राज्य में क्षेत्रीय दल मजबूत, पर केंद्र में फेल! नड्डा के दावे में दिख रहा दम | – News in Hindi

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने 2014 के बाद कई मौकों पर यह बात दोहराई है कि क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व नहीं बचेगा. तब उनके बयान के मद्देनजर भाजपा पर आरोप लगा कि वह अपनी सहयोगियों छोटी क्षेत्रीय पार्टियों को ही निगलने की फिराक में है. एक बार ऐसा लगा भी, जब अरुणाचल प्रदेश में जेडीयू के विधायकों को भाजपा ने अपने पाले में कर लिया. यह वही समय था, जब जेडीयू नेता नीतीश कुमार बिहार में भाजपा के साथ सरकार चला रहे थे. जेडीयू में इस बात को लेकर नाराजगी स्वाभाविक थी, लेकिन उसने ऐसा कोई काम नहीं किया, जिससे नाराजगी सार्वजनिक हो जाए. खैर, आंकड़े और स्थितियां भी जेपी नड्डा के बयान की ही तस्दीक करती दिख रही हैं.
राज्य में क्षेत्रीय दल ताकतवर
बिहार में आरजेडी चार बार सत्ता में रही है. 1995 से 2005 तक लगातार 15 साल तक आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी ने बिहार में शासन किया. बीच के वर्ष 2015 और 2022 में दो ऐसे मौके आए, जब सीएम तो आरजेडी से कोई नहीं बना, लेकिन सियासी साझीदारी में बनी सरकार में आरजेडी भी शामिल रही. लालू के दोनों बेटों- तेज प्रताप और तेजस्वी यादव में एक ने दो बार मंत्री पद संभाला तो दूसरे ने डिप्टी सीएम की भूमिका निभाई.
बिहार की राजनीति में आरजेडी की ताकत का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अपने दम पर इसके नेता तेजस्वी यादव ने विधानसभा चुनाव लड़ा और सदस्य संख्या के हिसाब से आरजेडी को सबसे बड़ी पार्टी बना दी. गठबंधन के तहत लड़े गए चुनाव में आरजेडी के नेतृत्व वाले महागठबंधन को 110 सीटें मिलीं, जो बहुमत के जादुई आंकड़े 122 से महज 12 ही कम थीं. बाद में तेजस्वी यादव ने असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के पांच में चार विधायकों को आरजेडी में लाकर महागठबंधन में विधायकों की संख्या 114 तक पहुंचा दी. बिहार में आरजेडी के ताकतवर होने का यह बड़ा उदाहरण हाल के वर्षों में दिखा.
सेंट्रल पोलिटिक्स में रहे फेल
आश्चर्य होता है कि राज्य की राजनीति में असरदार रहे क्षेत्रीय दल केंद्र की राजनीति में कमजोर क्यों होने लगे हैं. वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में बिहार की सत्ता में रहते हुए आरजेडी ने 26 सीटों पर चुनाव लड़कर 22 सीटें जीती थीं. यह आरजेडी के इतिहास में स्वर्णिम साल भी माना जाता है. तब आरजेडी को 30.67 प्रतिशत वोट आए थे. बिहार की दूसरी क्षेत्रीय पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी ने आठ पर लड़कर चार सीटें जीती थीं और उसे 8.19 प्रतिशत वोट मिले थे. जेडीयू तब उभरता हुआ क्षेत्रीय दल था. जेडीयू ने 24 सीटों पर चुनाव लड़कर छह सीटें जीत ली थीं. उसे 22.36 प्रतिशत वोट मिले थे. यह स्थिति 2009 के लोकसभा चुनाव तक बरकरार रही. 2009 में जेडीयू को 20 सीटें मिलीं तो आरजेडी को पांट सीटों से ही संतोष करना पड़ा. राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों में भाजपा को 12 और कांग्रेस को दो सीटें मिली थीं.
2014 से बदला बिहार का परिदृश्य
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव से राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव आया. क्षेत्रीय दल राज्यों में तो मजबूत बने रहे, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में उनकी हैसियत घटती गई. 2014 में भाजपा ने बिहार में अकेले सर्वाधिक 22 सीटें जीतीं. क्षेत्रीय दलों में पहले नंबर पर रही लोजपा, जिसे भाजपा के साथ गठबंधन के कारण छह सीटें मिलीं. जेडीयू को दो सीटों पर सिमटना पड़ा तो आरजेडी को चार सीटों से ही संतोष करना पड़ा. भाजपा के साथ रही उपेंद्र कुशवाहा के नेतृत्व वाली तत्कालीन आरएलएसपी को भी तीन सीटें मिल गईं, जबकि कांग्रेस दो सीटों पर ही सिमट गई. 2019 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो भाजपा ने 17 सीटें जीतीं तो उसके साथ रहे जेडीयू को 16 और एलजेपी को छह सीटों पर कामयाबी मिली. चार बार बिहार की सत्ता में रहे आरजेडी को 2019 के लोकसभा चुनाव में शून्य पर आउट हो जाना पड़ा.
क्षेत्रीय दलों को 2024 का संकेत
इस साल लोकसभा के चुनाव में बिहार में मुख्य रूप से दो गठबंधनों- एनडीए और ‘इंडिया’ के बीच मुकाबला हुआ. एनडीए में भाजपा के साथ चार क्षेत्रीय दलों- जेडीयू, लोजपा (आर), हम (एस) और आरएलएम ने चुनाव लड़ा. भाजपा और जेडीयू को 12-12 सीटों पर जीत मिली, तो लोजपा (आर) को पांच और हम (एस) ने अपने कोटे की एक सीट निकाल ली.
इंडिया ब्लॉक का बिहार में नेतृत्व करने वाली आरजेडी 2014 की स्थिति में लौट गई. कुल 23 सीटों पर चुनाव लड़कर उसने सिर्फ चार पर जीत दर्ज की. आरजेडी के संकट का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि लालू यादव किडनी देने वाली अपनी बेटी रोहिणी आचार्य को भी नहीं जिता पाए. इससे जेपी नड्डा की बात में दम दिखाई देने लगा है कि आने वाले समय में क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा. इसमें भाजपा की साजिश ढूंढने के बजाय जनता की इच्छा को ईमानदारी से स्वीकार करना ही श्रेयस्कर होगा.
दूसरे राज्यों में भी यही स्थिति
आप दिल्ली की बात कर लें. आम आदमी पार्टी (AAP) ने पहली बार 28 दिसंबर, 2013 को दिल्ली में अल्पमत की सरकार बनाई. अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री बने. लगातार 11 साल से दिल्ली विधानसभा में भारी बहुमत से आम आदमी पार्टी सरकार चला रही है. इसके बावजूद लगातार तीन संसदीय चुनावों में आम आदमी पार्टी के हाथ खाली रहे हैं. दिल्ली की सभी सात संसदीय सीटों पर भाजपा परचम लहराती रही है. 2014 और 2019 में दिल्ली की जनता ने सभी सात संसदीय सीटें भाजपा के हवाले कर दी थीं. 2024 में इंडिया ब्लाक का हिस्सा बनकर भी आम आदमी पार्टी को कोई लाभ नहीं हुआ. इस बार भी मतदाताओं ने भाजपा पर ही भरोसा किया. 1952 के बाद यह पहला मौका है, जब किसी दल को लगातार तीसरी बार दिल्ली की जनता ने सभी सात सीटों पर विजयी बनाया है.
उधर नार्थ ईस्ट में असम गण परिषद ने दो बार असम की सत्ता संभाली. असम गण परिषद के नेता प्रफुल्ल कुमार महंत पहली बार 1985 से 1990 तक सीएम रहे. उनकी दूसरी पारी 1996 से 2001 तक रही. अब असम गण परिषद का हाल देखिए. 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में राज्य की 14 संसदीय सीटों पर हुए चुनाव में असम गण परिषद शून्य पर ही अंटकी रही. भाजपा के संग का 2024 में पार्टी को फायदा मिला और असम गण परिषद के उम्मीदवार तीन सीटें जीतने में कामयाब हो गए. यही स्थिति तमिलनाडु की एआईडीएमके, आंध्र प्रदेश के वाईएसआर कांग्रेस और तेलंगाना में टीआरएस से बीआरएस बनी पार्टी का भी है. तीन लोकसभा चुनावों से इन पार्टियों का लोकसभा में प्रतिनिधित्व घटते-घटते शून्य पर आ गया है.
ओडिशा में बीजू जनता दल की स्थिति देख लीजिए. 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजू जनता दल (बीजेडी) ने 12 सीटें जीती थीं. बीजेडी को 42.8% वोट मिले थे. भाजपा ने आठ सीटें 38.4% वोट शेयर के साथ जीतीं. भाजपा का वोट शेयर 2024 में बढ़ कर 45.34% हो गया है, जबकि बीजेडी का वोट शेयर घट कर 37.53% पर आ गया है. बीजेडी को लोकसभा में सिर्फ एक सीट ही मिली है. बीजेडी की यह स्थिति तब है, जब लगातार 24 साल उसने ओडिशा में शासन किया है. 5 मार्च 2000 को पहली बार नवीन पटनायक ओडिशा के सीएम बने थे. 24 साल बाद उन्हें न सिर्फ सीएम की अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी है, बल्कि लोकसभा में बीजेडी का प्रतिनिधित्व भी घट नगण्य रह गया है.
ब्लॉगर के बारे मेंओमप्रकाश अश्क
प्रभात खबर, हिंदुस्तान और राष्ट्रीय सहारा में संपादक रहे. खांटी भोजपुरी अंचल सीवान के मूल निवासी अश्क जी को बिहार, बंगाल, असम और झारखंड के अखबारों में चार दशक तक हिंदी पत्रकारिता के बाद भी भोजपुरी के मिठास ने बांधे रखा. अब रांची में रह कर लेखन सृजन कर रहे हैं.
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