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किसान का बेटा नहीं होता तो पंडित नेहरू बाबरी से हटवा चुके होते रामलला की मूर्ति, कौन था वो?

Ayodhya Ram Mandir: अयोध्या में भगवान राम का भव्य मंदिर लगभग तैयार हो गया है. 22 जनवरी को रामलला के प्राण प्रतिष्ठा की घड़ी भी पास आ गयी है. पूरी दुनिया उन राम भक्तों को जानती है जिन्होने कुर्बानी दी, परमहंस और अशोक सिंघल जैसे नेताओं को जानती है, जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी मंदिर निर्माण का सपना पूरा करने में निकाल दी. साथ ही पीएम मोदी के 10 सालों के कार्यकाल को भी देखा है.

पर क्या आपको पता है कि 74 साल पहले 1950 में जवाहरलाल नेहरू सरकार द्वारा पूरा जोर लगाने के बावजूद रामलला की मूर्ति क्यों नहीं हटी? आखिर किस जज ने फैसला दिया कि रामलला के सुरक्षित दर्शन जारी रहें और मूर्तियां नहीं हटाई जाए? इसके बारे में हम विस्तार से बताएंगे, लेकिन उससे पहले आपको बताते हैं कि रामलला के मंदिर के लिए आखिर अदालत को क्यों बीच में आना पड़ा…

जब प्रकट हुए रामलला
बात 1949 की है. भारत को आजाद हुए महज दो साल ही हुए थे. तब के पीएम जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल भारत का सपना साकार करने में लगे थे, लेकिन उत्तर प्रदेश में कुछ ऐसा चल रहा था जिसने आजाद भारत में टकराव की नींव भी रख दी. इस विवाद का फैसला भी आखिरकार उच्चतम न्यायलय को ही करना पड़ा. बात है 22 दिसंबर 1949 रात की. स्थानीय कथाओं के मुताबिक रात के तीन बजे एक तेज रोशनी हुई और विवादित ढांचे के भीतर भगवान राम नजर आए.

सैकड़ों साल पुरानी लड़ाई का ये पहला टर्निंग प्वाइंट था. वो लड़ाई जिसे राम जन्मभूमि आंदोलन के नाम से जाना गया. जिस जगह भगवान राम का जन्म स्थान माना जाता था, उसके ऊपर मुगल बादशाह बाबर के सेनापति मीर बाकी ने बाबरी मस्जिद बनवाई थी.

पंडित नेहरू हटवाना चाहते थे मूर्ति
अब बात मूर्ति के अकस्मात निकल आने के बाद के घटनाक्रम की. 23 दिसंबर 1949 को अयोध्या पुलिस स्टेशन के स्टेशन इंचार्ज पंडित रामदेव दूबे ने एफआईआर कर तीन लोगों और 50-60 अज्ञात लोगों को नामजद किया. खबर फैलते ही 26 दिसंबर 1949 को पंडित नेहरू ने यूपी के मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत को एक टेलीग्राम किया और कहा कि मूर्ति का एकाएक प्रकट होना बहुत ही खतरनाक उदाहरण पेश कर रहा है. फिर फरवरी 1950 को एक खत लिख कर गोविंद वल्लभ पंत को अयोध्या जाने को कहा.

लेकिन 22 दिसंबर 1949 को हुई घटना आज भी बहस का विषय बन जाती है कि आखिर रामलला बाबरी मस्जिद के भीतर पहुंचे कैसे?

किसने दिया था मूर्ति न हटाने का फैसला
तब के फैजाबाद के जिला मजिस्ट्रेट (DM) केके नायर और सिटी मजिस्ट्रेट गुरुदत्त सिंह सरकार के आदेश के बावजूद भगवान राम की मूर्ति हटाने को तैयार नहीं थे. उन्हें डर था कि अगर कोई फैसला लिया तो स्थानीय अदालत उस पर रोक लगा सकती है. उस वक्त ठाकुर वीर सिंह सिंह फैजाबाद के सिविल जज थे. इस बात का जिक्र कई किताबों में है कि जज वीर सिंह से जब सहयोग मांगा गया तो उन्होंने कहा कि वह निश्चित ही सहयोग करना चाहते हैं क्योंकि ये भगवान राम के लिए किया जा रहा है काम है, लेकिन पूरा काम कानून के दायरे में ही होना चाहिए.

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सिविल जज वीर सिंह (फाइल फोटो)

कौन थे सिविल जज वीर सिंह?
जज वीर सिंह इंग्लैंड से बार एट लॉ की उपाधि लेने के बाद जज बने थे. मुकदमा उनके सामने आया तो सिविल जज वीर सिंह ने 16 जनवरी 1950 को अपने फैसले में सुरक्षित दर्शन और विवादित स्थल से मूर्ति नहीं हटाने का आदेश दिया था. जब राम भक्त गोपाल सिंह शारद और पुजारी रामचंद्र दास परमहंस के केस में सिविल जज ने कमीशन भेज कर रिपोर्ट तलब की और कानून के दायरे में मूर्ति हटाने पर रोक लगा कर पूजा करने की अनुमति दी तो इस फैसले को हाईकोर्ट में भी चुनौती दी गयी, लेकिन सिविल जज वीर सिंह के आदेश को कानून सम्मत माना गया था.

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उनके पोते के मुताबिक उनके सम्मान का आलम ये था कि राम मंदिर आंदोलन के दौरान हरिद्वार जाते वक्त रामचंद्र दास परमहंस रिटायर्ट जज वीर सिंह के मुजफ्फरनगर स्थित आवास पर पहुंच गए थे. जज वीर सिंह उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के दुधली गांव में जन्मे थे. आज भी उनके गांव के लोग और पुराने राम भक्त कहते हैं कि एक किसान परिवार के बेटे ने इंसाफ की कलम से ऐसे अमिट हस्ताक्षर किए जिसका पटाक्षेप अब भव्य राम मंदिर के निर्माण से हो रहा है.

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