कविता-प्रेम धारा

प्रेम शर्मा रजवास
कमल कब गए हैं,
भ्रमर को बुलाने।
पखेरु मंडराते हैं,
नील गगन में।
चांद ने कब चिठ्ठी भेजी,
है जो चकोर को।
ताकता है ऐसे जैसे,
रूप रस पीना हो।
घन के गरजते ही,
मोर क्यों नाचते हैं।
मानसरोवर कब गया था,
हंसों के पास में।
दीपक की ज्योति देख,
पतंग क्यों अकुलाते हैं।
सागर ने कब संदेश भेजा,
नदी को बुलाने को।
सारे बंधन तोड़ कर,
चट्टानों को चीर कर,
पूरे वेग से अपने,
प्रियतम से मिलने को,
आतुर हो सागर में समा जाने को,
वो ये भी जानती है कि
वह बहुत मीठी है।
और सागर में मिल जाने से,
वो भी खारी हो जाएगी।
पर..
ये तो प्रेम की पराकाष्ठा है,
कि अपने प्रेमी से कैसे मिलना है,
ये प्रेमी जन खुद तय कर लेते हैं।
कहते हैं..
प्रीत करें तो मछली जैसी,
जल से अलग होते ही
प्राण त्याग देती है।
पंछी जैसे नहीं।
तरुवर के सुखाते ही,
अपना बसेरा निकाल लें।
ये तो हो गई प्रकृति की बात,
पर प्रेम से तो अछूते
कोई भी नहीं है ,
पशु पक्षी जड़ चेतन में प्रेम
देखा जा सकता है।
प्रेम एक मन का भाव है।
उसे महसूस किया जा सकता है।
मीरां तो मूर्ति पर ही रीझ गई थी,
और मूर्ति तो हम जैसे इन्सान ने,
ही बनाई थी,
पर उसने अपने,
अंतर्मन में गिरधर की,
स्थापना कर ली थी,
ये प्रेम की पराकाष्ठा है।
जुडि़ए पत्रिका के ‘परिवार’ फेसबुक ग्रुप से। यहां न केवल आपकी समस्याओं का समाधान होगा, बल्कि यहां फैमिली से जुड़ी कई गतिविधियांं भी देखने-सुनने को मिलेंगी। यहां अपनी रचनाएं (कहानी, कविता, लघुकथा, बोधकथा, प्रेरक प्रसंग, व्यंग्य, ब्लॉग आदि भी) शेयर कर सकेंगे। इनमें चयनित पठनीय सामग्री को अखबार में प्रकाशित किया जाएगा। तो अभी जॉइन करें ‘परिवार’ का फेसबुक ग्रुप। join और Create Post में जाकर अपनी रचनाएं और सुझाव भेजें। patrika.com