कभी ‘नील’ के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता था यह घर, डच शख्स ने करवाया था तामीर, आज है वीरान

रिपोर्ट- हर्षित सिंह मालदा (पश्चिम बंगाल) से
एक डच युवक गंगा बेसिन के सहारे मानिकचार के माथुरपुर पहुंचता है. दौर था 1830 के बाद का. उसे यहां नील के व्यापार का आइडिया सूझा और उसने कारखाना लगा दिया. कम ही समय में इसकी तूती पूरी दुनिया में बोलने लगी और यहीं से इसका इंपोर्ट भी होने लगा. माथुरपुर नील के उत्पादन के लिए जाना जाने लगा. वह डच व्यक्ति (वर्तमान नीदरलैंड के निवासी डच कहलाते हैं) करीब 80 साल तक यहां रहा. खास बात है कि उसका इस्तेमाल किया हुआ सामान आज भी यहां मौजूद है. 3 साल पहले ही उसके परिवार के लोग यह सामान देखने यहां आए थे. हालांकि, कारखाना अब खंडहर हो गया है, लेकिन उसकी ऐतिहासिक पहचान अब भी कायम है.
बता दें कि ब्रिटिश लोगों ने भारत में नील के व्यापार की शुरुआत की थी. ज्यादातर नील घर अंग्रेजों ने ही निर्मित करवाए थे. हालांकि, कुछ नील घरों का निर्माण डचों ने भी करवाया. इसी में एक मनिकचार में माथुरपुर में है. आज भी यह घर उस दौर के इतिहास की गवाही दे रहा है है. मालदा जिले के मानिकचार ब्लॉक में गंगा घाट के किनारे मौजूद यह घर अब खंडहर भर ही रह गया है.
डच गंगा बेसिन के जरिए एक बार माथुरपुर आए थे और यहां से नील के व्यापार की शुरुआत की थी. उस दौरान माथुरपुर में बहुत अच्छी किस्म की नील का उत्पादन किया जाता था. यही से इसका निर्यात भी किया जाता था. इसलिए यहां पर एक बड़ा नील का कारखाना भी लगाया गया था. लेकिन आज इस ऐतिहासिक नील की इमारत की हालत जर्जर हो चुकी है. लापरवाही और नजरअंदाजी के चलते यह ऐतिहासिक इमारत अपनी चमक पूरी तरह से खो चुकी है.
पारेख परिवार करता है देखरेख
वर्तमान में इसकी देखरेख का जिम्मा राजस्थान के पारेख परिवार के पास है. वह भी भविष्य में शायद इसे छोड़ सकते हैं. हालांकि, इस इतिहास के ऐसे कई गवाह हैं जिनके पास इसको लेकर सबूत मौजूद हैं. लेकिन वर्तमान प्रशासन इस ऐतिहासिक धरोहर के रख रखाव की किसी तरह की कोई जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है. ब्रिटिश सर्वेयर ओ मैली के 1905 के गजेटियर में भी जिले के सबसे बड़े और नए नील घर के रूप में इसका उल्लेख किया गया है.
पूर्व ज़मींदार ने संभाल रखा है सामान
18वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में नील की खेती के इंचार्ज जेम्स हेनेसी थे. नील का कारखाना 1835 से 1914 तक जेम्स हेनेसी के अधिकार में था. आज भी उनका इस्तेमाल किया हुआ बिस्तर, फर्नीचर, डाइनिंग टेबल सब कुछ यूं ही अव्यवस्थित पड़ा हुआ है. पूर्व ज़मींदार बहादुर सिंह सिंघी, राजेंद्र सिंह सिंघी और प्रकाश सिह सिंघी (वर्तमान में निलकुठी के इंन्चार्च) पिछले 100 सालों से नील घर और इससे जुड़ी चीजों को संभाल कर रखे हुए हैं. जेम्स हेनेसी जिस फर्नीचर का इस्तेमाल करते थे उसे भी 100 सालों से बचा कर रखा हुआ है.
साल 2019 में न्यूजीलैंड से जेम्स हेनेसी के पौत्र अपने परिवार के साथ मथुरापुर में घर देखने आए थे और उन्होंने इस परिसर का दौरा भी किया था. वह घर देखकर हैरान थे. उस दौर के फर्नीचर की कारीगरी देखकर भी हतप्रभ थे. यह सब देखकर जेम्स की वर्तमान पीढ़ी ने सरकार से गुहार लगाई है कि नील कारखाने के तौर पर निर्मित इस ऐतिहासिक धरोहर को बचाया जाए.
चित्रकार और सत्रहवीं शताब्दी में नील बोने वाले हेनरी क्रेटन के मुताबिक, मालदा में स्थित मथुरापुर कारखाना सबसे छोटा कारखाना है जहां से बंगाल, बिहार और ओडिशा में व्यापार किया जाता था. इस जिले का महत्वपूर्ण आर्थिक इतिहास इसी घर के इर्द गिर्द घूमता है.
…तो बच सकता है मालदा के इतिहास का यह हिस्सा
मनिकचाक या मथुरापुर में रहने वाले बुजुर्ग बताते हैं कि आजादी के पहले के विभिन्न पोस्ट ऑफिस, सरकारी दफ्तर जिसमें भूमि राजस्व कार्यालय भी शामिल है. सबने शुरुआत में इसी इमारत से काम प्रारंभ किया था. स्थानीय लोगों का कहना है कि नील घर को पुनर्निर्माण की बेहद ज़रूरत है. यदि इसे ठीक से बनाया और संभाला जाए तो मालदा के इतिहास का एक बड़ा अध्याय बचा रहेगा.
इमारत के प्रभारी अजय पारेख कहते हैं, फिलहाल इस एस्टेट का मैं ही प्रभारी हूं, सिंघी परिवार अब निलकुठी का मालिक है. वे अब कोलकाता में रहते हैं. स्थानीय निवासी सोमेंदु रॉय कहते हैं, निलकुठी की खास बात यह है कि इसे डच ने स्थापित किया था. यह जगह नील की खेती के लिए मुफीद थी तो डच हेंजी साहब ने यहां पर नील की खेती के लिए एक नहर खुदवाई थी. राजेद्र सिंह सिंघी परिवार ने इस एस्टेट को खरीद लिया था. आजादी के बाद नील की खेती बंद हो गई और अब इसके प्रभारी अजय पारेख इस निलकुठी की देखरेख करते हैं. अगर सरकार इस जगह को बचाने के लिए ज़रूरी कदम उठाती है तो आने वाली पीढ़ी के लिए यह एक धरोहर होगी.
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FIRST PUBLISHED : May 03, 2022, 08:48 IST