राधा कृष्ण के जमाने की अनूठी परंपरा, सिर्फ 16 दिन होता है इसका चित्रण, संपूर्ण ब्रजमंडल के होते हैं दर्शन

मोहित शर्मा/ करौली: राजस्थान के करौली शहर को अपनी ब्रज संस्कृति के लिए जाना जाता है. इसे धर्म नगरी के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि यहां की गलियों में मंदिरों की भरपूरता है. करौली में कई प्राचीन परंपराएं आज भी जीवित हैं, जिनमें से सांझी बनाने की परंपरा पितृ पक्ष के 16 दिनों तक जारी रहती है.
सांझी परंपरा का महत्वपितृपक्ष की शुरुआत होते ही करौली में सांझी बनाने का कार्य शुरू हो जाता है. इस दौरान, विभिन्न प्रकार की सांझी श्री राधा मदन मोहन जी मंदिर के प्रांगण में पुश्तैनी कलाकारों द्वारा बनाई जाती है. ये कलाकार हाथों की चुटकियों से विभिन्न रंगों से सांझी को सजाते हैं. इस परंपरा का इतिहास लगभग 200 से 300 साल पुराना है.
राधा-कृष्ण से जुड़ी परंपरापितृ पक्ष के दौरान सांझी बनाने वाले पुश्तैनी कलाकार विजय भट्ट बताते हैं कि यह परंपरा राधा कृष्ण के जमाने से चली आ रही है. उन्होंने बताया कि राधा जी ने सबसे पहले पितृ पक्ष में सांझी बनाई थी, जो इस परंपरा की शुरुआत थी. यह न केवल बृज क्षेत्र में, बल्कि ब्रज संस्कृति से जुड़े अन्य क्षेत्रों में भी देखी जाती है.
मदन मोहन जी का योगदानवरिष्ठ इतिहासकार वेणुगोपाल शर्मा के अनुसार, सांझी परंपरा का आरंभ करौली में मदन मोहन जी के आगमन से हुआ. उन्होंने बताया कि 250 साल पहले जब श्री राधा मदन मोहन जी महाराज करौली में विराजे, तब से यहां के लोगों में भगवान श्री कृष्ण की सभी गतिविधियों को प्रदर्शित करने का उत्साह था. पहले सांझी घर-घर बनाई जाती थी, लेकिन अब यह केवल मदन मोहन जी मंदिर में बनाई जाती है.
सांझी का अर्थ और महत्ववेणुगोपाल शर्मा ने कहा कि करौली में 16 दिन बनने वाली सांझी ब्रज मंडल का रंगीन चित्रण है. इसमें भगवान कृष्ण की लीलाओं के साथ-साथ ब्रज मंडल की 84 कोश परिक्रमा के स्थलों को दर्शाया जाता है. करौली की सांझी की खासियत यह है कि यह भगवान कृष्ण की क्रीड़ा स्थली के ऐतिहासिक स्वरूप को प्रदर्शित करती है. इसमें पितृपक्ष के 16 दिनों के दौरान उन वनों को भी दिखाया जाता है, जहां भगवान श्री कृष्ण गायों को चराते थे. करौली की सांझी परंपरा न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह सांस्कृतिक धरोहर को भी संजोए हुए है.
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FIRST PUBLISHED : October 3, 2024, 19:49 IST