रहें न रहें हम, महका करेंगे… | – News in Hindi

लगता है आज कोई डायना से मिलने आया है. अब बताइए, दो सौ साल बाद भी कोई है जो उसे याद कर रहा है. उसकी कब्र पर गुलाब का फूल चढ़ा के जा रहा है. एक बार तो दिल किया पूछूं, “ऐ परदेसी, बता आखिर ये कौन है और तेरी क्या लगती है”? पर हिम्मत न हुई. लगा, किसी के निजी क्षणों में, मैं क्यों अतिक्रमण करूं. हो सकता है वो झिड़क ही दे. बताना ही न चाहे. और फिर बनी बनाई इज्ज़त पर पानी फिर जाए. उसका तो एक दिन का है, मेरा तो हर रोज़ का यहां आना जाना है. सब पहचानते हैं यहां मुझे. आम दिनों में इन कब्रों पर सिर्फ़ आसपास के पेड़ों से गिरे फूल पत्तियां ही दिखती हैं. किसी ने आकर करीने से रखा हो, कम होता है. इसलिए ये लाल गुलाब का फूल उस दो सौ साल पुरानी कब्र पर रखा, बहुत ही सुंदर लग रहा था.
ग्रेवयार्ड फ्लावर
वैसे यहां इस कब्रिस्तान की चार दिवारी से सटे दर्जनों चंपा के पेड़ हैं. सबसे बड़ा वाला पेड़ तो गेट/एंट्री पर ही लगा है. इससे याद आया कि चंपा को कुछ देशों में “ग्रेवयार्ड फ्लावर” भी कहते हैं. शायद इसलिए कि इसकी खुशबू बहुत सुंदर होती है. और शायद इसलिए भी क्योंकि चंपा को “अमरता” का पर्याय माना गया है. इसको उगाने वाले अनुभवी लोग कहते हैं कि इसका पेड़ कितना भी पुराना हो जाए, फलने फूलने की उसकी ताक़त बरक़रार रहती है. कब्रिस्तान में इसकी मौजूदगी इसीलिए प्रतीकात्मक भी हो सकती है. हालांकि यहां मनोकामिनी, चांदनी के भी अनेकों पेड़ हैं. एक कोने में दो-तीन पेड़ हार श्रृंगार के भी लगे हैं. कब्रिस्तान के बीच चलने के लिए जो संकरा सा रास्ता है, उसके दोनों तरफ़ सफ़ेद बेला की झाड़ियां हैं. इन पेड़ों और झाड़ियों को देख के ही महसूस होता है कि यहां के केयर टेकरों ने किसी खास योजना के साथ ही इन सफ़ेद खुशबूदार फूलों के पेड़ों को यहां लगाया होगा. सफ़ेद चांदनी के फूल रात में जब चमकते होंगे, कितने सुंदर लगते होंगे. इस कब्रिस्तान का भी अपना एक इको सिस्टम है. कभी-कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है कि इस इको सिस्टम को महसूस करने के लिए कभी यहां रात को आया जाए, और फिर कानों में इयर फ़ोन लगा सुना जाए…
“जब हम न होंगे तब हमारी
खाक पे तुम रुकोगे चलते चलते
अश्कों से भीगी चांदनी में
इक सदा सी सुनोगे चलते चलते
वहीं पे कहीं, वहीं पे कहीं हम
तुमसे मिलेंगे, बन के कली बन के सबा बाग़े वफ़ा में …
रहें ना रहें हम, महका करेंगे …
कल किसने देखा
कल कोई आए न आए. कौन इन कब्रों पर महकते हुए फूल चढ़ाने को आएगा. इसलिए इन कब्रों पर सिर्फ़ महकने वाले फूलों का ही इंतज़ाम नहीं होता है, इन कब्रों पर नक्काशी कर के खास कालजई फूल भी तराशे जाते हैं. मरने वाले की ज़िंदगी में जीते जी चाहे जितनी भी कमियां रही हों, मरने के बाद पीछे से कोई कसर न रह जाए… इसका पीछे छूट गए उनके परिजन ख़ास ख़्याल रखते हैं. कब्र पर पसंद का पत्थर, पसंद की आकृति, पसंद की इबारत, पसंद का फूल बनवाते हैं.
इस कब्रिस्तान में भी गुलाब, लिली, नरगिस, आर्किड, गुड़हल सब दिख जाएंगे. कब्र पर बनी बेलें, फूल और बाकी की इबारतें अपनी आस्था और अपने विश्वास के अनुरूप ही होती हैं.
गुलाब
गुलाब, हिंदी में पुलिंग है और अंग्रेज़ी में स्त्रीलिंग शब्द है. वर्जिन मेरी का नाम “रोज़” था. ठेठ हिंदुस्तानी “महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला” ने गुलाब की शान में तमाम गुस्ताखियां की हैं. उसे अशिष्ट, खून चूसने वाले कैपिटलिस्ट तक की संज्ञा दे दी है. पर गुलाब की असली कद्र अंग्रेज़ी मिज़ाज “टी एस इलियट” साहेब ने ही पहचानी है. वो कहते हैं…
जैसे मौत की अस्त होती सल्तनत
का सनातन सितारा
बहुपंखुड़ी गुलाब
इकलौती उम्मीद
रोते हुए लोगों की (The Hollow Men 1925, अनुवाद:अनूप सेठी)
“Lady of silences
Calm and distressed
Torn and most whole
Rose of memory
Rose of forgetfulness
Exhausted and life-giving
Worried reposeful
The single Rose
Is now the Garden
Where all loves end” (Ash Wednesday)
पोयट्री और साहित्यिक किताबों के बाहर भी गुलाब को प्रेम का प्रतीक माना गया है. कब्रों पे इसका होना मरने वाले के प्रति प्रेम और सम्मान का द्योतक है. गुलाब की इसी अंग्रेज़ी कद्र का नमूना खास तौर पर महिलाओं की कब्रों पर साफ़ दिखता है. महारानी विक्टोरिया के ज़माने में गुलाब औरतों की कब्रों पर तराशा जाने वाला सबसे लोकप्रिय फूल था. जिस डायना की कब्र पर उस परदेसी ने आकर एक गुलाब का फूल रखा था, वो भी विक्टोरियन युग वाली ही किसी डायना की कब्र थी.
लिली
विक्टोरियन युग का दूसरा चहेता कब्री फूल “लिली” हुआ करता था. मिट्टी में मिलकर भी पुनः जीवन कैसे लेना है कोई लिली से सीखे. एक मृत आत्मा का मरणोपरांत दोबारा सरलता, सहजता की ओर लौटना, मतलब लिली की तरह हो जाना. उस युग की तमाम अंग्रेज़ी कब्रों पर लिली तराशी हुई मिलेगी. यही नहीं, विश्व की अनेक दूसरी परंपराओं में भी कब्रों पर लिली को तराशने की मान्यता है.
डेफोडिल/नर्गिस
ग्रीक माइथोलॉजी में नर्गिस आत्ममुग्धता का प्रतीक है, परंतु अंग्रेज़ी ट्रेडिशन में मिट्टी के अंदर से फूटते ये नर्गिस के फूल, कब्रों के ज़रिए दोबारा जी उठने की आस का द्योतक हैं. नर्गिस का एक कब्रिस्तानी कनेक्शन फिल्म पाकीज़ा में पहली बार एक अलग दृष्टिकोण से देखा था, पर नर्गिस हमेशा पाकीज़गी की ही निशानी रही है और यही सोच के इन्हें इन अंग्रेज़ी कब्रों पर इंगित भी किया जाता रहा है.
डेज़ी और डैंडेलियन
मासूमियत और मुलायमियत लिए डेज़ी, छोटे बच्चों की कब्र पर तराशे जाने वाला फूल है. डेज़ी की तरह ही डैंडेलियन भी जिसे हिंदी में सिंहपर्णी या कुकरौंधा कहते है, छोटे बच्चों की कब्र की निशानी होता है. ये नाज़ुक जंगली पीला फूल, दोबारा जीवित होने के लालसा में जल्दी ही सूख कर अपने बीज उड़ा देता है. और फिर वो बीज जहां गिरता है वहीं नया जीवन ले, उग आता है.
सूरजमुखी
सभी जानते हैं कि सूरजमुखी का फूल जिधर सूरज होता है, उसी दिशा में ताकता रहता है और अपना ये चक्कर पूरा कर बाद में पूर्व की तरफ़ ही मुख कर, स्थिर हो जाता है. कैथोलिक परंपरा में उगते सूरज की बड़ी मान्यता है. उनकी कब्रें भी पूर्व की तरफ़ ही मुख कर बनाई जाती हैं. और इन कब्रों पर अक्सर इसी कारण से सूरजमुखी तराशे पाए जाते हैं.
अंगूर की बेल
होंगे अंगूर खट्टे किसी और के लिए पर कब्री परंपराओं में इसका तराशा जाना “उर्वरता” की निशानी है. “हम बढ़े हमारी बेल बढ़े” के मानक पर बढ़ते रहने का संदेश देती अंगूर की बेल, पुरानी ग्रीक परंपरा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है.
चलते चलते
‘एक बंगला बने न्यारा’ की तर्ज पर मौत के बाद भी सुंदर बने घर की कल्पना अल्टीमेट इंसानी चाहत होती है. आजकल बड़े-बड़े लोग अपनी अंतिम यात्रा, अपना ताबूत, सब कुछ प्लान कर के ही दुनिया से विदाई ले रहे हैं. कुछ इसी तरह की इंसानी चाहत का नतीजा हैं ये कब्रों पर तराशे हुए फूल. जब तक कोई चढ़ाने वाला है, महकते फूल इन कब्रों पर चढ़ते रहेंगे. जब महकते फूल चढ़ाने वाला कोई न बचेगा, तब के लिए, मौसमों की मार से आज़ाद ये तराशे हुए फूल हैं न.
“मौसम कोई हो इस चमन में
रंग बनके रहेंगे, हम खिरामां
चाहत की खुशबू, यूं ही ज़ुल्फ़ों
से उड़ेगी, खिज़ा हों या बहारें
यूंही झूमते, युहीं झूमते और
खिलते रहेंगे, बन के कली बन के सबा बाग़ें वफ़ा में
रहें ना रहें हम …”
धन्यवाद.