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दास्तान-गो: विंस्टन चर्चिल आज होते तो उन्हें सुनाई देती, ‘वक़्त की लाठी की आवाज़’!

दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…

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जनाब, बड़े-बुज़ुर्गों के मुंह से ऐसा अक्सर तमाम लोगों ने सुना होगा कि ‘वक़्त की लाठी में आवाज़’ नहीं होती. मतलब कहने का ये कि वक़्त धीरे से, बिना शोर-शराबे के अपना काम कर जाया करता है. बात सही भी है लेकिन यहीं अंग्रेजी ज़बान की कहावत भी याद दिलाना ज़रूरी है. ये कहती है, ‘एक्सेप्शंस आर ऑलवेज़ देयर’. मतलब ‘अपवाद हर जगह हुआ करते हैं’. तो इस लिहाज़ से बड़े-बुज़ुर्गों की कहन को बदलकर यूं भी कहा जा सकता है फिर, कि ‘वक़्त की लाठी में, कभी-कभी सही, आवाज़ होती है’. और जब ये होती है न, तो दुनियाभर में सुनाई देती है किसी वक़्त पर. और जिन पर ये ‘वक़्त की लाठी’ पड़ती है, उनके कानों में तो इसकी आवाज़ नगाड़ों की तरह सुनाई देती है. मिसाल के तौर पर ‘ग्रेट-ब्रिटेन’ और उसके सबसे ‘महान प्रधानमंत्रियों’ में शुमार विंस्टन चर्चिल. आज अगर चर्चिल होते तो उन्हें ज़रूर सुनाई देती ‘वक्त की लाठी की आवाज़’.

पहेलियां नहीं, सच्चाई है ये. ग़ौर कीजिए, आज 26 अक्टूबर की तारीख़ से इस क़िस्म का इत्तिफ़ाक़ जुड़ रहा है, जिसके बारे में ‘ग्रेट-ब्रिटंस’ ने कभी सोचा भी नहीं होगा. वहां अभी एक रोज़ पहले, 25 अक्टूबर को ही, ‘भारतवंशी’ ऋषि सुनक ने बतौर प्रधानमंत्री देश की बागडोर अपने हाथ में ली है. पूरा ‘ग्रेट-ब्रिटेन’ अब उनकी तरफ़ उम्मीद से हाथ बांधे हुए खड़ा है कि वे मुल्क को मौज़ूदा झंझावात से निकालेंगे. ख़राब माली हालात दुरुस्त करेंगे. ब्रिटेन को फिर ‘ग्रेट’ होने के रास्ते पर ले जाएंगे. उसे दुनिया की अगुवाई करने वाले देशों की फ़ेहरिस्त में शुमार करेंगे. और इस मुश्किल दौर में देश की ठीक उसी तरह अगुवाई करेंगे, जैसी दूसरे विश्व युद्ध के दौरान कभी विंस्टन चर्चिल ने की थी. सर विंस्टन लियोनार्द स्पेंसर चर्चिल, जो एक नहीं, बल्कि दो बार ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रहे. और दूसरी बार जब उन्होंने ये ज़िम्मेदारी संभाली तो तारीख़ यही थी, 26 अक्टूबर 1951.

विंस्टन चर्चिल, जिन्होंने ब्रिटेन की उस वक़्त अगुवाई की जब जर्मन तानाशाह एडोल्फ हिटलर सिर्फ़ उनके मुल्क ही नहीं पूरी दुनिया के लिए चुनौती बना हुआ था. तब साल 1940 से 1945 के दौरान प्रधानमंत्री रहते हुए चर्चिल ने हिटलर को चुनौती दी, तो दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया. पर वे पीछे नहीं हटे. उन्होंने अमेरिका के राष्ट्रपति फ्रेंकलिन डी रूज़वेल्ट और सोवियत संघ के प्रमुख जोसेफ स्तालिन और ब्रिटेन के अन्य मित्र-देशों को साथ लेकर युद्ध की रणनीति बनाई. उसे इस तरह सूरत दी कि आख़िरकार हिटलर को घुटने टेकने पड़े. फिर युद्ध के बाद जब मित्र-देशों का गठजोड़ टूट गया और सोवियत संघ का विस्तारवादी रवैया ब्रिटेन की राह में आड़े आने लगा तो चर्चिल ही थे, जिन्होंने उसके ख़िलाफ़ भी तमाम मुल्कों को एकजुट करने की पहल की थी. इसी का नतीज़ा मिला था उन्हें, जब ‘ग्रेट ब्रिटंस’ ने दूसरी बार उन्हें अपने मुल्क की अगुवाई के लिए चुना.

Winston Churchill

हालांकि, चर्चिल के चर्चे सिर्फ़ सियासत की हद तक बंधे नहीं रहे. बल्कि वे वहां के बड़े लेखकों में भी गिने गए. उनकी लिखी इतिहास की किताबें ख़ासकर चर्चित रहीं. मसलन- ‘द हिस्ट्री ऑफ द इंग्लिश स्पीकिंग पीपुल्स’ नाम से लिखी किताब, जो इतिहास में दिलचस्पी रखने वालों के लिए आज भी एक बड़ा तारीख़ी दस्तावेज़ कही जाती है. यही नहीं, ब्रिटिश फ़ौज जिन लड़ाईयों से गुज़री, उनमें से कई का आंखों देखा हाल भी चर्चिल ने लिखा है. ऐसा और भी बहुत कुछ. इसी लिखाई की वज़ह से उन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार तक दिया गया, साल 1953 में. और दिलचस्प ये कि यह जो इतिहास और लड़ाईयों का आंखों देखा हाल वग़ैरा लिखने में चर्चिल की दिलचस्पी बनी, या यूं कहें कि इस तरह की लिखाई को सही सूरत मिली, उसकी शुरुआत हिन्दुस्तान से होती है, ऐसा कहते हैं. ख़ुद उन्हीं की लिखी किताब ‘माई अर्ली लाइफ़’ में ऐसे संकेत ख़ूब मिलते हैं.

बात तब की है, जब चर्चिल सियासत में आए नहीं थे. ब्रिटिश फ़ौज की ‘क्वींस ओन हुसार्स रेजीमेंट’ में मेजर होते थे वे. उम्र यही कोई 21-22 बरस (30 नवंबर 1874 की पैदाइश) ही थी. ये दौर था, जब हिन्दुस्तान अंग्रेजों के मुताबिक ‘ब्रिटिश शाही ताज़ का नग़ीना’ होता था. जबकि हिन्दुस्तानियों की ज़बान में उनका मुल्क ‘अंग्रेजों का ग़ुलाम’. तभी फ़ौजी की हैसियत से चर्चित कुछ वक़्त क्यूबा में तैनात रहे. फिर वहां से अपनी टुकड़ी के साथ हिन्दुस्तान भेजे गए. साल 1896 के सितंबर महीने की 11 तारीख़ थी वह, जब चर्चिल साथी फ़ौजियों के साथ ‘एसएस ब्रितानिया’ जहाज से बंबई के समंदर किनारे उतरे. यहां से 36 घंटे की रेल यात्रा कर बेंगलुरू पहुंचे. वहां उन्हें और उनके साथियों को ‘मलकंद फील्ड फोर्स’ के साथ तैनात किया गया. पश्चिमोत्तर प्रांत के मोर्चे पर बाग़ियों और हमलावरों से मुक़ाबला कर उन्हें ठिकाने लगाने का ज़िम्मा इस टुकड़ी के पास था.

हिन्दुस्तान में शुरुआती तज़रबे को बयां करते हुए चर्चिल ‘माई अर्ली लाइफ़’ में लिखते हैं, ‘हिन्दुस्तान की ज़मीन पर क़दम रखते ही हमें यूं लगा, जैसे हम किसी दूसरी ही दुनिया में आ गए हों’. कहते हैं, यहीं हुए तज़रबों के दौरान चर्चिल की यह इच्छा तेज हुई कि उन्हें इतिहास, दर्शन, अर्थशास्त्र वग़ैरा के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ना चाहिए. और उन्होंने हिन्दुस्तान में रहते हुए ही मैकॉले की ‘हिस्ट्री ऑफ़ इंग्लैंड’ के पूरे 12 खंड पढ़ डाले. गिब्बन की लिखी किताब ‘डिक्लाइन एंड फाल ऑफ द रोमन एंपायर’ भी पढ़ी. साथ ही एडम स्मिथ की ‘द वेल्थ ऑफ द नेशंस’ और डार्विन को भी पढ़ा. इसके अलावा अरस्तू और प्लेटो जैसे दार्शनिकों का अध्ययन भी किया. इस दौरान पश्चिमोत्तर प्रांत, जो अब पाकिस्तान में खैबर पख़्तूनख्वा कहलाता है, की कुछ लड़ाईयों में हिस्सा लिया. ‘पायनियर’ और ‘डेली टेलीग्राफ’ जैसे अख़बारों के लिए इन लड़ाईयों का आंखों देखा हाल लिखा.

उस दौर में चर्चिल करीब तीन साल हिन्दुस्तान में रहे. इस दौरान बंबई, बेंगलुरू के अलावा मद्रास, ऊटी, पूना, मथुरा, आगरा, दिल्ली, शिमला, कलकत्ता, हैदराबाद, सिकंदराबाद जैसी तमाम जगहों पर घूमे. और यहीं एक जगह उन्हें अपनी ‘ज़िंदगी का पहला प्यार’ भी मिला. बात तब की जब एक बार चर्चिल बेंगलुरू से फ़ौजियों की पोलो टीम के साथ मैच खेलने सिकंदराबाद (अब तेलंगाना में) पहुंचे थे. वहां हैदराबाद में निज़ाम के दरबार में उस वक़्त अंग्रेजों के स्थायी प्रतिनिधि (रेज़ीडेंट) का ओहदा संभाल रहे थे सर ट्रेवर शिशेल जॉन प्लॉडेन. उनकी बेटी पामेला प्लॉडेन पर चर्चिल पहली नज़र में ही दिल हार बैठे थे. इस बारे में चार नवंबर 1896 को चर्चिल ने अपनी मां जेनी जेरोम को पत्र लिखकर बताया था, ‘कल मैं मिस प्लॉडेन से मिला. वह हैदराबाद में रहती है. सिकंदराबाद से आठ मील दूर. मैं कह सकता हूं कि मैंने आज तक उसके जितनी ख़ूबसूरत लड़की नहीं देखी’.

चर्चिल ने मार्च 1899 को पामेला को भी एक पत्र लिखा था, कलकत्ते से. इसमें वे लिखते हैं, ‘मेरी प्रिय पामेला, मैं अब तक पूरी ज़िंदगी लंदन की लड़कियों में सबसे ख़ूबसूरत लड़की को ढूंढ़ता रहा. पर कोई मिली नहीं, जिसके लिए मैं अपना हर काम-धंधा भुला बैठूं. और फिर तभी तुम मिल गईं. मानो कोई ख़्वाब सच हो गया हो…’ फिर वे आगे इसी पत्र में पामेला को शादी का प्रस्ताव देते हैं, ‘मुझसे शादी कर लो. मैं वादा करता हूं, पूरी दुनिया जीतकर तुम्हारे क़दमों पर रख दूंगा’. और सच, चर्चिल ने अपना वादा निभाया जनाब. दूसरे विश्व युद्ध में हिटलर को हराकर ‘दुनिया जीती उन्होंने’. लेकिन उसे वे पामेला के क़दमों पर नहीं रख सके. क्योंकि पामेला की शादी हिन्दुस्तान के वायसराय रहे (1876 से 1880 तक) लॉर्ड एडवर्ड लिटन के लड़के विक्टर से हो गई. हालांकि चर्चिल और पामेला अच्छे दोस्त बने रहे आगे भी. उनके बीच ख़त-ओ-ख़िताबत भी जारी रही.

Winston Churchill

बहरहाल, ये तमाम बातें आज यूं याद हो आईं जनाब कि जिस हिन्दुस्तान ने चर्चिल को इतने कम वक़्त में इतना कुछ दिया, उसी मुल्क के लिए उनके ख़्याल ‘कमतरी के एहसास’ से भरे थे. मुमकिन है, इसी वज़ह से वह हिन्दुस्तान को आज़ाद मुल्क के तौर पर देखने के लिए भी राज़ी नहीं हो पाए, अपने पहले कार्यकाल के दौरान. हिन्दुस्तानियों को वे ‘फूहड़ और असभ्य’ समझते थे. पहली बार पामेला का ज़िक्र करते हुए उन्होंने जब मां को चिट्‌ठी लिखी तो उसमें लिखा भी, ‘हिन्दुस्तान मैं पैदल चलना ग़ुनाह है. यहां लोग जगह-जगह खुलेआम पान की पीक थूक दिया करते हैं. कभी-कभी फिरंगियों के ऊपर ही. इसीलिए मैं और पामेला हाथी पर बैठकर हैदराबाद की सैर के लिए जा रहे हैं’. इसी तरह, इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपने एक उल्लेख में बताते हैं कि विंस्टन चर्चिल मानते थे, ‘भारत न एक देश है या राष्ट्र है; यह एक महाद्वीप है, जिसमें कई देश बसे हुए हैं’.

चर्चिल के बारे में गुहा आगे बताते हैं, ‘वे मानते थे कि भारत में जातिगत और धार्मिक विभाजन बड़ी संख्या में है. यूरोप की तुलना में इसकी जड़ें वहां गहरी हैं. भारत में जैसी एकता और भावना व्याप्त है, वह पूरी तरह से केंद्रीकृत भारत की ब्रिटिश सरकार के कारण उपजी है… वे कहते थे- मेरे लिए यह कल्पना करना असंभव-सा लगता है कि किसी भी विषय पर कोई समझौता (आज़ादी के लिए) भारत के साथ समग्रता में हो सकता है. भारतीयों को वे ‘जानवर जैसे लोग’ कहा करते थे और उनके धर्म को पशुओं जैसा’. इतना ही नहीं, तारीख़ में तो ये भी दर्ज़ है कि दूसरे विश्व युद्ध में जब हिन्दुस्तानी फ़ौजी अंग्रेजों की तरफ़ से लड़ते हुए उनकी जीत के लिए जान दांव पर लगा रहे थे, तब भी चर्चिल का दिल हिन्दुस्तान के लिए नहीं पसीजा. ब्रिटेन के ही मीडिया हाउस बीबीसी की रिपोर्ट में ज़िक्र है, चर्चिल के दौर में बंगाल में पड़े भयानक अकाल का. साल 1942 की बात है.

बीबीसी की यह रिपोर्ट जुलाई 2020 की है. इसमें अकाल के दौर को आंखों से देखने वाले कुछ लोगों के बयान दर्ज़ हैं. वे तब कम उम्र के हुआ करते थे लेकिन उस दौर की उनकी यादें बहुत बड़ी हैं. वे बताते हैं कि तब ‘बंगाल में सड़कों पर पत्तों की तरह इंसानों और मवेशियों की लाशें बिछ गईं थीं. क़रीब 30 लाख लोग मारे गए. दूसरे विश्व युद्ध में ब्रिटिश फ़ौज के जितने सैनिकों की मौत हुई उससे भी छह गुना ज़्यादा. बावज़ूद इसके, हालात संभालने के लिए अंग्रेज सरकार ने वक़्त पर राहत नहीं भेजी. मदद नहीं की’. पर जनाब, कोई बात नहीं. वह वक़्त उनका था और ये हिन्दुस्तान, हिन्दुस्तानियों का है. फ़ख्र से सीना चौड़ा कीजिए. आज एक हिन्दुस्तानी (ऋषि सुनक) उन्हीं चर्चिल के ‘ग्रेट ब्रिटेन’ को मुश्किल दौर से बाहर निकालने के लिए आगे आया है. वह जो ब्रिटेन की धरती में पैदा तो हुआ पर अपनी हिन्दुस्तानियत नहीं छोड़ी, अपना ऋषित्व नहीं छोड़ा. चर्चिल होते तो उन्हें ये ‘वक़्त की लाठी की आवाज़’ सुनाई बस न देती. बल्कि हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानियत की ये ख़ासियतें दिखाई भी देतीं. फ़लक पर साफ़ और बड़े-बड़े लफ़्ज़ों में लिखी हुई.

आज के लिए बस इतना ही. ख़ुदा हाफ़िज़.

Tags: Hindi news, India britain, News18 Hindi Originals, Rishi Sunak

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