पाकिस्तानी खुफिया समाज के पाखंड पर एक टिप्पणी: जिंदगी तमाशा | – News in Hindi
पिछले दिनों यूट्यूब पर रिलीज हुई पाकिस्तानी फिल्म ‘जिंदगी तमाशा’ को लेकर सोशल मीडिया पर काफी टीका-टिप्पणी दिखी. असल में, सरमद खूसट निर्देशित इस फिल्म को लेकर मीडिया में चर्चा रही है. चार साल पहले प्रतिष्ठित बुसान फिल्म समारोह में इसका प्रीमियर हुआ था. साथ ही इस फिल्म को पाकिस्तान की तरफ से 93वें ऑस्कर पुरस्कार के लिए भेजा गया था. बावजूद इसके सेंसरशिप और विरोध के कारण सिनेमाघरों में इसे रिलीज नहीं होने दिया गया. हार-थक कर निर्देशक ने यूट्यूब पर रिलीज करना मुनासिब समझा. सरहदों के पार जाकर यह फिल्म काफी सराही जा रही है.
इस फिल्म के केंद्र में एक अधेड़ पुरुष राहत ख्वाजा (आरिफ हसन) हैं. वे एक ‘रियल एस्टेट एजेंट’ हैं, जिनकी गाने में अभिरुचि है. उन्हें सभा-समारोहों में ‘नात’ गाने के लिए बुलाया जाता है. घर में वे बिस्तर पर बीमारी से जूझ रही अपनी बीवी फरखंदा (सामिया मुमताज) की सेवा-सुश्रुषा करते हैं. उनकी एक शादी-शुदा बेटी, सदाफ (इमान सुलेमान), है जो बराबर घर आती-जाती रहती है. यह फिल्म लाहौर में अवस्थित है.
जिस तरह से राहत अपनी बीवी की देखभाल करते हैं, वह पुरुष प्रधान समाज में काम-काज को लेकर लैंगिक विभाजन है उस पर सवाल खड़े करती है. मध्यवर्गीय परिवार के ताने-बाने से बुनी यह कहानी पाकिस्तानी समाज में व्याप्त पाखंड पर चोट करती है.
राहत एक धार्मिक पुरुष हैं. एक दोस्त के बेटे की शादी के अवसर पर वे एक पुराने गाने-‘जिंदगी तमाशा बनी’ (पाकिस्तान की चर्चित फिल्म ‘नौकर वोटी दा (1974)’ से लिया गया है) पर डांस करते हैं. समारोह में बैठा एक शख्स इसे मोबाइल पर रिकॉर्ड कर लेता है, जो सोशल मीडिया पर वायरल हो जाता है. घर-परिवार के सदस्यों के आपसी रिश्ते, सामाजिक संबंध इससे किस तरह प्रभावित होते हैं, इसे निर्देशक ने बेहद सधे ढंग से फिल्म में दिखाया है. साथ ही राहत के बहाने पाकिस्तानी खुफिया समाज की झलकियां यहां दिखाई देती है. हर कोई एक-दूसरे पर नजर रखे हुआ है. जहां निजता, स्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं है.
सवाल यह भी है सोशल मीडिया के इस दौर में निजता/गोपनीयता (प्राइवेसी) क्या कोई मायने रखता है? फिल्म के एक दृश्य में सदाफ जो देर रात सोते वक्त मोबाइल स्क्रॉल कर रही होती है, उससे राहत कहते हैं-‘सो जाओ कल ऑफिस भी जाना है.’ सिनेमा एक स्तर पर जहां मानवीय संबंधों के इर्द-गिर्द है, वहीं दूसरे स्तर पर तकनीक का मानवीय जिंदगी में दखल या मध्यस्थता को लेकर भी है. फिल्म की शुरुआत ही राहत की एक रिकॉर्डिंग से होती है. साथ ही रिकॉर्ड किए मैसेज के माध्यम से ही उनसे माफी मांगने को कहा जाता है, जहाँ उनकी झड़प एक मौलाना से होती है. वे रिकॉर्डिंग से इंकार कर देते हैं. सिनेमा में मौलाना के चरित्र को जिस रूप में दिखाया गया है उसे लेकर ही पाकिस्तान में विवाद हुआ था.
प्रसंगवश, विभाजन के बाद लाहौर पाकिस्तान के सिनेमा का केंद्र बन कर उभरा, लेकिन उसका विकास बॉलीवुड की तरह नहीं हुआ. खास कर पिछले सदी में पाकिस्तान के शासक जनरल जिया उल हक के समय में सिनेमा, गीत-संगीत को लेकर काफी पाबंदी हुई, जिससे सिनेमा उद्योग लुढक गया. बॉलीवुड के दीवाने वहां मौजूद हैं.
21वीं सदी में कुछ युवा निर्देशकों की वजह से पाकिस्तानी सिनेमा में एक सुगबुगाहट सी हुई है. पिछले दशक में रिलीज हुई पाकिस्तानी फिल्म ‘खुदा के लिए’, ‘रामचंद पाकिस्तानी’, ‘बोल’ आदि के प्रशंसक हिंदुस्तान में भी काफी है. साथ ही, पाकिस्तानी फिल्म ‘जॉयलैंड’ को पिछले साल, 95वें ऑस्कर पुरस्कार में, ‘बेस्ट इंटरनेशनल फीचर फिल्म’ के लिए शॉर्टलिस्ट किया गया था. प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह में इसे ‘उन सर्टेन रिगार्ड’ में प्रदर्शित किया गया जहां ज्यूरी पुरस्कार मिला था. विभिन्न फिल्म समारोहों में ‘जॉयलैंड’ ने सुर्खियाँ बटोरी लेकिन आम भारतीय दर्शकों के लिए यह फिल्म उपलब्ध नहीं थी. पिछले दिनों अमेजन प्राइम (ओटीटी) पर इसे रिलीज किया गया.
यह दोनों फिल्में पाकिस्तान में भले रची-बसी है, लेकिन कहानी भारतीय दर्शकों के लिए जानी-पहचानी है. ‘जिंदगी तमाशा’ की तरह ही ‘जॉयलेंड’ के केंद्र में भी लाहौर में रहने वाला एक परिवार है. बेहद संवेदनशीलता से निर्देशक ने राहत के मनोभावों, पीड़ा और कमजोरियों को फिल्म में उकेरा है. आरिफ हसन राहत के किरदार में बेहद विश्वसनीय हैं. धार्मिक उसूलों वाले राहत के दकियानूसी विचार- मसलन, समलैंगिक रिश्तों को लेकर, सिनेमा में मुखर है. लाहौर के परिवेश, बाजार, गली-मोहल्ले को सूक्ष्मता और कुशलता से निर्देशक ने सिनेमा में समाहित किया है. सैम सादिक, सरमद खूसट जैसे युवा निर्देशकों से पाकिस्तानी सिनेमा को काफी उम्मीद है.
सिनेमा या किसी कला के लिए जिस स्वतंत्रता या सामाजिक खुलेपन की हालांकि दरकार है, वह पाकिस्तान में सिरे से गायब है. सिनेमा एक निर्देशक की आत्माभिव्यक्ति है. मुख्य किरदार राहत की तरह ही सरमद को भी प्रताड़ित किया गया. दुखद रूप से उनकी जिंदगी कला का अनुसरण करती दिखती है!
अरविंद दासपत्रकार, लेखक
लेखक-पत्रकार. ‘मीडिया का मानचित्र’, ‘बेखुदी में खोया शहर: एक पत्रकार के नोट्स’ और ‘हिंदी में समाचार’ किताब प्रकाशित. एफटीआईआई से फिल्म एप्रिसिएशन का कोर्स. जेएनयू से पीएचडी और जर्मनी से पोस्ट-डॉक्टरल शोध.
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