए पिछले दो दशकों के दौरान एक नई बाजार के रूप में उभरकर सामने आया है.कुलबरिया के रहने वाले खेमचन्द लगभग 30 साल से ये काम कर रहे हैं. वह बताते हैं की हमारे बाप दादा भी ये ही काम करते थे उन्होने बताया की ज्यादातर मूड़ा बनाने का काम यही होता है. खेमचंद ने बताया कि सारे मुड़ो की रेट भी अलग-अलग है.
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FIRST PUBLISHED : October 16, 2023, 19:47 IST