कविता-स्त्रीमन
जया वैष्णव
जानती हूं मैं
लिखने के लिए पढऩा
बेहद जरूरी है
कितनी किताबों, शास्त्रों,
लेखकों को पढऩा होता है
तब जाकर लिखने का
एक नया अनुभव
होता है
मगर कटु सत्य यह
भी तो है कि
मुझ जैसी घरेलू औरतों
को आखिर वक्त ही
कहां मिलता है
अलमारी में पड़ी उन ढेरों
पुस्तकों को पढऩे का
बस झटक कर
और मन बहलाकर रख
देती है सोचते हुए कि
कभी वक्त मिलेगा तो
जरूर पढूंगी
फिर भी कुछ लिखने
का मन होता है तो
लिख ही लेती हूं
अपनी लेखनी से
क्योंकि चाहे ना
पढ़ी हो ढेरों पुस्तकें घरेलू औरतों ने
पर पढ़ा होता है
स्त्रीमन……
पढि़ए एक और कविता
हम रंग सृजन के खोज रहे
भूपेश प्रताप सिंह
हम रंग सृजन के खोज रहे
जो प्रेम भरे हर जीवन में
ऐसा कुछ उद्यम ढूंढ़ रहे
जो छिपा हुआ है अंतर्मन में।
देखो सरिता बहती जाती
इसकी गति में निर्मलता है
पावनता का यह मूलमंत्र
सबके आलस को हरती है।
सिंदूरी सूरज उगता है
मिलती धरती को किरण धूप
संध्या बेला में इसी रूप में
धीरे से छिप जाता है।
प्यारे सोचो अपने मन में
कब दिनकर अश्रु बहाता है
जीवन संध्या को सहकर भी
वह मंद-मंद मुस्काता है।
क्रम अनंत है जीवन का
संसार सदा ऐसे चलता
उदय-अस्त के मध्य पड़ा
हर जीव-जंतु है डग भरता।
जीवन पथ भी पगडंडी है
जो गुजर गए वे बना गए
उनके पदचिह्नों पर चलकर
कर्मठ ही इसको सजा रहे।
जब सूर्य अस्त हो जाता है
चन्द्रमा भी नभ में सोता है
आशा का दीप लिए कर में
तब भी जन जगता रहता है।
हे मानव! तू है लोकशक्ति
तेज दे रातों की चादर को
सदियों से उर प्यासा तेरा
श्रम सुधा से भर ले गागर को।