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CJI Suryakant on Language Row | CJI Suryakant News in Hindi- ‘हमें उस भाषा में बोलना चाहिए जो…’ हिंदी–तमिल विवाद पर CJI सूर्यकांत ने कही बड़ी बात, जज नागरत्ना बोलीं- हिंदी नहीं आती तो अलग कर दोगे?

नई दिल्ली: पूरे देश में भाषा को लेकर चल रही विवाद काफी पुरानी है. लेकिन इन दिनों एक बार फिर जोर पकड़ चुकी है. अब सुप्रीम कोर्ट के एक कार्यक्रम में बुधवार को भाषा को लेकर बहस देखनो के मिली है. मंच पर मौजूद भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) सूर्यकांत और जस्टिस बी.वी. नागरत्ना ने एक ही सवाल पर दो अलग-अलग अनुभव शेयर किए. दोनों ने मिलकर यह संदेश दिया कि भारत जैसे विविध देश में भाषा संवाद का पुल होनी चाहिए, दीवार नहीं. इस दौरान CJI सूर्यकांत ने स्पष्ट कहा, ‘हमें उसी भाषा में बोलना चाहिए, जो वादी सुनना चाहता है.’ वहीं जस्टिस नागरत्ना ने बताया कि दक्षिण भारत में लोग हिंदी न जानने पर अलग-थलग पड़ने का डर महसूस करते हैं.

यह पूरा मुद्दा तब शुरू हुआ जब एक महिला वकील ने पूछा कि ऐसा क्या किया जा रहा है ताकि स्थानीय भाषाओं में माहिर लेकिन अंग्रेजी न जानने वाले वकील कोर्ट में अपनी दलीलें रख सकें. सवाल जितना सरल था, जवाब उतना ही गहरा सामाजिक–संवैधानिक संवाद बन गया. दोनों जजों की ये बातें सोशल मीडिया पर वायरल हैं और इसे न्यायपालिका में भाषा के लोकतंत्रीकरण की दिशा में अहम संकेत माना जा रहा है.

क्या था पूरा मामला?

दिल्ली में आयोजित एक पैनल चर्चा ‘WE: Women Empowerment in Law’ के दौरान महिला वकील ने सवाल पूछा कि जो वकील अंग्रेजी में सहज नहीं हैं. उन्हें अदालतों में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, ऐसे में कुछ कदम उठाए जा रहे हैं या नहीं? यही प्रश्न भाषा, न्यायपालिका और नागरिकों के अनुभवों पर लंबी चर्चा का कारण बना.

CJI सूर्यकांत ने क्यों कहा: हमें हिचक खत्म करनी होगी?

CJI ने कहा कि वकीलों और जजों को किसी भी भाषा के उपयोग के प्रति संवेदनशील होना चाहिए. उनकी बात का मूल संदेश था न्याय ऐसी भाषा में होना चाहिए जिसे आम आदमी समझे.

CJI सूर्यकांत ने क्या-क्या कहा:

मैं कई बार कोर्ट में वकीलों और पक्षकारों से हिंदी में बात कर लेता हूं.
हमें यह झिझक खत्म करनी होगी कि अदालत में सिर्फ अंग्रेजी ही चलेगी.
यह केवल हिंदी या तमिल का मुद्दा नहीं, बल्कि स्थानीय बोली का भी मुद्दा है.

मैं कई बार कोर्ट में वकीलों और पक्षकारों से हिंदी में बात कर लेता हूं-CJI.

CJI के मुताबिक अदालतें आज भी अंग्रेजी पर बहुत निर्भर हैं क्योंकि प्रक्रिया और कानून अंग्रेजी में हैं. लेकिन जनता की भाषा में संवाद करने से न्याय प्रक्रिया और मानवीय और सहज बनती है.

जस्टिस बी.वी. नागरत्ना ने दक्षिण भारत का अनुभव कैसे साझा किया?

जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि दक्षिण भारत में कम से कम छह भाषाएं बोली जाती हैं और लोग अपने क्षेत्रीय भाषाई पहचान को लेकर बेहद सजग हैं. उनका कहना था, ‘हम अलग-थलग नहीं पड़ना चाहते क्योंकि हम हिंदी नहीं जानते. यह राजनीति नहीं, सामाजिक यथार्थ है.’

जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि दक्षिण भारतीय हिंदी न जानने पर अलग-थलग नहीं होना चाहते.

उन्होंने आगे कहा कि, तमिलनाडु में लोग न हिंदी बोलते हैं, न अंग्रेजी. ऐसे बातचीत में की बड़ी समस्या खड़ी हो जाती है. दक्षिण भारतीय राज्यों में अंग्रेजी ही कनेक्टिंग लैंग्वेज की तरह काम करती है उन्होंने कहा कि यह समझना जरूरी है कि भारत एक सबकॉन्टिनेंट है. यहां एक भाषा का प्रभुत्व हर जगह स्वाभाविक नहीं हो सकता.

क्या कहा थ्री-टियर जूडिशल सिस्टम की भाषा पर?

जस्टिस नागरत्ना ने बताया कि डिस्ट्रिक्ट कोर्ट्स में स्थानीय भाषा (कन्नड़, तमिल, तेलुगू आदि) प्रयोग होती है. हाई कोर्ट्स में प्रायः अंग्रेजी और सुप्रीम कोर्ट में अंग्रेजी आधिकारिक भाषा है. उन्होंने कहा कि अगर सभी राज्य अपनी भाषा पर जोर दें और एक-दूसरे की भाषा न समझें, तो जजों का ट्रांसफर और प्रशासनिक ढांचा कठिन हो जाएगा.

यह बहस क्यों बड़ी है?

यह बहस केवल हिंदी बनाम दक्षिण भारत नहीं है, बल्कि तीन महत्वपूर्ण सवाल उठाती है-

1. क्या न्याय जनता की भाषा में मिलना चाहिए?

अदालतों की जटिल अंग्रेजी भाषा गरीब और ग्रामीण नागरिकों के लिए दूरी पैदा करती है.

2. क्या भारतीय न्यायपालिका में द्विभाषी व्यवस्था को और मजबूत किया जा सकता है?

कई हाई कोर्ट अब आदेशों का स्थानीय भाषा में अनुवाद जारी कर चुके हैं.

3. क्या वकीलों को स्थानीय भाषाओं में ट्रेनिंग देने की जरूरत है?

ताकि अधिक लोग पेशे से न जुड़े रहने की समस्या का समाधान हो सके.

जस्टिस नागरत्ना ने बताया कि LLB के बाद उन्हें दिल्ली में प्रैक्टिस से बचने के लिए बेंगलुरु भेजा गया क्योंकि उनके पिता सुप्रीम कोर्ट जज थे. उन्होंने कहा, हर सफल महिला के पीछे उसका परिवार खड़ा होता है. उन्होंने वरिष्ठ वकीलों और अदालतों से आग्रह किया कि महिलाओं को केवल घरेलू या फैमिली मामलों में न बांधा जाए, बल्कि कठिन और चुनौतीपूर्ण केस भी दिए जाएं.

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