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Holi 2025: 500 सालों से निभाई जाती है यह खास परंपरा, होली के 1 महीने पहले होता है आयोजन, जाने क्या है होली का डांडा 

Agency: Rajasthan

Last Updated:February 13, 2025, 17:33 IST

Holi 2025: होली का खास त्योहार जीवन में उमंग भर देता है. राजस्थान के भीलवाड़ा में होली के अवसर पर 500 वर्षों से खास परंपरा निभाई जा रही है. यहां होली के अवसर पर डांडा रोपने की अनोखी परंपरा निभाई जाती है. होली के…और पढ़ेंX
शहर
शहर के इस जगह निभाई जाती है अनोखी परंपरा

हाइलाइट्स

500 सालों से रोपा जाता है भीलवाड़ा में होली का डांडाहोलिका दहन से 1 महीने पहले डांडा रोपने की परंपराभक्त प्रह्लाद और होलिका की कथा से जुड़ा है डांडा रोपण

भीलवाड़ा. हिंदू धर्म के प्रमुख त्योहारों में से एक होली का त्योहार बड़े उत्साह और आस्था के साथ मनाया जाता है. इस साल होलिका दहन 13 मार्च 2025 को और होली का पर्व 14 मार्च को मनाया जाएगा.  होलिका दहन से करीब 1 महीने पहले होली का डांडा रोपने की परंपरा है. जहां आज के आधुनिक दौर में यह परंपरा लुप्त होती जा रही है, वहीं भीलवाड़ा में, जो राजस्थान का आठवां सबसे बड़ा शहर है, यह परंपरा आज भी जीवित है और भीलवाड़ा के लोग इसे जीवित रखे हुए हैं.

आज भी जारी है डांडा रोपने की परंपराभीलवाड़ा में करीब 500 सालों से अधिक समय से शहर के जूनावास पुरानी कचहरी के पास होलिका ठाण पर होलिका का डांडा रोपने की परंपरा आज भी जारी है. इस परंपरा का निर्वाह करते हुए आज पूर्णिमा पर भीलवाड़ा शहर की मुख्य होली का रोपण नगर व्यास पंडित राजेंद्र और कमलेश व्यास के मंत्रोच्चारण के साथ किया गया. इसके साथ ही भीलवाड़ा शहर के निकट सांगानेर और आसींद के कटार गांव में भी वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ होली के डांडे का रोपण किया गया.

क्या होता है होली का डांडा पंडित कमलेश व्यास ने लोकल 18 को बताया कि होली का रंगों से भरा उत्सव केवल एक दिन की खुशियों तक सीमित नहीं है बल्कि इसकी तैयारियां एक महीने पहले से शुरू हो जाती हैं. इन्हीं तैयारियों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है होली का डांडा रोपने की परंपरा, जो कई स्थानों पर, विशेषकर शहरों में, धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है लेकिन भीलवाड़ा में आज भी इसे पूरी श्रद्धा और उत्साह के साथ निभाया जाता है.

डांडा होता है भक्त प्रह्लादपंडित कमलेश व्यास ने बताया कि पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यह परंपरा भक्त प्रह्लाद और उनकी बुआ होलिका की कथा से जुड़ी है. गांव या मोहल्ले के किसी प्रमुख स्थान, जैसे चौक, चौराहे या मंदिर परिसर में दो डांडे रोपे जाते हैं जो आमतौर पर ‘सेम के पौधे’ से बनाए जाते हैं. इन सेम के पौधों को ही डांडा कहते हैं. होलिका दहन के समय, प्रह्लाद के प्रतीक वाले डांडे को आग में जलने से बचा लिया जाता है जबकि होलिका के प्रतीक वाले डांडे को जलने दिया जाता है. यह घटना उस पौराणिक कथा को याद दिलाती है जिसमें होलिका आग में जलकर भस्म हो गई थी जबकि भगवान विष्णु की कृपा से प्रह्लाद सुरक्षित रहे थे.

पूरी तरह सजाया जाता है होली का डांडा पंडित कमलेश व्यास ने बताया कि डांडा रोपने के बाद, इसके चारों ओर गाय के गोबर से बने उपले और लकड़ियां सहेजकर रखी जाती हैं. इन उपलों को भरभोलिए कहा जाता है. इन्हें आकार देकर बड़े-बड़े छेद किए जाते हैं ताकि वे अच्छे से सूख जाएं. जब ये पूरी तरह तैयार हो जाते हैं, तो इनकी माला बनाकर होली की अग्नि में अर्पित किया जाता है. यह अनुष्ठान केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं बल्कि सामुदायिक एकता और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है जो लोगों को एकसाथ जोड़ती है और आपसी मेल-जोल और भाईचारे को बढ़ावा देती है.

भरभोलिए का है एक विशेष महत्व पंडित कमलेश व्यास ने बताया कि होलिका दहन के रिवाज में भरभोलिए का बहुत अधिक महत्व है. होली की परंपरा में उपयोग किए जाने वाले विशेष उपलों, जो कि गाय के गोबर से बने कंडे होते हैं और इनके बीच में छेद होता है, उसे भरभोलिए कहते हैं. इस छेद में मूंज की रस्सी डालकर माला बनाई जाती है. एक माला में सात भरभोलिए यानी कंडे होते हैं. होलिका दहन के धार्मिक अनुष्ठान में भरभोलिए को होलिका दहन के समय अग्नि में अर्पित किया जाता है. होलिका में आग लगाने से पहले इस भरभोलिए की माला से बहनें अपने भाइयों की नजर उतारती हैं. भरभोलिए को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घुमाकर आग में फेंक दिया जाता है. माना जाता है कि भरभोलिए बुरी शक्तियों को नष्ट करते हैं और परिवार में सुख-समृद्धि लाते हैं.


Location :

Bhilwara,Bhilwara,Rajasthan

First Published :

February 13, 2025, 16:54 IST

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बहुत खास है भीलवाड़ा की होली, 500 सालों से निभाई जाती है डांडा की परंपरा

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