Rajasthan

Bharatpur: कभी बयाना के नील की ईरान से लेकर इटली तक थी डिमांड, इस वजह से कहते थे ‘नीला सोना’

रिपोर्ट-ललितेश कुशवाहा

भरतपुर. बाणासुर की नगर के नाम से जाने जाना बाला बयाना मुगल काल में नील (Neel) की खेती के लिए प्रसिद्ध था. दरअसल इस क्षेत्र में सबसे उत्तम किस्म के नील का उत्पादन होता था. जबकि यहां के नील का भाव अन्य क्षेत्र की अपेक्षा दुगना होने के साथ साथ देश-विदेश में डिमांड में रहता था. जबकि नील की मांग अधिक होने के कारण यहां के किसानों की आर्थिक स्थिति भी अच्छी थी, तो काफी लोगों को रोजगार भी मिल रहा था. हालांकि अब नील की खेती ना के बराबर हो रही है.

यही नहीं, अबुल फजल के द्वारा लिखित पुस्तक ‘आइन ए अकबरी’ के अनुसार राजस्थान के भरतपुर जिले का बयाना मुगलकाल में नील की खेती के लिए मशहू था. सर्वोत्तम किस्म के नील का उत्पादन बयाना और दोयम किस्म के नील का उत्पादन दोआब, खुर्जा एवं कोइल में हुआ करता था. बयाना की नील ईरान से लेकर इटली तक भेजी जाती थी.

बावड़ी के पानी से होती थी सिंचाई
बयाना की ग्राम पंचायत ब्रह्मबाद के निकट स्थित गांव नारौली में नील की खेती अधिक मात्रा में की जाती थी. नील की खेती की अच्छी पैदावार के कारण आस पास के गांव के किसान भी इस खेती को अधिक महत्त्व देने लगे. मुगल काल में यह क्षेत्र नील की खेती का गढ़ बन चुका था. अधिक पैदावार के चलते यहां के किसानों की आर्थिक स्थिति मजबूत होने के साथ साथ रोजगार के साधन उपलब्ध थे. इस खेती की सिंचाई के लिए पहले साधन कम थे. इसकी सिंचाई जंहागीर की मां मरियम उज्जवानी के द्वारा गांव ब्रह्मबाद में बनवाई गई बावड़ी के आधे पानी से होती थी.

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बयाना में अब नील की खेती काफी कम होती है.

कैसे बनता था नील…
नील के पौधे से फूल को तोड़कर सुखाया जाता था. अच्छी तरह सूखने के बाद इसमें चूना, गुड कई अन्‍य पदार्थ मिलाने के बाद अच्छी तरह से पीसकर पाउडर बनाया जाता है. इसके बाद बिक्री के लिए बाहर बाजार में भेज दिया जाता है. स्थानीय बाजार में भी मंडी लगती थी और यहां दूर दराज से व्यापारी नील खरीदने के लिए आते थे. बयाना के नील को बाहर तुर्की, अफगान, ईरान, इटली देशों में भेजा जाता था. जबकि अच्छी किस्म का नील होने के कारण ईरानी और अफगानी इसे नीला सोना कहते थे.

नील की खेती के वर्तमान हालात
वर्तमान हालात की बात की जाए तो बयाना क्षेत्र के कुछ ही भागों में नील की खेती होती है.किसान कृष्ण कुमार गहलोत ने बताया कि किसानों ने इस फसल की पैदावार करना इसलिए बंद कर दी कि इस फसल के बाद दूसरी फसल पैदा नहीं कर सकते हैं. स्थानीय किसानों को अन्य फसल की खेती करने में समस्या का सामना करना पड़ता है. नील की खेती नहीं करने की दूसरी वजह यह भी है इसका उपयोग कम होने लगा था और किसानों के मेहनत के हिसाब से कीमत नही मिल पा रही थी. किसानों के द्वारा नील की खेती उन्हीं भागों में की जाती है जहां अन्य कोई फसल पैदा नहीं होती है.

इस बीमारी में आता है काम
नील नगदी फसल होने के साथ साथ यह एक औषधी का भी कार्य करती है. इसका उपयोग नपुंशकता, बाल, पेट, सिर दर्द, पाइल्स, मूत्र रोग, लीवर ,घाव आदि रोगों में लाभदायक है. हालांकि नील का उपयोग कम होने के कारण इसकी खेती पर भी फर्क पड़ा है. यही वजह है कि जो बयाना मुगलकाल में नील की खेती के लिए प्रसिद्ध था, लेकिन अब नील की खेती के बजाय एक दो पौधे ही देखें जाते हैं.

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