कविता-जिंदगी तुझसे प्यार
प्रज्ञा गुप्ता
जिंदगी जाना है जब से,
इसकी सुलझ गई हैं सारी पहेलियां।
खुशनुमा माना है जब से इसको ,
खत्म हो गई है गम की सारी गहराइयां।।
सिर्फ मुस्कुरा देता है ,
अब ये दिल, लड़ता नहीं है दिमाग से।
रोता नहीं है,
खुशियां बनाता है अपने त्याग से।।
जिंदगी जाना है जब से इसको,
रोशन हो गई है सारी महफिलें।
खुशनुमा माना है जब से इसको,
ख्वाब हो गए हैं सारे रंगीन।।
हो गया है अब,
जिंदगी तुझसे प्यार।
खत्म हो गई है शिकायतें सारी,
जब से बनी है तू मेरी यार।।
पढि़ए एक और कविता
अन्जना मनोज गर्ग
मेरी रसोई और उसका कुनबा
मेरी रसोई हंसती और मुस्कराती है
देख मुझो यह कैसे खिल सी जाती है
क ख ग से अलग यह कुछ सिखाती है
पेट की भूख को आंखों से पढ़वाती है।
बाई के साथ से यह सहम सी जाती है
पाकर मेरा साथ फिर ये चमक जाती है।
आओ तुम्हें मैं रसोई के कुनबे से मिलवाऊं
एक-एक करके इनका सबसे परिचय करवाऊं
ज्यों ही मैनें हल्दी को आवाज लगाई
रूप सुन्दरी वह खिली इठलाती आई
तुनकमिजाज मिर्ची इक कोनें में बैठी है
लाल हुई यह बेवजह ही यूं ऐंठी है।
धनिया मौन शान्त वृद्ध सा है
रहता शीतल न कोई नाज नखरा है
नमक को तो अपने ऊपर नाज है
स्वाद का वाकई बादशाह बेताज है।
सौंफ अपने में अलबेली सी
अजवायन की पक्की सहेली सी
लो इधर जीरा भी तो इतराए
मेरे बिना साग में छौंकन लग न पाए।
राई की तो अदा ही निराली है
चटके बिना ये लगे न भाली है
मेथी अपने ही गर्व में चूर है
औषधि रूप में जो मशहूर है
गरम मसाले भी महक रहे हैं
अपनी ही गर्मी से चहक रहे हैं।
मेरे बर्तनों पर भी प्रेम रस है छाया
कड़ाही है बीमार तो कुकर है आगे आया
बजा के सीटी देता ये सन्देश है
चाहे तनाव भरा हो कितना हंसना ही श्रेष्ठ है।
चम्मच,चमचा सब एक ही कुल से है
पलटा,पौनी दादा दादी से लगते हैं
धीर गम्भीर यह मेरा काला सा तवा है
पेट की आग बुझाा कर उजास ही भरता है
कच्चे आटे की लोई गले जब इसके मिलती है
स्नेह ताप में सिक कर फलती और फूलती है।
मेरी रसोई का यह कुनबा बहुत पुराना है
जीवन का सारा मर्म इसी में,ये सभी ने माना है।
जीवन की हकीकत को यह बतलाती है
मेरी रसोई मुझो बहुत कुछ सिखलाती है।