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Book Review : खत्म होते शहरों की तकलीफ बयान करती जितेंद्र भाटिया की किताब ‘कांक्रीट के जंगल में गुम होते शहर

कुछ इंसानों की जिंदगी में कोई शहर अक्सर फांस की तरह धंसा रहता है. उसकी स्मृतियों, तन्हाइयों और दुखों को समय-समय पर कुरेदती रहती हैं और अपनी गालियों, बाज़ारों, खंडहरों के अंधेरे-उजालों में खींच लेता है. इंसान इस चुभती हुई फांस से मुक्त नहीं हो पाता. होना भी नहीं चाहता, क्योंकि इन शहरों ने उसे गढ़ा, पाला-पोसा और बनाया होता है. उसके सुखों और दुखों के जन्म का कारण होता है, लेकिन वही शहर जब उसे समय के हथौड़ों के नीचे मरता, दम तोड़ता दिखता है, तो उसे वैसी ही बेचैनी और तकलीफ़ होती है, जैसे अपने किसी प्रिय को मरते हुए देखते या खुद को ही धीरे-धीरे सूखते देखने में होती है. उसकी यह तकलीफ तब कई गुना और बढ़ जाती है, जब यह दुर्भाग्य किसी लेखक या कलाकार के जीवन में घटित होता है.

‘ब्लैक आइबिस’ प्रकाशन द्वारा प्रकाशित जितेंद्र भाटिया की किताब ‘कांक्रीट के जंगल में गुम होते शहर’ वास्तव में हमारे चारों ओर बढ़ते जा रहे कांक्रीट के जंगलों में धीरे-धीरे गुम होते पुराने शहरों से जुड़ी उनकी जिंदगी और उनके खत्म होते देखने की कहानी बयान करती है.

राष्ट्र या समाज की स्मृति इतिहास है और मनुष्य की स्मृति उसके संबंध, उसका परिवेश, अतीत हो चुका जीवन है, जो यकीनी तौर पर किसी शहर की आबो-हवा, दाना-पानी, गली-कूचों, लैलो-निहार से जुड़ा होता है. जितेंद्र भाटिया की नसों में कलकत्ता आज भी बहता है. जिस शिद्दत और लगाव से जितेंद्र ने अपनी इस किताब में कलकत्ता के बारे में लिखा है, वह इस सच्चाई का बयान खुद है. भावनात्मक स्तर पर जितेंद्र इस किताब में खुद को बेपर्दा करते हैं और शहरों के साथ उनकी भावनाएं देखते बनती हैं.

जितेंद्र भाटिया की इस पुस्तक में पांच शहरों- चेन्नई, लाहौर, मुंबई, कोलकाता और जयपुर का ज़िक्र है, जिनमें लेखक अपनी 76 साल लंबी जिंदगी के मुख़्तलिफ़ हिस्सों में रहे हैं और अब इन शहरों को धीरे-धीरे कंक्रीट के जंगलों में गुम होते देख रहे हैं. वह चाहते हैं, कि इस किताब के बहाने इन शहरों से वाबस्ता अपनी ज़िंदगी को, इनकी स्मृतियों को खंगालने के बहाने बचा लिया जाए. साथ ही इन शहरों के इतिहास और उसकी पुरानी पहचान को भी, जो आने वाले समय में यकीनन या तो बदली शक्ल वाली हो जाएगी या फिर नेस्तनाबूद हो जाएगी. इसीलिए इन शहरों पर बात करते हुए उन्होंने इसमें बिताए अपने जिंदगी के बरस, अनुभव और यादों को तो लिखा ही है, साथ ही इन शहरों का इतिहास भी टटोला है.

जितेंद्र ने मेहनत और प्रामाणिकता के साथ इस किताब को लिखा है. उन्होंने किताब में शहर की तमाम कला, संस्कृति, और साहित्यिक गतिविधियों का ज़िक्र किया है जो उनसे पहले और फिर उनके सामने होती रहीं. इन पांच शहरों में उन्होंने कलकत्ता पर विस्तार से लिखा है और उसके हर पहलू को समेटा है. उनके बचपन और जवानी का ठीक-ठाक हिस्सा कलकत्ता में बीता है. ऐसे लोग कम ही होंगे जिन्होंने कलकत्ता में ज़िंदगी का कोई लम्हा जिया हो और उसे भूल गया हो. कलकत्ता के जादू से शायद ही दिल बचा है. कानपुर में भी उसका काला जादू मेलों, ठेलों पर हमेशा लिखा दिखता था. बेशक यह काला जादू वहां की स्त्रियों के सांवलेपन या नमक और काले केशों से ताल्लुक रखता है, पर जादू तो जादू ही है.

किताब का शीर्षक ‘कांक्रीट के जंगल में गुम होते शहर’ ही किताब को पढ़ने के लिए अपनी ओर खींचता है. तेज़ी से बदलते दौर में कई ऐसे शहर हैं, जो धीरे-धीरे अपनी पहचान, अपना इतिहास और अपना पुराना वजूद खो रहे हैं. कंक्रीट के जंगल इन्हीं शहरों की पुरानी इमारतों, खंडहरों, गलियों, बाज़ारों, थियेटर, सिनेमाहाल को तेजी से निगल कर, प्लास्टिक के खिलौनों के घरों की तरह बेजान, करंग और बेहिस बना रहे हैं. दिल में घर बनाकर रहने वाले पुराने शहरों का आसमान तेज़ी से छोटा होता जा रहा है. इनकी नदियां सूख चुकी हैं और चांद तारे तो वहां अब दिखते ही नहीं.

यह भी भयावह सच है, कि शहरों के इतिहास, स्मारक, चौराहे, बाज़ार, अतीत, इमारतों के बदलने की दुर्भाग्यपूर्ण कोशिशें तय इरादों के साथ संगठित रूप से हो रहीं है. एअरपोर्ट, मैट्रो, मॉल, पार्किंग, नर्सिंग होम, बिल्डर्स के गिरोह एकजुट होकर विकास के नाम पर शहरों की आत्माओं को खुरच रहे हैं. शहरों के पहचान बदलने के साथ-साथ उनके नामों को भी बदला जा रहा है, जिसके साथ इतिहास बदल रहा है… लेकिन क्या यह नाम दशकों तक किसी की ज़बान पर चढ़ेंगे? इसका जवाब इस किताब में मिलेगा.

एक ख़ास उद्देश्य और नया इतिहास गढ़ने के लिए शहरों का बदलना तकलीफदेह तो है, ही साथ ही आने वाली पीढ़ी को उस सच से दूर रखना भी है, जिसे पढ़ कर, समझ कर, महसूस कर और जी कर पिछली कई पीढ़ियां जवान हुई हैं. शहरों का वजूद मिटा कर किसको क्या मिलेगा, नहीं पता… लेकिन जो शहर अपना नाम खो देगा, वह फिर दोबारा नहीं लौटेगा… ठीक उसी तरह, जिस तरह मरा हुआ आदमी कभी वापिस नहीं लौटता और कुछ समय बाद उसकी स्मृति भी दम तोड़ देती है. एक दिन आता है, जब वह ज़िक्र से भी बाहर हो जाता है.

मीर ने दिल्ली को बरबाद होते और उजड़ते हुए कई बार देखा था. हर बरबादी मीर के दिल पर चोट करती थी. नतीजे में मीर ने ‘दिल्ली की बरबादी’ को ‘दिल की बरबादी’ कह कर दम निकाल लेने वाले कई शेर कहे. सिवाय इस तरह कहने के, मीर दिल्ली की बरबादी के बारे में किससे कहते और क्यों कहते? यह भी एक ज़रूरी सवाल है.

जितेंद्र भाटिया की किताब ‘कांक्रीट के जंगल में गुम होते शहर’ की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है, कि इन पांच शहरों की जिंदगी, इतिहास, पहचान, गली-कूचे, तहज़ीब और भाषा, शहर रहे न रहे, पर इस सब किताब के बहाने हमेशा हमेशा के लिए रिकॉर्ड में दर्ज हो जाएगा. किताब खत्म हो रहे शहरों की एक रचनात्मक और भौगोलिक पहचान के साथ-साथ इतिहास को सुरक्षित करने की भी एक बेहतरीन कोशिश है. किताब इन शहरों का शोक-गीत तो बिल्कुल नहीं, लेकिन इनकी उखड़ती सांसों की हंफन ज़रूर है जो कांक्रीट के बढ़ते जंगलों की डरावनी और बढ़ती पदचापों से कांप जाती है. किताब को पढ़ें और महसूस करें, कि इसमें कहीं आपके मरते हुए शहर की आवाज़ तो नहीं है.

पुस्तक : ‘कांक्रीट के जंगल में गुम होते शहर’
लेखक : जितेंद्र भाटिया
प्रकाशक : ब्लैक आइबिस
मूल्य : 450 रुपए

Tags: Book, Hindi Literature, Hindi Writer, Kolkata, Literature

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