News18 Special: कागज के फूल- थिएटर्स में रही थी फ्लॉप, पर आज मानी जाती है सिनेमेटिक टेक्स्ट बुक

हिंदी फिल्मों की दुनिया बड़ी अजीब होती है. एकदम मसाला फिल्में दर्शकों को इतनी पसंद आती हैं कि वो इंस्टेंट हिट बन जाती हैं, जैसे हाल ही में रिलीज़ फिल्म “पुष्पा”(Pushpa). तेलुगु भाषा में बनी और फिर तमिल, कन्नड़, मलयालम और हिंदी में डब की गयी. हर भाषा में फिल्म को दर्शकों ने पसंद किया और इंटरनेट पर फिल्म के मीम्स, चुनाव के समय किये वादों की तरह बरसने लगे. इस फिल्म के गानों पर रील्स यानी पुराने जमाने का रिकॉर्ड एक्शन, जाली वोटों की तरह भर भर कर डाले जाने लगे. संक्षेप में कहें तो फिल्म को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ वो भी रिकॉर्ड तोड़.
लेकिन कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जो पहली बार में तो दर्शक नकार देते हैं फिर जैसे जैसे देखने वालों की परिपक्वता बदलती है वो ऐसी ही फिल्मों के दीवाने हो जाते हैं. पहली रिलीज में तो जमानत जब्त हो गयी लेकिन कुछ सालों बाद एहसास हुआ कि हमने उस समय गलत वोटिंग कर दी. भारतीय सिनेमा के इतिहास के पन्नों से हम कुछ ऐसी ही फिल्मों की कहानी आपके लिए एक सीरीज के रूप में ला रहे हैं.
इस सीरीज में हम कुछ ऐसी हिंदी फिल्मों की बात करेंगे जो पहले अपनी पहचान बनाने के लिए, दर्शकों को रिझाने में नाकामयाब रहीं, लेकिन समय के साथ साथ उनका मूल्यांकन किसी क्रिप्टो-करेंसी की तरह बढ़ता ही चला गया. ऐसी फिल्में जो अपनी रिलीज के समय फ्लॉप साबित हुईं लेकिन आज इन फिल्मों को हिंदी सिनेमा की झांकी तैयारी करने में सबसे आगे रखा जाता है.

हिंंदी सिनेमा के सुनहरे पन्नों से हम आपके लिए कुछ कहानियां लाए हैं.
इस सीरीज की पहली फिल्म है…
कागज के फूल (1959)
भारत की पहली सिनेमास्कोप फिल्म ‘कागज़ के फूल’, प्रसिद्ध लेखक अबरार अल्वी की कलम से बही थी. कहा जाता है कि फिल्म के निर्देशक गुरुदत्त ने अपनी जिन्दगी के कुछ जख्म इस फिल्म में पिरोये हैं. दरअसल ये बात कुछ हद तक सच लगती भी है क्योंकि गुरुदत्त ने इस फिल्म में नायक की भूमिका अदा की थी और वो उन दिनों अपनी निजी जिन्दगी के दर्द से बहुत ज्यादा प्रभावित भी थे.
आज सिनेमेटिक टेक्स्ट बुक मानी जाती है ये फिल्म
महान नर्तक श्री उदय शंकर के अल्मोड़ा स्थित स्कूल से नृत्य की शिक्षा ग्रहण करने के बाद गुरुदत्त ने पुणे में प्रभात फिल्म कंपनी से अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत की थी. एक दिन उनके अनन्य मित्र देव आनंद ने उन्हें अपनी कंपनी नवकेतन फिल्म्स में बतौर निर्देशक काम करने का न्यौता दिया और गुरुदत्त की निर्देशक के तौर गाडी चल पड़ी. धीरे धीरे गुरुदत्त सफल होने लगे और खुद प्रोड्यूसर बन गए. उनकी फिल्म प्यासा बहुत बड़ी हिट हुई. इसके बाद उन्होंने ‘कागज़ के फूल’ बनायी. जब यह फिल्म रिलीज हुई तो दर्शकों को इसे पसंद करने में बहुत कठिनाई हुई. गुरुदत्त कागज के फूल पर पानी की तरह पैसा बहा चुके थे. लेकिन फिल्म नहीं चली. गुरुदत्त इस वजह से टूट गए थे, बेतहाशा शराब पीने लगे थे, डिप्रेशन भी चरम पर था. कुछ साल जैसे तैसे निकले और फिर गुरुदत्त ने आत्महत्या कर ली. गुरुदत्त के जाने के बाद उनका सही मूल्यांकन हो पाया और ‘कागज के फूल’ आज पूरी दुनिया में एक सिनेमेटिक टेक्स्ट बुक की तरह देखी जाती है. गुरुदत्त को अपना गुरु मानने वाले कई एकलव्य निर्देशक, कागज के फूल को समय से आगे का सिनेमा कहते हैं और हर बार फिल्म देख कर कुछ नया सीखते हैं.

गुरू दत्त ने फिल्म ‘कागज के फूल’ पर पानी की तरह पैसा बहाया था.
गुरूदत्त मसाला फिल्में बनाते पर बैचेन रहते
कुछ लोग खुश होने से घबराते हैं, और इस डर की वजह उनकी अतुलनीय प्रतिभा का सही आकलन न होना और अपनी प्रतिभा के साथ कुछ और बेहतर करने की उनकी महत्वाकांक्षा होती है. गुरुदत्त खुश होने से घबराते थे और उन्हें अपनी ही प्रतिभा से डर भी लगता था. व्यक्तिपूजा करने वाले गुरुदत्त के फैंस अब गुरुदत्त को फिल्म मेकिंग का भगवान् मानते हैं लेकिन सच ये है कि गुरुदत्त जमाने के सामने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन तो करना चाहते थे लेकिन उसके लिए वो चाहते थे कि उनके समकालीन उनकी प्रतिभा को पहचानें और उनका यथोचित सम्मान करें. एक निर्देशक के तौर पर गुरुदत्त कभी मसाला फिल्में बनाते थे, लेकिन एक कलाकार के तौर पर वो बेचैन रहा करते थे क्योंकि वो हमेशा ऐसा सिनेमा बनाना चाहते थे जिसे लोग एक टेक्स्ट बुक की तरह देखें. उनकी फिल्म ‘प्यासा’ उनकी बेचैनी का पहला उदाहरण थी और ‘कागज के फूल’ भी एक हारे हुए जीनियस की कहानी थी. गुरुदत्त को ऐसी कहानियां बेहद पसंद आती थीं जिसमें हीरो को कोई समझता नहीं है और जब कोई समझता है तो हीरो उसे दूर भगा देता है और आखिर में हीरो गुमनाम हो कर कहीं गुम हो जाता है.
गुरुदत्त अपने करियर के शुरूआती दौर में उस समय की जानीमानी गायिका गीता रॉय से प्रेम कर बैठे थे और उन्होंने शादी भी कर ली थी. गुरुदत्त के संघर्ष के दिन थे और गीता अत्यंत सफल थीं. हालांकि गुरुदत्त के परिजनों ने कभी भी गुरुदत्त और गीता के बीच किसी तरह के मतभेद की बात स्वीकार नहीं की लेकिन ये बात सच है कि गुरुदत्त को दुःख और अवसाद से प्रेम था, और वो हमेशा से चाहते थे कि उनकी प्रतिभा की तारीफ हो. गीता और गुरुदत्त में सामान्य पति पत्नी वाले मतभेद थे और कभी भी अलग होने की कोई बात नहीं थी. इस बीच गुरुदत्त की मुलाक़ात वहीदा रहमान से हुई और वहीदा के तेज़ तर्रार व्यक्तित्व और तीखे नैन नक्श से प्रभावित गुरुदत्त ने उन्हें अपनी फिल्मों में काम देना शुरू किया. यहां से फ़िल्मी दुनिया में गॉसिप ने जन्म लिया और बात का बतंगड़ बनता चला गया. वहीदा रहमान ने हमेशा गुरुदत्त को अपना शुभचिंतक और मार्गदर्शक मान. हिंदी फिल्मों में वहीदा का आना भी गुरुदत्त की वजह से ही हुआ था और उनकी अभिनय प्रतिभा की वजह से उनकी हर फिल्म में होती ही थीं. प्यासा के बाद कागज के फूल के समय भी वहीदा को हीरोइन का अत्यंत महत्वपूर्ण रोल मिला था. इस फिल्म के बनते समय गुरुदत्त काम में पूरी तरह डूब चुके थे और इस फिल्म को एक मास्टर पीस बनाने के लिए पानी की तरह पैसा बहा रहे थे. वहीदा रहमान ने बाद में बताया था कि जूडी गार्लंड की फिल्म “अ स्टार इज़ बॉर्न” से प्रभावित हो कर इस फिल्म की रचना की गयी थी. मुंबई फिल्म इंडस्ट्री के रंग ढंग और चढ़ते सूरज को सलामी देने की आदत को गुरुदत्त ने बहुत ही कड़वे तरीके से प्रस्तुत कर दिया था.

भारत की पहली सिनेमास्कोप फिल्म ‘कागज़ के फूल’ अबरार अल्वी ने लिखी थी.
फिल्म फ्लॉप होने से गुरुदत्त पूरी तरह से खत्म हो गए. उनका स्टूडियो भी बिकने की कगार पर आ गया था. गुरुदत्त इतने टूट गए थे कि उन्होंने इसके बाद कोई फिल्म बनायी ही नहीं. फिल्म समीक्षकों ने इस फिल्म को गालियां देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. लेकिन कहते हैं न कि घूरे के भी दिन फिरते हैं और फिर कागज़ के फूल तो हीरा थी. कई सालों बाद इस वर्ल्ड सिनेमा में कल्ट क्लासिक का दर्जा दिया गया. कई फिल्म स्कूल्ज में निर्देशन और सिनेमेटोग्राफी सिखाने के लिए इस फिल्म की पढाई करने के लिए कहा जाता है. एक-एक शॉट में गुरुदत्त और उनके कैमरामैन वीके मूर्ति घंटो बहस करते और फिर किसी नतीजे पर पहुंचते. एक शॉट के लिए तो गुरुदत्त ने मेहबूब स्टूडियो के मालिक ख्यातनाम निर्देशक महबूब खान साहब से इल्तिजा कर के स्टूडियो की खिड़की तुड़वा दी और वहां ऊंचाई से नीचे आने तक का शॉट लिया जो आज अपने आप में एक मिसाल है. इस फिल्म ने गुरुदत्त का सितारा तकरीबन बुझा ही दिया था लेकिन समय ने गुरुदत्त को वो ऊंचाइयां देने की ठान ली थी जिसके की वो अधिकारी थे. बरसों बाद ही सही, कागज के फूल, हिंदी सिनेमा का वो हस्ताक्षर है जिसको पाने के लिए मीलों लम्बी कतार है और मिला किसी को नहीं है.
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