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प्‍यार के पथ की थकन भी तो मधुर है, प्‍यार के पल में जलन भी तो मधुर है : हरिवंश राय बच्चन

“मैं जग जीवन का भार लिए फिरता हूं… फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूं…” ये पंक्तियां हैं साहित्य के विद्वान और हिंदी कविता के प्राण कवि-गीतकार हरिवंश राय बच्चन की. बच्चन जी का व्यक्तित्व आधुनिक हिंदी कविता का ऐसा विशिष्ट व्यक्तित्व है, जो विरोध में भी मैत्री और प्रेम की बात कहते हैं, जो ‘जग-जीवन का भार’ अपने ऊपर लेकर बदले में प्यार की बात करते हैं… ‘हाला और प्याला’ के प्रतीकों के माध्यम से युग की निराशा को मस्ती में रुपांतरित करने का साहस रखते हैं. बच्चन जी की कविताओं को पढ़ना भावनाओं के सहज, मधुर अंतस्पर्शी इंद्रलोक के सूक्ष्म सौंदर्य वैभव में विचरण करने जैसा है.

बच्चन जी सिर्फ कविताएं लिखते नहीं थे, बल्कि उन्हें जीते भी थे. वास्तव में वह जन-मन को सुरभित करने वाले जीवन संघर्ष के आत्मनिष्ठ कवि हैं. कितना खूबसूरत है, ऐसा सोच पाना भी कि कवि अपनी रचनाओं के माध्यम से सदियों-सदियों तक जीवित रहता है और अपने पाठकों के मन में अनंत-जीवी हो उठता है. साहित्य प्रेमियों के दिलों में बच्चन जी उस शीतल चंद्रमा की भांति चमकते हैं जिसकी चमक स्थायी न रहकर उत्तरोत्तर बढ़ती गई है.

बच्चन जी ने कविताओं के साथ-साथ कहानियां भी लिखीं, ये शुरुआती दिनों की बात है. वे स्वयं कहानीकार ही बनना चाहते थे, जैसा कि उनके समय के लेखक-मित्रों से सुनने और जानने में आता है, लेकिन हिंदुस्तान अकादमी ने उनके कहानी-संग्रह को स्वीकार नहीं किया तो कविता की दिशा में चल पड़े. 1932 में पहले कविता-संग्रह ‘तेरा हार’ के प्रकाशन से उन्हें प्रोत्साहन मिला और फिर कलम की स्याही कभी खतम नहीं हुई, कलम चलती ही रही. वह कवि सम्मेलनों की जान हुआ करते थे, मंच पर उनके आते ही पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठता था. ऐसा शायद ही कोई व्यक्ति होगा, जिसने उनकी कविताओं को पसंद नहीं किया हो, जिन्होंने आलोचना की, एकांत में उन्होंने भी उनकी कविताओं को सराहा.

महान कवि हरिवंश राय बच्चन का नाम जब भी ज़ेहन में आता है, कवि कहने से पहले अपने-आप ही ‘प्रिय-कवि’ लिख जाता है. उनके संघर्षों और चुनौतियों की अपनी अलग कहानी है. सूर्य की रोशनी को भी फीका कर देने वाली उनकी कविताएं चंदन की तरह सदा महकती रहेंगी. उनके विषय में कितना भी लिख दिया जाए कम ही होगा शायद.

प्रस्तुत हैं प्रेम, मिलन और विरह पर बच्चन जी की पांच चुनिंदा कविताएं, जिनके शब्दों की खूबसूरती आज भी हल्की नहीं पड़ी है, बल्कि आने वाले वर्षों में इनका रंग और उभर कर छाएगा….

1)
प्‍यार के पल में जलन भी तो मधुर है
जानता हूं दूर है नगरी प्रिया की,
पर परीक्षा एक दिन होनी हिया की,
प्‍यार के पथ की थकन भी तो मधुर है;
प्‍यार के पल में जलन भी तो मधुर है.

आग ने मानी न बाधा शैल-वन की,
गल रही भुजपाश में दीवार तन की,
प्‍यार के दर पर दहन भी तो मधुर है;
प्‍यार के पल में जलन भी तो मधुर है.

सांस में उत्‍तप्‍त आंधी चल रही है,
किंतु मुझको आज मलयानिल यही है,
प्‍यार के शर की शरण भी तो मधुर है;
प्‍यार के पल में जलन भी तो मधुर है.

तृप्‍त क्‍या होगी उधर के रस कणों से,
खींच लो तुम प्राण ही इन चुंबनों से,
प्‍यार के क्षण में मरण भी तो मधुर है;
प्‍यार के पल में जलन भी तो मधुर है.

2)
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो
मैं जगत के ताप से डरता नहीं अब,
मैं समय के शाप से डरता नहीं अब,
आज कुंतल छांह मुझपर तुम किए हो;
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो.

रात मेरी, रात का श्रृंगार मेरा,
आज आधे विश्‍व से अभिसार मेरा,
तुम मुझे अधिकार अधरों पर दिए हो;
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो.

वह सुरा के रूप मोहे से भला क्‍या,
वह सुधा के स्‍वाद से जाए छला क्‍या,
जो तुम्‍हारे होंठ का मधु विष पिए हो;
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो.

मृत-सजीवन था तुम्‍हारा तो परस ही,
पा गया मैं बाहु का बंधन सरस भी,
मैं अमर अब, मत कहो केवल जिए हो;
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो.

3)
प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ
अरमानों की एक निशा में
होती हैं कै घड़ियां,
आग दबा रक्खी है मैंने
जो छूटीं फुलझरियां,
मेरी सीमित भाग्य परिधि को
और करो मत छोटी,
प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ.

अधर पुटों में बंद अभी तक
थी अधरों की वाणी,
‘हां-ना’ से मुखरित हो पाई
किसकी प्रणय कहानी,
सिर्फ भूमिका थी जो कुछ
संकोच भरे पल बोले,
प्रिय, शेष बहुत है बात अभी मत जाओ;

प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ.

शिथिल पड़ी है नभ की बांहों
में रजनी की काया,
चांद चांदनी की मदिरा में
है डूबा, भरमाया,
अलि अब तक भुले-भुले-से
रस-भीनी गलियों में,
प्रिय, मौन खड़े जलजात अभी मत जाओ;

प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ.

रात बुझाएगी सच-सपने
की अनबूझ पहेली,
किसी तरह दिन बहलाता है
सबके प्राण, सहेली,
तारों के झंपने तक अपने
मन को दृढ़ कर लूंगा,
प्रिय, दूर बहुत है प्रात अभी मत जाओ;

प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ.

4)
मैं कहां पर, रागिनी मेरी कहां पर
है मुझे संसार बांधे, काल बांधे
है मुझे जंजीर औ’ जंजाल बांधे,
किंतु मेरी कल्‍पना के मुक्‍त पर-स्‍वर;
मैं कहां पर, रागिनी मेरी कहां पर!

धूलि के कण शीश पर मेरे चढ़े हैं,
अंक ही कुछ भाल के कुछ ऐसे गढ़े हैं
किंतु मेरी भवना से बद्ध अंबर;
मैं कहां पर, रागिनी मेरी कहां पर!

मैं कुसुम को प्‍यार कर सकता नहीं हूं,
मैं काली पर हाथ धर सकता नहीं हूं,
किंतु मेरी वासना तृण-तृण निछावर;
मैं कहां पर, रागिनी मेरी कहां पर!

मूक हूं, जब साध है सागर उंडेलूं,
मूर्तिजड़, जब मन लहर के साथ खेलूं,
किंतु मेरी रागिनी निर्बंध निर्झर;
मैं कहां पर, रागिनी मेरी कहां पर!

5)
गरमी में प्रात: काल
गरमी में प्रात: काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्‍हारी आती है.

जब मन में लाखों बार गया-
आया सुख सपनों का मेला,
जब मैंने घोर प्रतीक्षा के
युग का पल-पल जल-जल झेला,
मिलने के उन दो यामों ने
दिखलाई अपनी परछाईं,
वह दिन ही था बस दिन मुझको
वह बेला थी मुझको बेला;
उड़ती छाया सी वे घड़ि‍यां
बीतीं कब की लेकिन तब से,
गरमी में प्रात:काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्‍हारी आती है.

तुमने जिन सुमनों से उस दिन
केशों का रूप सजाया था,
उनका सौरभ तुमसे पहले
मुझसे मिलने को आया था,
बह गंध गई गठबंध करा
तुमसे, उन चंचल घ‍ड़ि‍यों से,
उस सुख से जो उस दिन मेरे
प्राणों के बीच समाया था;
वह गंध उठा जब करती है
दिल बैठ न जाने जाता क्‍यों;
गरमी में प्रात:काल पवन,
प्रिय, ठंडी आहें भरता जब
तब याद तुम्‍हारी आती है.
गरमी में प्रात:काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्‍हारी आती है.

चितवन जिस ओर गई उसने
मृदों फूलों की वर्षा कर दी,
मादक मुसकानों ने मेरी
गोदी पंखुरियों से भर दी
हाथों में हाथ लिए, आए
अंजली में पुष्‍पों से गुच्‍छे,
जब तुमने मेरी अधरों पर
अधरों की कोमलता धर दी,
कुसुमायुध का शर ही मानो
मेरे अंतर में पैठ गया!
गरमी में प्रात: काल पवन
कलियों को चूम सिहरता जब
तब याद तुम्‍हारी आती है.

गरमी में प्रात: काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्‍हारी आती है.

Tags: Harivansh rai bachchan, Hindi Literature, Hindi poetry, Hindi Writer, Poem

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