Climate Change: बढ़ता पलायन और विस्थापन, जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए सख्त कदमों की दरकार
इजरायल-हमास संघर्ष, यूक्रेन-रूस युद्ध और दक्षिण एशिया में ताइवान और चीन की तनातनी से दुनिया बेहद नाजुक हालातों से गुजर रही है. 16 अक्टूबर 1962 से शुरू होकर 13 दिनों तक चले क्यूबा मिसाइल संकट के बाद दुनिया कभी इतने खतरनाक दौर से नहीं गुजरी, भले ही शीतयुद्ध की स्थिति लंबे समय तक बनी रही. दूसरे विश्व युद्ध के बाद वर्ल्ड ऑर्डर में काफी बदलाव देखा गया, लेकिन एक बार फिर से हालात उसी और लौटते दिख रहे हैं. इस बार के हालात जंग से ज्यादा पर्यावरण संबंधी मुद्दों से जुड़े हुए हैं.
जलवायु परिवर्तन से बढ़ा मानवीय संकटपश्चिम एशिया और अफ्रीकी महाद्वीप के देश सूडान दोनों ही कुदरत का कहर झेल रहे हैं. बात करें सूडान की तो वहां हुई भारी बारिश ने तबाही का मंजर पैदा कर दिया. वहां विस्थापन और बीमारियों का दौर चरम पर है. साल 2023 से घरेलू मोर्चें पर हथियारबंद संघर्ष झेल रहा सूडान खाना, पानी, दवा और छत जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए संकट से जूझ रहा है. वहीं, पश्चिम एशियाई मुल्क फिलिस्तीन के गाजा में भी खतरनाक मौसमी हालात बने हुए हैं. 20 लाख से ज्यादा लोगों को तेज होते तापमान, साफ-सफाई की कमी और ताजे पानी के अभाव से जूझना पड़ रहा है. फिलिस्तीन और सूडान की भौगोलिक स्थिति भले अलग हो, पर दोनों ही मुल्क जलवायु परिवर्तन से जुड़े चरम हालातों का सामना कर रहे हैं. ये गंभीर मानवीय संकट मानवजनित गतिविधियों से ही पैदा हुआ है.
मौसमी बदलावों से विस्थापन और पलायन चरम परसंयुक्त राष्ट्र की ओर से जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संबंधी चरम स्थितियों के कारण दुनिया भर में पिछले साल 68 लाख 30 हजार लोग अपने ही मुल्क में बेघर हो गए. साथ ही 11 करोड़ 73 लाख लोगों को विस्थापन का दर्द झेलना पड़ा. जलवायु परिवर्तन से पैदा हुई जंगल की आग, सूखा, बाढ़, भूकंप और तेज आंधियों ने 20 लाख 30 हजार लोगों के अशियाने छीन लिए. प्राकृतिक आपदाओं के चलते विस्थापन के साथ आर्थिक सामाजिक अंतर भी बढ़ा है. साथ ही संसाधनों का दोहन बढ़ने के अलावा संघर्ष भी बढ़े हैं. इन्हीं समीकरणों के चलते उन देशों की सामुदायिक गतिविधियां अस्थिर हुई हैं, जहां का सामाजिक ताना-बाना पहले से ही कमजोर है.
नजरें अब COP29 परआने वाले सालों में मौसम के हालात चरम स्तर पर पहुंच जाएंगे, इसके चलते संसाधनों और सार्वजनिक प्रणालियों पर अतिरिक्त दबाव पड़ेगा. बड़े पैमाने पर गुजर बसर की स्थितियां बिगड़ेंगी. इसी क्रम में पेरिस समझौते के तहत जलवायु परिवर्तन के असर को रोकने के लिए सभी देशों की सरकारों के लिए पुख्ता कदम उठाना जरूरी होगा. तस्वीर का दूसरा रुख़ ये है कि कमजोर अर्थव्यवस्था वाले देशों और समुदायों की मदद करते हुए उन्हें भी इस मुहिम से जोड़ना अहम होगा.
इसकी मदद से उन्हें पलायन और विस्थापन का दर्द नहीं झेलना पड़ेगा. इस विषय पर फौरी दखल की दरकार को समझते हुए हाल ही में असवान फोरम संपन्न हुआ. इस मंच पर COP27 और COP28 के एजेंडे की समीक्षा कर जमीनी हालातों पर विस्तृत रिपोर्ट दुनिया के सामने रखी गयी. अब पर्यावरण चिंतकों की नजर अज़रबैजान में होने वाले COP29 पर टिकी है.
(राम अजोर : स्वतंत्र पत्रकार एवं समसमायिक मामलों के विश्लेषक हैं.)
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
Tags: Climate Change, United nations
FIRST PUBLISHED : August 24, 2024, 21:30 IST