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पतंगबाजी | poetry | Patrika News

Hindi poem

जयपुर

Published: January 08, 2022 07:18:04 pm

फूलेश सांचीहर ‘फराग’ हैरत क्या जो जी को मेरे भा गई पतंग रंग रंग की बाज़ार में आ गई पतंग
छोटे और बड़े सबों को लुभा गई पतंग आमद आमद है प्यारे रुत-ए-बसंत की
उड़ उड़ के जमी से ये खबर उड़ा गई पतंग

पतंगबाजी

पतंगबाजी

चौरस बदन पे उभरी हुई दो बांस की खपचें
हैरत क्या जो जी को मेरे भा गई पतंग कागजी था पैरहन उस शोख बदन का
तेज हवा चली तो फडफ़ड़ा गई पतंग लुट कर किसी शोख बच्चे के हाथों
लुटने का लुत्फ-ओ-मजा पा गई पतंग

हाए कि बंधी थी काट-दार मांझो की डोर से
पर-ए-ताइर-ए-खस्ता की धज्जियां उड़ा गई पतंग पतंग-बाजी के खेल में हजारों खेल गए जान पर
महाज-ए-अना पे अपनी गर्दनें कटा गई पतंग दो-बाला हो गया लुत्फ पतंग लूटने वालों का
लुटने पे आई तो चर्खी-डोर भी लुटा गई पतंग

कुछ देर तो उड़ी अना के आसमां पे
कट के फिर जमी पे आ गई पतंग चर्खी खोल दी तो ‘फराग’ आसमां छूने लगी
शाहीन-ए-कागजी का लकब पा गई पतंग
—– दिलीप शर्मा आओ सब मिलकर संक्रांति पर्व मनाएं

तिल और गुड़ का जब संगम होता
संक्रांति का यही तो त्योहार होता
शरद ऋतु का जब आगमन होता
संक्रांति पर्व का पुण्य आगमन होता
दान पुण्य के कार्यो की तरफ जाता है
संक्रांति का पर्व ही तो सिखलाता है
पवित्र नदियों में जो डुबकी लगवाता
संक्रांति का ये पर्व आस्था को बढ़ाता
रंग बिरंगी पतंगें उड़ती जब आसमान पर
संक्रांति पर्व की सूचना देती ऊेचे गगन पर
सूर्यनारायण जब करते मकर में प्रवेश
संक्रांति पर्व का ही तो है ये सब आवेश
आओ सब मिलकर संक्रांति पर्व को मनाएं
हर्षोल्लास का वातावरण मिलकर बनाएं

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