Rajasthan

poem by Dinesh | कविता-छोड़ा हुआ मकान

कविता

जयपुर

Published: April 16, 2022 03:15:20 pm

दिनेश विजयवर्गीय हरी-भरी पर्वत शृंखलाओं से घिरा था
मेरा पुराना शहर
उसी की एक तंग गली में था
जाली झारोखे वाला वाला हवेली नुमा मकान
पिछले चालीस वर्षों से
पच्चास रुपए महीने से किराए पर रहता था
चढ़ाई पर बने मकान तक पहुंचने में
सांस लगती थी फूलने।
बहुत उपयोगी था झारोखा
जहां बैठ, रोजाना पढ़ता था अखबार
फुर्सत के समय बैठ जाता था वहां
तो लगजाता था मन
गली में बनी रहती थी चहल-पहल
खेलते बच्चों की उत्साह भरी आवाजों से
लोगों की आवा जाही से
आवाज लगाकर ठेलों पर सामान बेचने वालों से
सुबह-शाम
हैण्डपंप पर पानी भरती औरतों के
खनखनाते बश्र्रनों से।
गर्मी की दोपहरी में
तंग गली के आमने सामने वाले घरों के
दरवाजों पर बैठ चाय पीपी गेहूं बीनती बतियाती औरतें।
नये पोस्टमैन के पूछने पर
बता देता थी
गली के मकान में आये नये व्यक्ति का पता

कविता-छोड़ा हुआ मकान

कविता-छोड़ा हुआ मकान

किसी घर में कोई दु:ख की कराहट होती तो
पहुंच जाते थे आस-पास के लोग
मेल मिलाप व भाईचारे से भरी दुनिया
जी रही थी गली में।
लेकिन यहां शहर की दूर बसी कॉलोनी के
आलीशान मकानों में रह रहे लोग
परिचित नहीं एक दूसरे से
बने रहते है अनजान
घर की चार दीवारी में रहते है बंद
जानता नहीं यहां कौन शर्मा जी कौन वर्मा जी
थोड़ा भी मेल मिलाप नहीं है लोगों में
सब जीरहे स्वांत सुखाय वाला
आत्म केन्द्रित जीवन
यहां बच्चे दिखलाई नहीं देते खेलते
टीवी व स्मार्ट फोन से जुड़ी है उनकी दुनिया
बदली हुई है उनकी जीवन शैली
घुटा-घुटा था यहां का आधुनिक जीवन
चुप्पी साधे जी रहे है यहां के लोग।
आज भी बहुत याद आता है
पुराने शहर का छोड़ा हुआ
झरोखे वाला मकान
जहां से नजर आती थी
लोगों में अपने पन की दुनिया।

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