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ओजस्वी रचनाओं के कवि ‘गोपाल सिंह नेपाली’ आज भी करते हैं साहित्य प्रेमियों के दिलों पर राज

“राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताजों पर आसीन कलम… मेरा धन है स्वाधीन कलम…” ये पंक्तियां है कवि सम्मेलनों के मंचों पर छाए रहने वाले कवि गोपाल सिंह नेपाली की, जिन्हें उनकी ओजस्वी रचनाओं के लिए सबसे अधिक याद किया जाता है. उनकी कविताओं ने देश ही नहीं, दुनियाभर में धूम मचाई. ऐसा कहा जाता है, कि सुप्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद नेपाली जी कविता ‘पीपल के पत्ते गोल-गोल, कुछ कहते रहते डोल-डोल’ की पंक्तियां अक्सर गुनगुनाया करते थे. यहां तक कि उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने जब नेपाली जी की कविता पहली बार सुनी थी, तो कहा था ‘बरखुर्दार क्या पेट से कविता सीखकर पैदा हुए हो?’

गोपाल सिंह नेपाली ने करीब चार सौ धार्मिक गीत लिखे और उन्होंने ‘नेपाली पिक्चर्स’ और ‘हिमालय फिल्म्स’ की स्थापना भी की. 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान नेपाली जी ने बॉर्डर पर जाकर सैनिकों के लिए कविता पाठ किया था, उनकी वो कविता काफी लोकप्रिय रही, कविता की पंक्तियां इस प्रकार हैं-

“शंकर की पुरी, चीन ने सेना को उतारा
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा

हो जाय पराधीन नहीं गंग की धारा
गंगा के किनारों ने शिवालय को पुकारा.
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा.

अम्बर के तले हिन्द की दीवार
हिमालय सदियों से रहा शांति की मीनार
हिमालय अब मांग रहा हिन्द से तलवार
हिमालय भारत की तरफ चीन ने है पाँव पसारा
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा.

कह दो कि हिमालय तो क्या पत्थर भी न देंगे
लद्दाख की तो बात क्या बंजर भी न देंगे
आसाम हमारा है रे! मर कर भी न देंगे
है चीन का लद्दाख तो तिब्बत है हमारा
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा.

भारत से तुम्हें प्यार है तो सेना को हटा लो
भूटान की सरहद पर बुरी दृष्टि न डालो
है लूटना सिक्किम को तो पेकिंग को संभालो
आज़ाद है रहना तो करो घर में गुज़ारा
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा.”

कविता के क्षेत्र में नेपाली ने अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रकृति प्रेम, मानवीय भावनाओं और देश प्रेम का गहरा और खूबसूरत चित्रण किया. वह सारी उम्र अपनी कविताओं और गीतों से देशवासियों को जगाते और झकझोरते रहे. उनका व्यक्तिगत जीवन जितना मुश्किल रहा, उनकी रचनाएं उतनी ही गहरी, आत्मीय, सच के करीब, सहज और सरल. गोपाल सिंह नेपाली के पुत्र कुल सिंह नेपाली की मानें, तो ऑस्कर विजेता फिल्म ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ का गाना ‘दो घनश्याम…’ नेपाली जी की ही रचना है, जिसके लिए उनके पुत्र द्वारा कोर्ट में याचिका भी दायर की गई थी.

नेपाली जी की कविता ‘हिंदी है भारत की बोली’ आज भी भारतीयों के भाषा-प्रेम को उत्साहित करती है और तन-मन में ओज भर देती है. कविता इस कदर दिल को छूती है, कि हिंदी भाषा से हर हिंदुस्तानी को प्रेम हो जाए. 1955 में गई यह कविता सालों बाद भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी प्रासंगिक तब थी जब लिखी गई थी. प्रस्तुत है उनकी ये ख़ास कविता, जिसे समय-समय पर कई मंचों पर गाया गया, कई लेखों में शिर्षक के तौर पर लिखा गया और हिंदी दिवस पर इस कविता को हमेशा याद किया जाता है-

हिंदी है भारत की बोली : गोपाल सिंह नेपाली
दो वर्तमान का सत्य सरल,
सुंदर भविष्य के सपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

यह दुखड़ों का जंजाल नहीं,
लाखों मुखड़ों की भाषा है
थी अमर शहीदों की आशा,
अब जिंदों की अभिलाषा है
मेवा है इसकी सेवा में,
नयनों को कभी न झंपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

क्यों काट रहे पर पंछी के,
पहुंची न अभी यह गांवों तक
क्यों रखते हो सीमित इसको
तुम सदियों से प्रस्तावों तक
औरों की भिक्षा से पहले,
तुम इसे सहारे अपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

श्रृंगार न होगा भाषण से
सत्कार न होगा शासन से
यह सरस्वती है जनता की
पूजो, उतरो सिंहासन से
इसे शांति में खिलने दो
संघर्ष-काल में तपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

जो युग-युग में रह गए अड़े
मत उन्हीं अक्षरों को काटो
यह जंगली झाड़ न, भाषा है,
मत हाथ पांव इसके छांटो
अपनी झोली से कुछ न लुटे
औरों का इसमें खपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो आपने आप पनपने दो

इसमें मस्ती पंजाबी की,
गुजराती की है कथा मधुर
रसधार देववाणी की है,
मंजुल बंगला की व्‍यथा मधुर
साहित्य फलेगा फूलेगा
पहले पीड़ा से कंपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो आपने आप पनपने दो

नादान नहीं थे हरिश्चंद्र,
मतिराम नहीं थे बुद्धिहीन
जो कलम चला कर हिंदी में
रचना करते थे नित नवीन
इस भाषा में हर ‘मीरा’ को
मोहन की माला जपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

प्रतिभा हो तो कुछ सृष्टि करो
सदियों की बनी बिगाड़ो मत
कवि सूर बिहारी तुलसी का
यह बिरुवा नरम उखाड़ो मत
भंडार भरो, जनमन की
हर हलचल पुस्तक में छपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

मृदु भावों से हो हृदय भरा
तो गीत कलम से फूटेगा
जिसका घर सूना-सूना हो
वह अक्षर पर ही टूटेगा
अधिकार न छीनो मानस का
वाणी के लिए कलपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

बढ़ने दो इसे सदा आगे
हिंदी जनमत की गंगा है
यह माध्यम उस स्वाधीन देश का
जिसकी ध्वजा तिरंगा है
हों कान पवित्र इसी सुर में
इसमें ही हृदय तड़पने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

Tags: Hindi Literature, Hindi poetry, Hindi Writer, Patriotism, Poem

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