भारत-पाकिस्तान का मुकाबला और गांव में क्रिकेट का फ्लैशबैक | – News in Hindi

मैं भी क्रिकेट का भी उतना ही बड़ा दीवाना रहा हूं जितना कि कोई आम नागरिक हो सकता है. अलबत्ता बीते कुछ सालों में क्रिकेट खेले जाने की अति (बरास्ता आईपीएल) और निर्मल खेल भावना को ‘उन्माद’ में बदल दिए जाने की प्रक्रिया में स्वतः ही इससे दूर होता चला गया हूं. अब इससे उतना ही रिश्ता शेष है, जितना कि एक खबरकर्मी का अपनी खबर से हो सकता है, या उस उलाहना से बचने भर का कि ‘इन्हें तो दुनिया की खबर ही नहीं.’
रविवार दोपहर जब मैं भोपाल से अपने गांव का सौ किलोमीटर लम्बा रास्ता तय कर रहा था तो सूनी सड़कें देखकर थोड़े आश्चर्य में तो था कि आखिर दीवाली के एक दिन पहले ये माजरा क्यों हैं ? तीन-चार घंटों का ताजा हाल जानने के लिए सोशल मीडिया को स्क्रॉल करते हुए समझ आया कि ‘ओह दरअसल भारत-पाकिस्तान का क्रिकेट मैच चल रहा है, और इस बात को समझते देर नहीं लगी कि दरअसल सड़कें खाली होने का असल कारण यह था. आज भी भारत-पाकिस्तान मैच का यह क्रेज होना क्रिकेट के लिए सुखद है.
यह भी सोचा ‘चलो शुक्र है कि मैच का फायदा अपने को यह हुआ कि सफर बहुत आराम से कट गया.’
गांव की हवा में पुराना दौर बरबस ही आँखों के सामने चला आया. अंदर का क्रिकेट प्रेमी जागा और दोपहर की नींद से जागे भाई से पूछ ही लिया ‘कोई व्यवस्था है क्या मैच देखने की? अब तो पता ही नहीं रहता कि जाने कब कौन सा मैच किस पैकेज में मिलता है, उन दिनों हर मैच दूरदर्शन पर ही दिख जाता था, होता अक्सर ये भी था कि एक ही घर के दहलान में किसी कलर टीवी के सामने लगभग पूरी टीम ही हुआ करती थी.
चैनलों पर लाइव विश्लेषण का आइडिया शायद ऐसे ही किसी सीन से उभरा होगा, क्योंकि तकरीबन हर गांव में ऐसे एक्सपर्ट हुआ करते थे जिन्हें डेटा भी याद होता था हर मैच के साथ वो खुद को बखूबी अपडेट भी करते रहते थे. कुछ ऐसे विश्लेषक भी थे जो कप्तान के अगले कदम का भी विश्लेषण कर देते थे और वह तकरीबन सच हुआ करता था. उस एक दिन वह घर किसी क्रिकेट स्टेडियम से कम नहीं होता था. बिजली भी कम ‘बेवफा’ नहीं होती थी, आते-जाते रहती थी और उसका विकल्प मोहल्ले में एक या दो घरों में पाया जाने वाला वह ‘रेडियो’ ही हुआ करता था जिस पर कमेंट्री सुनते हुए अपनी कल्पनाशक्ति का पूरा जोर ही लगा देते. अब सोचते हुए आश्चर्य होता है कि उस वक्त टेस्ट क्रिकेट मैच की लाइव कमेंट्री सुनने तक का विलक्षण धैर्य हममें हुआ करता था. भारत-पाकिस्तान के क्रिकेट मैच भी उस वक्त भी ठीक ऐसे ही हुआ करते थे.
तो भाई ने टीवी चालू कर दी और दोनों तरफ के सोफे पर हम पसर कर सालों पहले की तरह आज एक बार फिर मैच देख रहे थे. स्क्रीन पर फलैश हो रहा था 12 गेंद खेली जानी शेष हैं , हार्दिक पंडया और विराट कोहली क्रीज पर हैं. हम लोगों के लिए केवल दो ओवर का खेल शेष था. फिर जो कुछ हुआ उसे अलग से लिखने की जरूरत नहीं है उस पर क्रिकेट के विशेषज्ञों का ज्यादा अधिकार होगा, लेकिन एक क्रिकेटप्रेमी की तरह का आनंद सालों बाद आ रहा था. सबसे अच्छा तो यह लग रहा था कि विराट विराट की तरह खेल रहा था, आक्रामकता उनका मौलिक अंदाज है, उनका आत्मविश्वास और जीत के लिए संघर्ष उनके चेहरे पर दिखाई दे रहा था, हर पल लग रहा था कि वह जीतना चाहता है, लेकिन यह भी सच है कि हर समय हर कोई नहीं जीत सकता. हर समय जो हम जीत की अपेक्षा पालकर अपने अपने हीरोज को सिर चढ़ाते हैं या परफार्म नहीं करने पर अगले ही पल ट्रोल करने लग जाते हैं वह मुझे सबसे खराब और अनैतिक लगता है.
आपका सबसे चहेता खिलाड़ी भी किसी समय गलती कर सकता है, और उस वक्त आपका साथ उसकी सबसे बड़ी जरूरत हो सकती है, लेकिन हमारा बहुसंख्यक समाज ऐसा नहीं कर पाता, सोचिए हमेशा जीतते रहने की अपेक्षा के मानसिक दबाव तले वह कैसे रह पाते होंगे, कोई खिलाड़ी अपने कठिन दौर से कैसे निकलता होगा?
अच्छी बात यह थी कि हर गेंद, हर पल आज भारतीय क्रिकेट के साथ रहा. जीतने के लिए जितना जज्बा हमारे खिलाड़ियों ने दिखाया उससे ज्यादा गलतियां उन दो ओवरें में पाकिस्तानी खिलाड़ियों ने भी कीं. कोहली ने जितना दम दिखाया उतनी ही प्रशंसा अश्विन की करने का मन भी हो रहा है, जिस तरह से उन्होंने पांचवी बॉल को भांपा, परखा, जाने दिया, उसे छेड़ा नहीं वह एक इंटेलीजेंट क्रिकेट की निशानी है. आखिरी ओवर में पाकिस्तानी टीम इस इंटेलीजेंस को नहीं पकड़ पाई, ऐसे मौकों पर हमें महेन्द्रसिंह धोनी ही याद आते हैं जो इस तरह की परिस्थितियों में त्वरित रणनीतियों बनाने वाले सबसे चतुर कप्तान रहे हैं.
और अगली ही बॉल में एक बार फिर बहुत धैर्य से अश्विन ने कोहली की मेहनत को बिलकुल भी जाया नहीं जाने दिया. भारतीय क्रिकेट टीम की जीत तय हुई. एक अदभुत मैच. दो ओवरों में सांसें थम जाने वाला रोमांच. हम उम्मीद करते हैं कि लोग कोहली की इस पारी को लंबे समय तक याद रखेंगे. उनका खेल अभी बाकी है, लोग उन्हें बाहर जाने की सलाह नहीं देंगे, विरोधी टीम के किसी खिलाड़ी की जो उन्हें अपना आदर्श मानता हो, गले लगाने पर उनकी बेतरह आलोचना नहीं करेंगे.
मैं अफसोस कर रहा था कि क्यों नहीं, आज का मैच सालों पहले की तरह एक ही दालान में बैठकर कई सारे मित्रों के साथ नहीं देख रहा था? क्या अब भी पहले की तरह गांव में ऐसे मैच देखे जाते हैं, शायद नहीं, परिवार ही एकल नहीं हुए ऐसी सामूहिकताएं भी अब नदारद हो गई हैं. शहरों में देखते हैं कि जश्न कम और उन्माद ज्यादा हो जाता है, खासकर ऐसे मैचों में. खेलों का बचे रहना बहुत जरूरी है, यह बच्चों, युवाओं की ही जरुरत नहीं है उन बुजुर्गों के लिए भी अपने मानसिक अवसाद को कम करने का माध्यम है जो किन्हीं वजहों से बिस्तर से हिल भी नहीं पाते, लेकिन खेल तब भी उसी शिद्दत से देखते हैं. उम्मीद करते हैं कि देश और दुनिया में खेल बढ़े, तोड़ने में नहीं मानवता को जोड़ने में अपनी भूमिका तय करे.

राकेश कुमार मालवीयवरिष्ठ पत्रकार
20 साल से सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव, शोध, लेखन और संपादन. कई फैलोशिप पर कार्य किया है. खेती-किसानी, बच्चों, विकास, पर्यावरण और ग्रामीण समाज के विषयों में खास रुचि.
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