पुस्तक समीक्षा: आक्रामक समय में एक मीठी धौल है अनामिका अनु के प्रेम पत्रों का संकलन ‘यारेख’
(अनामिका/ Anamika)
कवि-चिंतक अनामिका अनु द्वारा सम्पादित प्रेम पत्रों का यह अनूठा संकलन हमारे आतंकविह्वल, युद्धकातर, आक्रामक समय में एक मीठी धौल है, वही मीठी धौल जो ऊंघते परीक्षार्थी को उसका जागा हुआ सहपाठी जमा देता है, ‘जागते रहो’ की धुन पर सीटी बजाता हुआ. सब लेखकों की नियति इन दिनों हताशा और थकान में ऊंघते परीक्षार्थियों की हो गई है.
‘समय और समाज का पहरुआ’ और ‘प्रेम का सवंदिया’ लेखक और कलाकार ही माने जाते हैं, और कभी जो अपनी भूमिका भूल गए तो एक दूसरे को धौल-धप्पा जमाते हैं- पाली बदल-बदलकर.
इस बार यह धप्पा अनामिका अनु की तरफ से- ‘आपने याद दिलाया तो हमें याद आया’- कभी हम भी प्रेम के काबिल थे, प्रेम की प्रतिमूर्ति! एक के बहाने सारी दुनिया अपनी-अपनी-सी लगने लगे, यह एहसास कभी हममें भी जगा था. एक-एक लेखक को अनामिका अनु ने कई बार फोन पर ही जगाया, अपने भीतर झांकने को विवश किया और पीछे मुड़कर देखने को भी ताकि आगे का मसविदा बन सके.
‘वी लुक बिफोर ऐंड आफ्टर/ऐंड पाइन फॉर व्हाट इज नॉट’- शेली (Percy Bysshe Shelley) के इन शब्दों का मर्म समझें तो वियोग हमारे चित्त की स्थायी दशा हो गई है- वियोग उसका जिसने कभी स्पंदित किया था, वह व्यक्ति हो या यूटोपिया! अब समझ में आता है कि महादेवी वर्मा ने वियोग को एक रूपक के रूप में इतना विस्तार दिया था तो क्यों!
सामाजिक और राजनीतिक संबंध सच्चे और खरे नहीं रहे पर अंतर्वैयक्तिक सम्बन्धों में पावनता का निर्वाह हम आज भी करते हैं. चोर भी दस घर छोड़कर चोरी करता है – यह कहावत वैसे तो पुरानी है, पर इसके मर्म की परिधि अब बृहत्तर हुई है. प्रेम अभी भी एक क्रांति है, एक आत्मिक क्रांति, प्रिय की आंख से हम गिरे नहीं- इसकी चिंता अभी भी युवकों को आदर्श की ओर प्रवृत्त रखती है. कम-से-कम कुछ वर्षों तक जब तक प्रेम का आवेग बना रहता है और यह एहसास भी कि कोई हमें देख रहा है- बहुत ध्यान से, मान से. कोई तो है इस इतनी बड़ी दुनिया में जिसकी बाँछें खिल जाती हैं मुझे देखकर और जो मेरी पात्रता पर, भलमनसाहत पर कभी प्रश्नचिह्न नहीं लगाता.
जिसे एमिली डिकिन्सन ‘टेण्डर मैजिस्टी’ कहती है, कोमल ठाठ या मसृण शालीनता के उन दिनों की याद दिलाकर अनामिका अनु हमारी आज की अहमन्यता से शायद हमें मुक्त कराना चाहती हों! सब को शीशे में उतार ही लिया उन्होंने, पर स्वयं जो प्रेम पत्र लिखा वह शब्द को लिखा, एक पंक्ति बनकर! यह उनका एक चुटीला फेमिनिस्ट मजाक है. एक झपाके में स्त्री-पुरुष के बीच का स्थापित पदानुक्रम तोड़ने की एक अनूठी पहल जहां शब्द बस सम्बोधन है, रहना तो उसे पंक्ति के अनुशासन में ही होगा वरना अनेरुआ हो जाएगा वह.
जो पत्र इस संकलन में हैं, उनकी 5 श्रेणियां बनाई जा सकती हैं. पहली श्रेणी में आएंगे वे वरिष्ठ लेखक जिन्होंने अपने वजूद से बाहर निकलकर अजनबियों की तरह अपनी युवावस्था पर निगाह डाली और ‘सॉन्ग्स ऑफ इनोसेंस’ वाले अपने जमाने पर हँसते हुए एक सार्थक रपट प्रस्तुत कर दी है. इन महत्त्वपूर्ण लेखकों में हैं असग़र वजाहत और मैत्रेयी पुष्पा: ‘मुझे डर था कि मेरा सन्देशवाहक कबूतर मार दिया जाएगा. मैं नहीं चाहता था कि मेरे प्रेम के लिए मेरे अलावा कोई कुर्बानी दे।…अरे मॉम तुम गर्मियों में नंगे पांव अपने लवर को सिर्फ देखने जाती थी, दिस इज वेरी स्टेंज!’
असग़र वजाहत ने भूतपूर्व प्रेमिका के बच्चे के मुँह से जो यह उक्ति कहलवाई है, उसकी भाषा, उसके तेवर में दो बड़े सत्य उजागर होते हैं: (1.) समय के साथ तमाम तरह की घेरेबंदियां टूटी हैं, प्रेम देहोन्मुख होने में शरमाता नहीं, देह को लेकर पहले की तरह पजेसिव नहीं है नई पीढ़ी और झलक-भर देख-भर लेने के लिए कोई प्रेम की जहमत में नहीं पड़ता. (2.) आत्मतीय सम्बन्धों में भी जनतंत्र गहराया है- माता-पिता से बच्चों के सम्बन्ध अधिक उन्मुक्त और दोस्ताना हुए हैं!
अब देखिए मैत्रेयी पुष्पा की विनोद वृत्ति- ‘मास्साब को नहीं पता था कि यहां उन्होंने साक्षात् दुष्यन्त को उतार दिया है जो पुष्पबाण लेकर कक्षा में आता है… घर जाने पर हम सबसे इतनी मोहब्बत से पेश आए कि घर के लोग भी अचम्भे से देखने लगें कि इस चिड़चिड़ी लड़की ने कौन-सी मीठी बूटी पा ली है! अब होने यह लगा कि हमसे बात करने की जगह वे सब हमसे बचते रहे क्योंकि हमारे स्वभाव में अजब-सी विनम्रता भरी थी और घरवाले इस अजनबियत को पचा नहीं पा रहे थे. उन्हें क्या बताएं कि अब हम वह खड़ूस टाइप लड़की नहीं हैं जिसे तुम वाहवाही देते हुए कहते हो कि हमारी बेटी ऐसी-वैसी नहीं….प्रेम की बातें किसी से न बाँटें तो दिल में हलचल मची रहती है जैसे रंगीन तितलियां भीतर फड़फड़ा रही हों और बाँट बैठें तो आशंकाओं की तीखी सुइयां कलेजे में डूबने-उतरने लगती हैं.’
एक पन्ने पर इतने-सारे अनुभव-विदग्ध सूत्रात्मक वाक्य, वह भी मज़ाकिया लहजे में! बड़ा लेखक जो कुछ भी लिखता है, उससे पहली बारिश पर जमीन से उठनेवाली सोंधी गंध उठती है. और उसके साथ जमीनी सच्चाइयां भी. इसके अलावा उसमें उसका वर्ग, उसका स्थान-बोध और स्थान-बोध से छनकर आया काल-बोध भी प्रकट होता है. ये सारी विशेषताएं कुछ और बड़े लेखकों के प्रेमपत्रों से झलकती हैं और वे लेखक हैं: उषाकिरण खान, सूर्यबाला, शेफालिका वर्मा, नंद भारद्वाज और आलोकधन्वा. इसके अलावा एक खास बात यह है कि इनके पत्र कहानी पढ़ने का सुख देते हैं- ऐसी कई कहानियां जो ‘धर्मयुग’ या ‘सारिका’ के दीपावली कथा-विशेषांक या प्रेम-कथा विशेषांक में हम पढ़ते थे. युवावस्था की दहलीज पर कदम रखने वाले मध्यवर्गीय लड़के-लड़कियों का जीवन भारतीय कस्बों में कैसा था- इसकी साफ झलक तो इससे मिलती ही है, स्त्री-जीवन की बंदिशों की भी स्पष्ट आहट मिलती है.
दूसरे संवर्ग में वे पत्र आते हैं जिनमें प्रेम भावनात्मक सुरक्षा का आगार है, एक डैने में छिपकर कुछ देर बैठ लेने का सुख. आलोक धन्वा के यहां भावनात्मक सुरक्षा का आगार थोड़ी बड़ी स्त्री है- दीदी- जैसी प्रेमिका जो बबुआ की तरह रखे. इसके विपरीत उत्तर-पूर्व के असुरक्षित इलाकों और अल्पसंख्यक, आदिवासी, दलित संवर्गों से आनेवाली स्त्रियों के लिए पुरुष एक सच्चा दोस्त है जिसे प्रिया की भावनात्मक/दैहिक सुरक्षा की ही नहीं, उसके चतुर्दिक विकास की चिंता है. इस संदर्भ में अनिता भारती, जमुना बीनी, उमर तिमोल, रोसेल पोतकर और वंदना टेटे के पत्र अनुपम हैं:
‘क्या तुम जानते हो कि तुम्हारी बूटदारछाती के शामियाने के नीचेकैसा महसूस होता है?तुम्हारे शब्द चाकू और मरहम दोनोंतुम्हारे शब्द: देवता, तत्व, तारे जो नीचे … थेपढ़ने वह चित्र लिपि जो उनसे बनाई गई हैगुफा की दीवारों पर चित्रजो जीवन की पुनर्वापसी हो सकती है,एक परिक्रमा पूरी करो!’(रोसेल पोतकर, अनुवाद: अनामिका अनु)
मेरी मकान मालकिन भी तुम्हारा इंतजार कर रही है! क्यों? वह इसलिए कि मेरी शिकायत करेगी तुमसे कि कौन-कौन छोड़ने आया है और देर रात कमरे में लौटती है. एक तो खुद में ही अपराध-बोध है कि एक दूध-पीते बच्चे को छोड़ आयी हूं. उस पर से ये और! एक दिन तो पड़ोसन भाभीजी ने ऐसे लहजे में कहा कि ‘हमारे यहां जो मजदूर आते हैं बिहार के हैं. उनका लहज़ा ऐसा था कि मैंने भी कह दिया, ‘मजदूरी’ ही करते हैं, चोरी नहीं करते, किसी को लूटते नहीं.’(वंदना टेटे)
पिछले बीस सालों में कामकाजी लड़कियों का जीवन कितना बदला है, घर-बाहर द्वैत कितने बदले हैं, पुरुष कितने दोस्ताना हुए हैं- इसकी झलक इन पत्रों में तो मिलती ही हैं, नई लेखिकाओं का एक और महत्त्वपूर्ण संवर्ग है जिनके प्रेमपत्र इस तथ्य का उत्कट प्रमाण हैं कि ‘और भी गम हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा/राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा’- किसी जमाने में पुरुषों के लिए यह जितना बड़ा सच था, स्त्रियों के लिए उससे ज़्यादा बड़ा सच है. मनुष्य के दिमाग की बनावट की कुछ ऐसी है कि प्रेम करते हुए वह सिर्फ प्रेम के बारे में ही नहीं सोचता, देश-दुनिया, आसन्न परिवेश की समस्याएं भी उसे लगातार सताती हैं और ऐसी स्थिति में प्रेम हो जाता है. चिंताएं साझा करने का एक उन्मुक्त स्पेस, जैसे- अनिता भारती और वंदना टेटे के यहां ही नहीं, बिहार, झारखंड उत्तर-पूर्व, कश्मीर और दूसरे संकटग्रस्त इलाकों से आए महत्त्वपूर्ण लेखक-लेखिकाओं के यहां भी है जिनमें विशिष्ट हैं: विभा रानी, गीताश्री, अनुज लुगुन और हुजैफा पंडित.
“मैं इस कर्फ्यू को काट सकने के लिए पहले से कहीं अधिक दृढ़ संकल्पित हूं! मैं तुम्हें बाँहों में भर लेना चाहता हूं… काश, गुरुजी की चौकस निगाहों के नीचे तुम्हारे बाल मेरे चेहरे पर फैल जाएं! मैंने आधे से अधिक ‘द सेटेनिक वर्सेज’ पढ़ ली है- इसे अंशों में पढ़ना सुख है, लेकिन मुझे धोखा देने वाले प्रेमियों के प्रति आकर्षण अजीब लगता है।… हम श्रीनगर के द्वार पर मिलेंगे, जब सैनिक हमें शहर की चाबी देंगे! मिलते हैं,……..! भरोसा रखो!’’(हुज़ैफा पंडित,अनुवाद: अनामिका अनु)
चौथा सवंर्ग है उन युवा लेखिकाओं के पत्रों का जिनमें दार्शनिकता के वैभव के साथ ही गुंथा है उनका प्रखर काल-बोध. किसी-किसी का स्थान-बोध भी अपना रंग दिखाता है, पर ज्यादातर पत्र एक नई स्त्री की आँख से समकाल की विडम्बनाएं परखते हैं. प्रेम में डूबे व्यक्ति के रोम-रोम में आँखें उग आती हैं और लेखक अगर सम्भावनाशील हैं तो वह शाश्वत में भी काल के तीनों रंग गूंथ ही देता है जैसे सच्चिदानंदन, नीलेश रघुवंशी, अनुराधा सिंह, यतीश कुमार, आकांक्षा पारे, तसनीम खान, गोपीकृष्णन कुट्टूर, शैलजा पाठक, उमर तिमोल, गीताश्री, जयंती रंगनाथन और संजय शेफर्ड स्वप्न गूंथते हैं. प्रेम के दिन अक्सर बेरोजगारी के दिन भी होते हैं तो आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा इनमें से कई श्रेष्ठ लेखकों के मन पर कांपती ओस की बूंद का निश्छल सौन्दर्य बख़्शती है.
पांचवा संवर्ग उन चार नामी-गिरामी लेखकों के पत्रों का बनता है जो लम्बे समय तक विदेशों में रहे हैं, वह भी इतना रमकर कि अगर इन पत्रों का कोई अंग्रेजी अनुवाद कर दे तो समझना मुश्किल हो जाए कि ये किसी भारतीय लेखक के लिख हुए पत्र हैं. यहां प्रेम की खुमारी देश-काल के बंधन तोड़ गई है- प्रकृति, किताबें, उद्धरण, परिवेश- सब विदेशी- ख़्वाब में पिरोए, असम्बद्ध कुछ सूत्र फैले हैं यहां, लुई कुनइल के फिल्मों जैसे, मेपल के पत्तों, बेकरी और बर्फ़ की ख़ुशबू से नहाए हुए. तेजी ग्रोवर, पंकज सिंह, सविता सिंह और मनीषा कुलश्रेष्ठ के पत्रों में बर्फ की रोशनी है. प्रेम में जो ऊष्मा है- वह बर्फीले प्रदेश में रोशन कैम्प-फायर की – सी लगती है. थोड़ी रहस्यमय और अपने आप में पूर्ण, पर समुदाय यहां जैसे छूट ही गया है.
कुल मिलाकर जीवन के अलग-अलग रंगों से लहालोट यह संग्रह अपनी विलक्षण भूमिका के लिए भी अत्यन्त पठनीय और रससिक्त है- तरह-तरह की ध्वनियां जिसके भाषिक अवचेतन में रंगीन मछलियों सी तैरती है.
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FIRST PUBLISHED : June 23, 2024, 14:47 IST