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जलवायु बैठकों में अमीर देशों की मनमानी की कीमत चुकाते हैं गरीब देश

नई दिल्ली. जलवायु बैठकों में छोटे और गरीब देशों को बड़े और संपन्न देशों की मनमानी की कीमत चुकानी पड़ती है। ब्रिटेन के लीड्स विश्वविद्यालय और स्वीडन के लुंड्स विश्वविद्यालय के अध्ययन में ऐसा ही चौंकाने वाले खुलासा हुआ है।
इस अध्ययन के अनुसार ‘सीओपी’ जलवायु बैठकों का आयोजन इस तरह से किया जाता है, जिससे अमीर और बड़े देशों को फायदा हो और छोटे और गरीब देशों को इसकी कीमत चुकानी पड़ी। संयुक्त राष्ट्र हर साल जलवायु शिखर सम्मेलन का आयोजन करता है, जिसका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए कार्रवाई करना और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति संवेदनशील लोगों का समर्थन करना है। अध्ययन की प्रमुख लेखिका लुंड्स विवि की पीएचडी छात्रा लीना लेफस्टैड ने कहा, हमारे विश्लेषण में स्पष्ट रूप से दर्शाया गया है कि कुछ समूहों की बातें नहीं सुनी जातीं या उनका प्रतिनिधित्व नहीं किया जाता। सीओपी की संरचना ही छोटे देशों के लिए अपने हितों की आवाज उठाना लगभग असंभव बना देती है, क्योंकि वे सभी समानांतर वार्ताओं में मौजूद होने में सक्षम नहीं होते हैं।

15 सीओपी का विश्लेषण किया
‘क्रिटिकल पॉलिसी स्टडीज’ जर्नल में प्रकाशित अध्ययन पिछले 15 ‘सीओपी’ के विश्लेषण पर आधारित है। विश्लेषण से पता चलता है कि इस तरह के सम्मेलन में आर्थिक रूप से मजबूत देशों को गरीब, अक्सर छोटे और कम विकसित देशों की कीमत पर अधिक फायदा पहुंचता है। मसलन, जो देश जितना अमीर होगा, वह सीओपी में उतने ही अधिक प्रतिनिधि भेज सकता है और इससे वह सम्मेलन के सभी समानांतर सत्रों में सक्रिय रह सकता है।

2009 में चीन ने 233 प्रतिनिधि भेजे थे
शोधकर्ताओं ने पाया कि 2009 में डेनमार्क में हुए जलवायु सम्मेलन (सीओपी15) में चीन ने 233 प्रतिनिधि भेजे, जबकि हैती ने सात और चाड ने तीन लोगों को भेजा। लेफस्टैड ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र में कम से कम एक सीमा होनी चाहिए कि कोई देश या संगठन कितने प्रतिनिधि भेज सकता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह आश्चर्यजनक है कि जीवाश्म ईंधन आश्रित बड़े देशों की ओर से भेजे जाने वाले प्रतिनिधियों की संख्या हर साल बढ़ रही है। पिछले साल मिस्र में सीओपी27 में 636 प्रतिनिधि भेजे गए थे।

नागरिक संगठनों के पास मतदान का अधिकार नहीं
शोधकर्ताओं ने कहा कि इसके विपरीत, नागरिक संगठनों और स्वदेशी समूहों के प्रतिनिधि समान संख्या में मौजूद नहीं होते हैं, जिसका अर्थ है कि उनके पास गठबंधन बनाने और अपने विचार प्रस्तुत करने के कम अवसर होते हैं। अध्ययन के सह-लेखक और लीड्स विश्वविद्यालय में प्रोफेसर जौनी पावोला ने कहा, न तो जीवाश्म उद्योग और न ही नागरिक संगठनों के पास सीओपी में मतदान का अधिकार है, जो एक बड़ी समस्या है। अध्ययन में यह भी विश्लेषण किया गया कि विभिन्न देश और गठबंधन अपने स्वयं के रणनीतिक उद्देश्यों को कैसे पूरा करते हैं।

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