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दास्तान-गो : नारायण, नारायण, कल्याण हो… कहते-कहते ‘ख़ुद का कल्याण’ कर गए जीवन

दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक्ती तौर पर मौजूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज… 

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तो हुआ यूं ज़नाब कि एक मर्तबा देवताओं के ऋषि नारद को ‘धरती के नारद’ से खुन्नस फंस गई. कहने लगे, ‘ख़ुद जाकर देखता हूं. धरती पर भी मेरी जगह कौन लेता है. अभी जाकर उस बहुरूपिए का कच्चा-चिट्‌ठा मृत्युलोक के निवासियों के सामने खोलता हूं.’ सो, मंसूबा बांधकर वे नीचे आ गए. धरती पर. सबसे पहले अमरावती के पास उतरे. देवराज इंद्र की राजधानी अमरावती पुरी के ही नाम वाला शहर. नज़दीक ही तिरुमला पर्वत, जहां नारद के आराध्य साक्षात् लक्ष्मीपति वेंकटेश बालाजी विराजते हैं. देवर्षि ने सोचा, ‘ये जगह ठीक है. भगवान वेंकटेश के सान्निध्य में रहने वाले धर्मबुद्धि लोग असली-नकली का भेद तुरंत पहचान लेंगे.’ लिहाज़ा, वे अपने मूल रूप में अमरावती में विचरण करने लगे. लेकिन यह क्या? उन्हें प्रणाम, नमस्कार करना तो दूर किसी ने उनकी तरफ़ ग़ौर तक नहीं किया. नारद थोड़ा चौंके लेकिन ख़ुद पर उनका भरोसा हिला नहीं.

नारद ने अब उत्तर का रुख़ किया. बद्रीनाथ धाम जा पहुंचे. नर-नारायण की तपोस्थली. लगा, ‘वहां का वातावरण बहुत सात्विक है. निवासी भी सात्विक बुद्धि वाले. वे तो मुझे देखते ही जान लेंगे.’ पर नहीं. वहां भी किसी ने उन्हें न तो जाना और न पहचाना. अब नारद थोड़े परेशान. हालांकि उनकी उम्मीद अब भी बाकी थी. भारत-वर्ष में भगवान विष्णु के दो धाम अभी शेष थे. द्वारका और जगन्नाथ पुरी. बारी-बारी से पहले द्वारका और फिर जगन्नाथ धाम पहुंचे. लेकिन वहां भी वही हाल. बल्कि द्वारका में तो उन्होंने लोगों की कानाफूसी तक सुन ली, ‘लगता है कोई बहुरूपिया है. नारद जी का बाना पहनकर लोगों का मनोरंजन करने निकला है.’ हैरान, परेशान नारद भगवान विष्णु के तीनों धामों में अपने आराध्य के दर्शन और ‘पुरी’ के भी अनुभव लेने के बाद भगवान जगन्नाथ की शरण में जा पहुंचे अब. क्लांत (थका हुआ) शरीर और शिथिल मन लेकर.

Jeevan Death Anniversary

भगवान तो सर्वज्ञाता. फिर भी नारद से पूछ बैठे, ‘क्या हुआ देवर्षि? आपकी मनोदशा ठीक नहीं लग रही. क्या है, जो मेरे अनन्य भक्त को इस तरह परेशान कर रहा है? और हां. आप मृत्युलोक में क्या कर रहे हैं? ऐसी मनोदशा में तो आप अक़्सर मेरे वैकुंठ लोक में पधारते हैं!’ प्रभु जगन्नाथ की बातों ने देवर्षि की उद्विग्नता को और बढ़ा दिया. कहने लगे, ‘प्रभु, आप तो अंतर्यामी हैं. फिर भी मुझसे प्रश्न कर रहे हैं. क्या आप नहीं जानते कि मृत्युलोक में, इस भारत-वर्ष में किसी बहुरूपिए ने मेरा रूप धरा हुआ है. उसने यहां के निवासियों पर ऐसा जादू कर रखा है कि लोग अब मुझे ही नहीं पहचान रहे. आपकी द्वारका-पुरी के निवासियों ने तो मुझे ही बहुरूपिया कह दिया. कहते हैं- मैं नारद का बाना ओढ़कर उनका मनोरंजन करने निकला हूं. ये कैसी विपदा है प्रभु. मेरे सामने मेरी ही पहचान का संकट खड़ा हो गया है. मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा.’

प्रभु मुस्कुराए. बोले, ‘ये विपदा नहीं, माया है वत्स, माया! भारत-वर्ष की मायानगरी से रची गई है. कश्मीर की श्रीनगर घाटी से आए एक कलाकार ने रची है ये माया. भारत-वर्ष ही नहीं, हिन्दी-चित्रपट के माध्यम से मनोरंजन करने वाले इस मृत्युलोक के तमाम लोग उसे ‘जीवन’ के नाम से जानते हैं. वैसे, उसका नाम ओंकारनाथ धर है. लेकिन लोग तो उसका वह नाम भी भूल चुके हैं. लोग उसे अब उसके नए नाम से ही जानते हैं. और पहचान उसने आपकी ओढ़ ली है देवर्षि. हिन्दी-चित्रपट और विभिन्न नाट्य-मंचों पर 61 से अधिक बार वह करतल-ध्वनि के साथ नारायण, नारायण करते हुए आपकी भूमिका में दिख चुका है. मृत्युलोक के निवासी अब जितनी भी बार आपका अर्थात् देवर्षि नारद का चिंतन करते हैं, उनके मानस-पटल पर उसी कलाकार ही छवि दृश्यमान होती है. यही कारण है देवर्षि, कि भारत-वर्ष के लोग अब आपको भी नहीं पहचान पा रहे हैं.’

Jeevan Death Anniversary

‘मैं मान नहीं सकता प्रभु…’ अब मतिभ्रम के शिकार हो चुके देवर्षि बोले, ‘…पूरी सृष्टि के रचयिता आप. सृष्टि में जितनी भी मायाएं हैं, उन सबका स्रोत आप. सभी मायाओं के पति आप. और मेरे शरणागतवत्सल भी आप. ऐसे में यह कैसे हो सकता है प्रभु कि किसी मनुष्य-मात्र की माया आपकी माया पर भी भारी पड़ जाए? मायापति स्वयं उसकी माया का गुणगान करने लग जाएं? और आपकी शरणागति में सुरक्षित मुझ जैसे भक्त के सामने पहचान का संकट उत्पन्न हो जाए? कैसे संभव है प्रभु, कैसे?’ उद्विग्न हो चले थे देवर्षि अब. सो, भगवान जगन्नाथ ने उन्हें दिलासा देते हुए कहा, ‘आप तो जानते ही हैं देवर्षि. तुच्छ से तुच्छ जीव तक भूल से भी अगर ह्रदय की गहराई से मेरे नाम का स्मरण कर ले तो वह मेरी कृपा का अधिकारी हो जाता है. उसका कल्याण हो जाता है. फिर उस चित्रपट-कलाकार ने तो न जाने कितनी बार अपनी जिह्वा से नारायण, नारायण का जप किया है. कल्याण हो, कल्याण हो… कहकर सबके कल्याण की कामना की है. आप ही बताइए, मैं उसे उसके कल्याण से वंचित कैसे रखता भला? उसका कल्याण हुआ है वत्स. आपको तो प्रसन्न होना चाहिए देवर्षि, कि एक मनुष्य आपकी पहचान, आपका परिचय धारण कर मेरा नाम-जप करते हुए कल्याण का अधिकारी हुआ है. आप उसके कल्याण का माध्यम बने हैं. और अब चिंतन कीजिए देवर्षि, कि आपकी पहचान क्या ऐसी है, जिसे कोई मनुष्य-मात्र अपनी माया से छीन ले?’

इतना कहकर भगवान चुप हो रहे. देवर्षि नारद के मन का क्लेश जाता रहा. उनके ‘मन का माना हुआ संकट’ भगवान के सान्निध्य और उनके ज्ञान के आलोक से टल चुका था. और वे प्रफुल्लित मन से नारायण, नारायण करते हुए देवलोक लौट रहे थे अब. लौटते समय देवर्षि के मन में उस जीवन (ओंकारनाथ धर) के प्रति अब करुणा का भाव था, जिसका जीवन-कल्याण आज 10 जून की तारीख़ में ही साल 1987 को हुआ था. नारायण, नारायण, कल्याण हो… कहते-कहते.

अगली कड़ी में पढ़िए
* दास्तान-गो : ‘देवर्षि नारद’ से हो चुके जीवन की कहानी, उन्हीं से सुनें तो बेहतर!

Tags: Death anniversary special, Hindi news, News18 Hindi Originals

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