अजब-गजब: यहां 7 नही, लिए जाते हैं 8 फेरे, लाल कपड़े पहनना भी मना, सफेद जोड़े में होती है शादी

राजस्थान का बाड़मेर जिला, जो भारत-पाकिस्तान सीमा पर अपनी रंग-बिरंगी संस्कृति और परंपराओं के लिए जाना जाता है, एक बार फिर अपनी अनोखी शादी की रस्मों के कारण चर्चा में है. यहां के श्रीमाली समाज में शादी की रस्में बाकी समाजों से बिल्कुल अलग हैं. जहां हिंदू परंपरा में आमतौर पर सात फेरे लिए जाते हैं, वहीं श्रीमाली समाज में आठ फेरे लिए जाते हैं. इसके साथ ही, दूल्हा दुल्हन को चार फेरे गोद में उठाकर पूरा करता है और शादी में लाल या रंगीन कपड़ों की जगह सफेद जोड़े को प्राथमिकता दी जाती है. यह परंपरा न केवल बाड़मेर, बल्कि जैसलमेर, फलौदी, उदयपुर और बीकानेर में बसे श्रीमाली समाज में भी पूरी श्रद्धा के साथ निभाई जाती है.
क्या है इस अनोखी परंपरा का रहस्य?श्रीमाली समाज के अध्यक्ष पंडित सुरेंद्र कुमार श्रीमाली बताते हैं कि यह परंपरा महाभारत काल से प्रेरित है. पौराणिक कथाओं के अनुसार, रुक्मिणी के पिता ने उनकी शादी शिशुपाल से तय कर दी थी लेकिन रुक्मिणी का मन भगवान श्रीकृष्ण के साथ था. श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी का विदर्भ से हरण किया और उन्हें गोद में उठाकर फेरे लिए. इस घटना से प्रेरित होकर श्रीमाली समाज ने आठ फेरों की परंपरा शुरू की, जिसमें चार फेरे दूल्हा और दुल्हन एक साथ अग्नि को साक्षी मानकर लेते हैं और बाकी चार फेरे दूल्हा दुल्हन को गोद में उठाकर पूरा करता है. यह रस्म दूल्हे द्वारा दुल्हन की रक्षा का वचन मानी जाती है.
इसके अलावा, श्रीमाली समाज में शादी के दौरान रंगीन कपड़ों, खासकर लाल रंग, का उपयोग वर्जित है. दूल्हा और दुल्हन दोनों सफेद वस्त्र पहनते हैं, जो पवित्रता और सादगी का प्रतीक है. एक और अनोखी बात यह है कि दुल्हन घोड़ी पर सवार होकर विवाह स्थल पर आती है, जो आमतौर पर दूल्हे की परंपरा मानी जाती है. यह रस्में श्रीमाली समाज को अन्य समुदायों से अलग बनाती हैं और इसे देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं.
समाज और संस्कृति में महत्वश्रीमाली समाज की यह परंपरा न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है. आठ फेरे लेने की प्रथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार फेरों के साथ-साथ दुल्हन की रक्षा और सम्मान के प्रति दूल्हे की जिम्मेदारी को दर्शाती है. सफेद वस्त्रों का उपयोग इस बात का प्रतीक है कि विवाह में सादगी और शुद्धता को प्राथमिकता दी जाती है. स्थानीय लोग बताते हैं कि यह परंपरा सदियों से चली आ रही है और श्रीमाली समाज इसे पूरी निष्ठा के साथ निभाता है. बाड़मेर के अलावा, जैसलमेर, फलौदी, उदयपुर और बीकानेर में भी यह रस्में उसी उत्साह के साथ मनाई जाती है.
सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभावयह अनोखी परंपरा न केवल श्रीमाली समाज की पहचान है बल्कि राजस्थान की सांस्कृतिक विविधता को भी दर्शाती है. सामाजिक कार्यकर्ता और इतिहासकार डॉ. रमेश शर्मा का कहना है कि ऐसी। परंपराएं समाज में एकता और सांस्कृतिक गौरव को बढ़ावा देती है. हालांकि, कुछ लोग इसे आधुनिक समय में अप्रासंगिक मान सकते हैं लेकिन श्रीमाली समाज का मानना है कि यह उनकी विरासत का अभिन्न हिस्सा है. इस परंपरा को देखने के लिए बाड़मेर में शादी के सीजन में पर्यटकों की भीड़ भी जुटती है, जो इसे राजस्थान की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा मानते हैं.
आधुनिक समय में चुनौतियांहालांकि श्रीमाली समाज अपनी परंपराओं को कायम रखे हुए है लेकिन आधुनिकता और शहरीकरण के प्रभाव के कारण कुछ युवा पीढ़ी इन रस्मों को सरल करने की मांग कर रही है. फिर भी, समाज के बुजुर्ग और परंपरावादी इस रस्म को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं. पंडित सुरेंद्र कुमार श्रीमाली का कहना है कि यह परंपरा न केवल धार्मिक, बल्कि सामाजिक एकता और विश्वास का प्रतीक है.