poem by Bharat Doshi | कविता-शहर की औरत

कविता
जयपुर
Published: February 11, 2022 11:31:16 pm
भारत दोसी मुंह-अंधेरे
उठती है शहर की औरत
उनींदे, कुढ़ते, खीझते
बनाती है बच्चों का टिफिन
पहनाती है स्कूल यूनीफॉर्म
करते हाय- हाय,
बैठाती है ऑटो में
करते बाय-बाय ,
पति को उठाती है
भोजन बनाती है
झाड़ू लगाती है
पौंछा करती है
भागम -भाग में करती है शृंगार
टिफिन भरकर जाती है स्कूल -ऑफिस
वहीं मिलता है कुछ आराम
संध्या को घर लौटते ही
फिर शुरू हो जाता है चौका-बरतन
रात तक हो जाती है निढाल
देखती है टीवी, चलाती मोबाइल नेट
सभी कुछ करती है शहर की औरत
कभी-कभी मुस्कराती भी शहर की औरत ।

कविता-शहर की औरत
बारात
गांव में पहली बार
मुकर गई कोई बेटी
मण्डप में बैठने से
और लौटना पड़ा
बिना दुल्हन के
बारात को
गली -मोहल्ले में
जितनी आंखें
उतने सवाल
जितने होंठ
उतनी बातें
कि आखिर कैसे लौट आई
बिना दुल्हन लिए बारात
पर कौन जाने कि
गांव में पहली बार
लिया था
किसी बेटी ने
अपने भविष्य का फैसला
अपने हाथ
तभी तो लौटी थी
बिना दुल्हन के बारात।।
बेटी
कंधे पर टंगा पर्स
खूंटी टांग
वह आ बैठी मां के पास
दिन के हाल चाल
पूछकर फिर जा लगी
रसोई में और
चाय बना लाई दोनों के लिए
चाय सुड़कती मां बोली
काश तू बेटा होती
शाम को बेटी के हाथ से
दलिया खाती
मां फिर कहती
काश तू बेटा होती
बेटी मुस्कुरा दी
माथा गूंथती
बेटी के हाथों को
सहलाती,चूमती
वह फिर कहती
काश तू बेटा होती
गीता के श्लोक
सुनाती बेटी को
मां फिर कहती
काश तू बेटा होती
बेटी बोली-
मां! मैं बेटा होती
तो शायद तू
कहीं और होती
मां के मुंह से शब्द उछले
हां शायद वृद्वाश्रम।
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