Bollywood film actor irfan khan books dialogues film director anoop singh nodakm – एक निर्देशक की यादों में इरफान | – News in Hindi
इरफान (1967-2020) हमारे समय के एक बेहतरीन अभिनेता थे. उनके प्रशंसक पूरी दुनिया में फैले हुए हैं. हाल ही में फिल्म निर्देशक अनूप सिंह की लिखी किताब ‘इरफान: डॉयलाग्स विद द विंड’ प्रकाशित हुई है. यह किताब एक शोक गीत है, पर इसमें जीवन का राग है. अनूप सिंह ने ‘किस्सा’ (द टेल ऑफ ए लोनली घोस्ट, 2013) और ‘द सांग ऑफ स्कॉर्पियंस’ (2017) फिल्म में इरफान के साथ काम किया था.
अनूप सिंह ने किताब की शुरुआत में लिखा है कि फरवरी 16, 2018 को उन्हें इरफान का एक मैसेज मिला: ‘बात हो सकती है? कुछ अजब ही सफर की तैयारी शुरु हो गई है. आपको बताना चाह रहा था.’ इरफान अभी सफर में थे. उन्हें एक लंबी दूरी तय करनी थी. सिनेमा जगत को उनसे काफी उम्मीदें थी, लेकिन कैंसर की वजह से यह सफर थम गया. उनकी अभिनय यात्रा अचानक रुक गई.
अपने मित्र और अभिनेता को केंद्र में रखते हुए यह किताब स्मृतियों के सहारे लिखी गई है. उन स्मृतियों के सहारे जो इरफान के गुजरने के बाद बवंडर की तरह अनूप सिंह के मन पर छाई रही. इस किताब के माध्यम से अनूप सिंह ने एक अभिनेता की तैयारी, कार्यशैली और क्राफ्ट को हमारे सामने रखा है. इस अर्थ में यह किताब महज संस्मरण नहीं है. इस किताब से इरफान का व्यक्तित्व हमारे सामने आता है.
साथ ही एक अभिनेता और निर्देशक के आपसी रिश्ते, एक-दूसरे के प्रति आदर और कला के प्रति दीवानगी से भी हम रू-ब-रू होते हैं. उल्लेखनीय है कि जहां इरफान ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) से अभिनय में प्रशिक्षण प्राप्त किया था, वहीं अनूप सिंह पुणे स्थित भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान से प्रशिक्षित हैं और स्विट्जरलैंड में रहते हैं. वे मणि कौल और कुमार शहानी की परंपरा के फिल्म निर्देशक हैं.
प्रसंगवश, उन्होंने कौल और शहानी के गुरु ऋत्विक घटक के ऊपर ‘एकटि नदीर नाम’ (द नेम ऑफ ए रिवर) फिल्म का निर्माण किया है, जिसे वर्ष 2006 में ओसियान फिल्म समारोह में ‘ऋत्विक घटक रेट्रोस्पेक्टिव’ में दिखाया गया था. यह फिल्म घटक को समर्पित है.
दृश्यात्मक शैली में पूरी किताब लिखी गई है और भाषा काव्यात्मक है. यह ऐसी भाषा है जो विछोह से उपजती है. इस किताब का आधा हिस्सा ‘किस्सा’ फिल्म निर्माण-निर्देशन के इर्द-गिर्द है और कुछ हिस्सों में ‘द सांग ऑफ स्कॉर्पियंस’ की चर्चा है. ‘किस्सा ‘काफी चर्चित रही है इसे पुरस्कार भी मिले. देश विभाजन की त्रासदी और उससे उपजी पीड़ा की पृष्ठभूमि में रची गई यह कहानी एक भूत के माध्यम से कही गई है.
यथार्थ और कल्पना के बीच यह फिल्म झूलती रहती है. साथ ही इस फिल्म में एक स्त्री की परवरिश एक पुरुष के रूप में है. इरफान ने अंबर सिंह का किरदार निभाया है. फिल्म के रिहर्सल के दौरान एक वाकया को याद करते हुए अनूप सिंह लिखते हैं कि किस तरह इरफान ने उन्हें वॉन गॉग की एक पेंटिंग ‘ग्रूव ऑफ ऑलिव ट्रीज,’ जो उन्होंने भेजी थी, का जिक्र करते हुए कहा था-‘ मैं इन्हीं ऑलिव वृक्षों में से एक होना चाह रहा था.’
अनूप सिंह लिखते हैं कि इस तस्वीर में प्रकृति (नेचर) और प्रारब्ध (डेस्टिनी) के विरुद्ध विद्रोह है. इरफान इस फिल्म में भाव-भंगिमा के सहारे अंबर सिंह की पीड़ा को सामने लाने में सफल हैं. इस किताब की भूमिका लिखते हुए अमिताभ बच्चन ने भी नोट किया है कि किस तरह ‘पीकू’ फिल्म के एक दृश्य में इरफान महज आंखों की अपनी एक भंगिमा से संवादों के पूरे पैराग्राफ को अभिव्यक्त करने में सफल रहे. इरफान एक अभिनेता के रूप में अपने समय और स्थान के प्रति हमेशा सजग रहते थे.
वर्ष 2004 में विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘मकबूल’ में नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, पंकज कपूर, पीयूष मिश्रा जैसे मंजे कलाकारों के साथ काम करते हुए ‘मकबूल’ के किरदार को उन्होंने जिस सहज अंदाज में जिया है, वह अविस्मरणीय है. आश्चर्य नहीं कि अपने श्रद्धांजलि लेख में नसीरुद्दीन शाह ने लिखा था कि ‘इरफान ऐसे अभिनेता हैं जिनसे मुझे इर्ष्या होती थी’. इरफान ने अभिनय की ऊंचाई हासिल करने के लिए काफी मेहनत की जिसकी चर्चा नहीं होती.
जाहिर है, जयपुर से दिल्ली और फिर बॉलीवुड-हॉलीवुड की उनकी यात्रा संघर्षपूर्ण थी. एक बार वे बोरिया-बिस्तर समेट कर जयपुर लौटने की तैयारी कर चुके थे. फिल्म निर्माण बड़ी पूंजी आधारित है, इसे वे बखूबी जानते थे पर कला के प्रति उनमें दीवानगी थी. ‘किस्सा’ के निर्माण के दौरान उन्होंने अनूप सिंह से कहा था- ‘अनूप साहब, प्रोड्यूसर तो फाइनली फिल्म बेचेगा. लेकिन जो लोग हैं वो तो आपकी फिल्म देखेंगे. आप बस अपनी फिल्म बनाइए.’ उनके जीवन और कला के बीच कोई फांक नहीं था.
किताब के आखिर में जो अस्पताल का दृश्य है, मौत से पहले की बातचीत है, वह बेहद मार्मिक है. एक कलाकार विभिन्न किरदारों को जीते हुए फिल्मों में, नाटकों में कई बार मरता है पर वास्तविक जीवन में मौत को सब झूठलाते हैं. इरफान अनूप सिंह से पूछते हैं: मैं कहां मरूंगा? दर्द के अलावे मेरे साथ कौन होगा?’ बिस्तर पर लेटे इरफान के साथ अनूप सिंह की गुफ्तगू है: ‘हम जो साथ मिल कर फिल्म बनाने वाले हैं उनमें एक-दो में मैं मरता हूँ, नहीं? ये पोस्चर अच्छा है, नहीं? आप कैमरा कहां लगाएँगे? साहिर लुधियानवी ने ठीक ही लिखा है: ‘मौत कितनी भी संगदिल हो, मगर जिंदगी से तो मेहरबा होगी’. इस किताब को पढ़ते यह अहसास हमेशा बना रहता है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
अरविंद दासपत्रकार, लेखक
लेखक-पत्रकार. ‘मीडिया का मानचित्र’, ‘बेखुदी में खोया शहर: एक पत्रकार के नोट्स’ और ‘हिंदी में समाचार’ किताब प्रकाशित. एफटीआईआई से फिल्म एप्रिसिएशन का कोर्स. जेएनयू से पीएचडी और जर्मनी से पोस्ट-डॉक्टरल शोध.
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