Hindi Kavita: मरता हूं प्रेम में पुनः पुनः जीता हूं, अगिनपाखी-सा स्वतः स्फूर्त- कुमार अनुपम
समकालीन साहित्यकारों में कुमार अनुपम बेहद प्रतिभाशाली कवि और लेखक हैं. किसी भी चमक-दमक और सुर्खियों से परे शांतमन से साहित्य सृजन में लगे रहते हैं. साहित्य समाज को उन्होंने एक से बढ़कर एक उत्कृष्ट रचनाएं दी हैं. अभी जिन रचनाओं पर वे काम कर रहे हैं, निश्चित ही हिंदी साहित्य जगत में वे अनूठे विषय हैं.
कवि, पत्रकार, चित्रकार, कला समीक्षक, लेखक और संपादक कुमार अनुपम का ताल्लुक उत्तर प्रदेश के बलरामपुर से है. उनका जन्म 7 मई, 1979 को हुआ था. विज्ञान विषय में स्नातक करने के बाद कुमार अनुपम ने हिंदी साहित्य में एमए किया. अपने अध्ययन काल में ही कुमार अनुपम ने पत्र-पत्रिकाओं का संपादन करना और साहित्य-कला संबंधी गतिविधियों में शिरकत करना शुरू कर दिया था. इसके अतिरिक्त, उन्होंने सर्व शिक्षा अभियान, यूनीसेफ, यूएनडीपी, आपदा प्रबंधन कार्यक्रम, सूचना एवं जन संपर्क विभाग (लखनऊ) के कार्यक्रमों में लोक विधा विशेषज्ञ एवं विजुलाइजर के रूप में सहभागिता की है. उन्होंने दूरदर्शन, लखनऊ के साहित्यिक कार्यक्रम ‘सरस्वती’ का कई वर्षों तक संयोजन और संचालन किया. वृत्तचित्र लेखन में भी उनकी गहरी रुचि है.
कुमार अनुपम की कविताओं का विभिन्न भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ है. साहित्य में विशिष्ठ योगदान के लिए कुमार अनुपम को ‘भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार’, ‘साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार’, ‘कविता समय सम्मान’, ‘विष्णु प्रभाकर साहित्य सम्मान’, ‘मीरा स्मृति सम्मान’, ‘हिंदी सेवा विशिष्ट सम्मान’, भारतीय वांग्मय पीठ कोलकाता से युगपुरुष ‘स्वामी विवेकानंद पत्रकार रत्न सारस्वत सम्मान’ (मानद उपाधि) और ‘अकबर इलाहाबादी सम्मान’ आदि कई पुरस्कार-सम्मान प्राप्त हुए हैं.
वर्तमान में आप एक राष्ट्रीय साहित्यिक संस्था में संपादक के पद पर अपनी सेवाएं दे रहे हैं. प्रस्तुत हैं कुमार अनुपम की चुनिंदा कविताएं-
महानगर में बुद्ध
अधरात कोई पीट रहा है
अपने कमरे का द्वार
एक कठोर ज़िद में उसकी बेचैनी
गुस्सा और खीझ
दस्तक में बदलकर
बरस रहे हैं द्वार पर
प्रहार की तरह
अकेलेपन की आत्मदया
और जर्जर कर रही कि
इस महानगर में उसकी पुकार
कोई नहीं सुन रहा न उसका परिवार
भीतर कोई
उसका है अपना एक
क्या इतने को
परिवार कहा जा सकता है
होता परिवार
तो माँ, पिता, चाचा, चाची,
बहन, भाई में से
कोई न कोई तो नींद में भी
अनक लेता घरवाले की आहट
और अपनी नींद की परवाह न कर
खोलकर द्वार
उसे बुला ही लेता भीतर
अपनी आत्मा की आंच में समेट लेता
किसी ऐसी ही स्मृति
के आवेग में वह काँप रहा होगा
शायद कि इस महानगर की रात में
जब सन्नाटे से अधिक शोर तरह-तरह का
उस एक अकेले की पुकार
को शरण नहीं
सुन रहा हूं उसकी विकलता-
मैं लिवा ही लाता अपने साथ लेकिन दिशाभ्रम में भटक रही है
जाने किस तरफ उसकी याचना
उसका कोई आस-पड़ोस नहीं
जो कुछ देर के लिए
उसे अपना ले
बढ़ रही होगी उस अजनबी में इसीलिए करुण आशंका
कि इस क्रूर महानगर में
जो है कोई द्वार के भीतर-
उसे कुछ हो न गया हो
अधिक विह्वल हो
खैरियत की दुआ से
द्वार पीटने लगता है और जोर से
लगातार
जैसे रेलगाड़ी गुज़र रही है घड़-घड़ करती
धुआं गांव की ओर चला गया है।
उसे महसूस हो रहा होगा
कि इस ठंड भरी अथाह रात में
एक टूटे हुए बाल की तरह वह खो गया है
जिसे जागना है जाग जाए
नहीं परवाह
जब एक वही नहीं सुन रहा है
अधीर प्रार्थना
जिसके लिए समर्पित समस्त साध
और प्यार
वह खटखटाता रहेगा द्वार
मेरी पत्नी
जैसे प्रतीक्षा की रोजमर्रा आदत
से ऊब कर इस महानगर में
हो गई नींद गोली का शिकार
हो न हो उसकी पत्नी भी..
उसकी गहरी सुकून भरी नींद में खलल
की गुस्ताखी ठीक नहीं
फिर भी
अपने ही द्वार पर एक बुद्ध
भिक्षुक की तरह खड़ा है
बेघरबार–
रातपाली से लौटा
वह थका हारा कामगार।
—
प्रेम प्रस्ताव
मैंने कहा कि देखो
इतना सीधा कहना मुझे नहीं आता।
तो उसने कहा कि क्या?
मैंने कहा कि जैसे मूर्ति दरअसल दृष्टि का मांसल रूपांतर है।
उसने कहा कि जैसे तुम जैसे मैं।
—
पंचर
अगर वह पंचर न बनवा रहा होता तो
इतना झुका न होता न इतना तत्त्वदर्शी।
उसने परात के पानी में उठते बुलबुले देखे
और मान गया कि ट्यूब में पंचर है।
उसने साँसों के बुलबुले नहीं देखे
अपने आसपास की हवा में।
—
धारणा
तब सैनिकों को जूते दिए गए नालवाले कि
वे चलें तो धरती पर धमक हो और वह कुछ दबे।
तब सैनिकों को वर्दी दी गई कि वे पहनें
तो औरों से कुछ अधिक चुस्त दिखें।
तब सैनिकों को बंदूकें दी गईं कि
वे मार्च करें तो लगे कि युद्ध की आशंका है शीतकाल में भी।
और अंत में सैनिकों को मनुष्य की देह दी गई
कि ऐसे दिखें कि मनुष्य की धारणा-उनका धर्म है।
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FIRST PUBLISHED : November 3, 2023, 17:08 IST