गोला-बारूद, कोड़े, पत्थर, दूध-दही… रंग गुलाल ही नहीं, ऐसी है राजस्थान के लोगों की अनोखी होली

Last Updated:March 06, 2025, 11:42 IST
Rajasthan Holi: फागुन आवो चंग बजाओ रे रसिया, मैं तो खेलूंगी श्याम संग फाग… जैसे गीत होली में और रंग-ढाप भरते हैं. चंग, ढोल और झांझ पर कदम थिरकते हैं. रंगीला राजस्थान का रंग दिखता है होली पर- दाल, बाटी, चूरमा …और पढ़ें
राजस्थान में अनोखी तरह से मनाई जाती है होली.
हाइलाइट्स
राजस्थान में होली की विविध परंपराएं हैं.पुष्कर में कपड़ाफाड़ होली प्रसिद्ध है.उदयपुर में गोला-बारूद से होली मनाई जाती है.
Rajasthan Holi 2025: राजस्थान में फाल्गुन का उत्साह दिखाई देने लगा है. होली को लेकर बाजार में पिचकारी, अबीर-गुलाल और रंगों की दुकानें सज चुकी है. शहर के लेकर गांव क्षेत्र के बाजारों में होली का उत्साह दिख रहा है. रंग पर्व होली के नजदीक आते ही घर की महिलाओं ने भी तैयारियां शुरू कर दी हैं. घरों में आलू के चिप्स और पापड़ बनाए जा रहे हैं. हर राज्य की होली अपने में कुछ खास होती है. उत्तर प्रदेश के बरसाना की होली काफी फेमस है. ऐसे ही, राजस्थान में होली के विविध रंगों, परंपराओं और रीति-रिवाजों की धाक भी कम नहीं है. यहां ब्रज की प्रसिद्ध लठमार होली है तो आदिवासियों की पत्थरमार और कंकड़मार होली भी. रियासत काल की शानदार विरासत भी है तो खुश्बू से सराबोर फूलों की होली भी है. मंदिरों में दूध-दही के साथ ही, अंचलों में हंसी-ठिठोली वाली कोड़ामार होली भी मरुधरा में देखने को मिलती है. गोला-बारूद और तोपों के शोर में भी यह उत्सव मनाया जाता है, जो शौर्य और हार न मानने की कहानी कहता है.
होली पर दिखता है रंगीला राजस्थान का रंग होली पर राजस्थान के पारंपरिक नृत्य की एक अलग ही पहचान है. बीकानेर में सुबह से लेकर रात तक होली खेली जाती है. श्रीगंगानगर में होली के रंगों के साथ-साथ पतंग भी उड़ाई जाती है, भरतपुर में लट्ठमार होली होती है तो उदयपुर और बाड़मेर में होली का नृत्य रूप देखने को मिलता है. शेखावटी का गींदड़ नृत्य ज्यादा ही फेमस है, वहीं जयपुर की फूलों वाली होली भी है. यहां का खान-पान और गान की भी अलग पहचान है. जो कि त्योहार के कई दिन पहले शुरू हो जाते हैं. आइये जानते हैं कि राजस्थानी रंगों के साथ उमंग और उल्लास के रंगोत्सव को कहां पर और कैसे-कैसे मनाते हैं…
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पुष्कर की कपड़ाफाड़ होलीअजमेर के पुष्कर में सबसे अलग अंदाज में होली मनाई जाती है. यहां कपड़ाफाड़ होली काफी फेमस है. इस आयोजन में सैकड़ों की संख्या में देशी-विदेशी पर्यटक होली का आनंद लेने यहां पहुचते हैं. कपड़ाफाड़ होली का आयोजन वराह घाट चौक चौराहे पर होता है. यहां पहुचने वाले पर्यटक डीजे के संगीत पर रंग-बिरंगी गुलाल उड़ाते हुए घंटों तक ऐसे ही मस्ती करते रहते हैं. इस आयोजन की खास बात यह है कि इसमें प्रत्येक पुरुष की शर्ट फाड़ कर तारों पर बांध दी जाती है. जमीन के काफी ऊपर एक रस्सी बंधी होती है. जिस पर फटे हुए कपड़े फेंके जाते है. कपड़ा अगर रस्सी पर लटक जाता है तो सभी लोग ताली बजाते है और अगर कपड़ा नीचे गिर जाता है तो सभी लोग हाय-हाय करते है.
गोला-बारूद से खेली जाती है होलीउदयपुर के मेनार गांव में होली का जश्न कुछ अलग अंदाज में मनाया जाता है. यहां होली के अगले दिन जमरा बीज पर गोला-बारूद और तोपों के शोर में यह उत्सव मनाया जाता है, जो शौर्य और हार न मानने की कहानी कहता है. कहा जाता है कि मेवाड़ में महाराणा अमर सिंह के शासनकाल में मेनार गांव के पास मुगल सेनाओं की चौकी लगी थी. जब ग्रामीणों को मुगल आक्रमण की भनक लगी, तो उन्होंने रणनीति बनाकर मुगलों का सामना किया. उस वीरता और जीत की खुशी में ही गांववालों ने यह अनूठा उत्सव शुरू किया.
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देर शाम को पूर्व रजवाड़ों के सैनिकों की पोशाक में सजे ग्रामीण अपने-अपने घरों से निकलते हैं. तलवारें लहराते, बंदूकों से ‘गोलियां’ दागते हुए, वे ओंकारेश्वर चौक पर एकत्र होते हैं, जहां तोपों की आवाज और आतिशबाजी का शानदार माहौल होता है. अबीर-गुलाल से सजाए रणबांकुरों का स्वागत किया जाता है, जबकि देर रात तक आतिशबाजी होती है. इस समारोह में महिलाओं का भी विशेष योगदान होता है.सिर पर कलश रखकर, वीर रस के गीत गाती हुई महिलाएं निर्भीक होकर आगे बढ़ती हैं, जो इस परंपरा में शौर्य और साहस का प्रतीक बन जाती हैं.
शेखावाटी अंचल में चंग व गींदड की धूमसीकर, चूरू और झुंझुनूं में चूड़ीदार पायजामा-कुर्ता या धोती-कुर्ता पहनकर कमर में कमरबंद और पांवों में घुंघरू बांधकर ‘होली’ के दिनों में किए जाने वाले चंग नृत्य के साथ होली के गीत भी गाए जाते हैं. होली के एक पखवाडे पहले गींदड शुरू हो जाता है. पुरुष चंग को अपने एक हाथ से थामकर और दूसरे हाथ से कटरवे का ठेका से व हाथ की थपकियों से बजाते हुए वृत्ताकार घेरे में सामूहिक नृत्य करते हैं. साथ में बांसुरी व झांझ बजाते रहते हैं. पैरो में बंधे घुंघरुओं से रुनझुन की आवाज मनभावन लगती है. इसमें भाग लेने वाले कलाकार पुरुष ही होते हैं, उन्हीं में से कुछ कलाकार महिला वेष धारण कर लेते हैं, जिन्हें ‘महरी’ कहा जाता है. कलाकार भांग पीकर चंग बजाते हुए नृत्य करते है.
हजारों की संख्या में सजती हैं मटकियांरंगों के त्यौहार होली पर हम कई जगहों की परंपराओं से रूबरू होते हैं. क्योंकि यह त्योहार हर कस्बे में अपना अलग रूप ले लेता है. उदयपुर शहर के बीच होली पर एक विशेष मेला लगता है और वह है मटकी मेला, जिसे कुंभ का मेला भी कहा जाता है. होली को गर्मियों की दस्तक भी कहा जाता है. ऐसे में इस मटकी मेले में हजारों की संख्या में मटकियां आती हैं और सैकड़ों की संख्या में लोग रोजाना यहां मटकियां खरीदने के लिए आते हैं. मटकी मेले की शुरुआत कहांं से हुई और इसका इतिहास क्या है, इसके बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं, लेकिन उसके पीछे बुजुर्गों की कई कहानियां हैं. कहा जाता है कि मेवाड़ की स्थापना 8वीं सदी में बप्पा रावल ने की थी, जिसकी पहली राजधानी नागदा थी जो मेवाड़ के प्रसिद्ध मंदिर एकलिंग जी के पास है. इससे पहले से ही यह मटकी मेला लगना बताया जाता है.
भरतपुर और करौली में होती है लट्ठमार होलीउत्तर प्रदेश के मथुरा से लगे होने और ब्रज प्रदेश में आने के कारण भरतपुर और उसके बाद करौली में नंदगांव और बरसाना की तरह लोग लट्ठमार होली का लुत्फ उठाते हैं. इस लट्ठमार होली को राधा-कृष्ण के प्रेम से जोड़कर देखा जाता है. पुरुष महिलाओं पर रंग बरसाते हैं तो राधा रूपी गोपियां उन पर लाठियों से वार करती हैं. उनसे बचते हुए पुरुषों को महिलाओं पर रंग डालना होता है.
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जयपुर के गोविंद देवजी मंदिर फूलों की होलीवैसे तो फूलों की होली मथुरा-वृन्दावन के मंदिरों में खूब खेली जाती है. लेकिन जयपुर के आदिदेव गोविंद देवजी के मंदिर में होली का त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है. यहां ब्रज की तर्ज पर फूलों की लाल और पीली पंखुड़ियों के साथ होली खेली जाती है. यहां संगीत और नृत्य का मनभावन संगम होता है. यहां गुलाब और अन्य फूलों से होली खेली जाती है. इस दौरान राधा-कृष्ण के प्रेमलीला का मनोहरी मंचन भी होता है.
बारां में सहरिया का 8 दिन फूलडोल लोकोत्सवबारां जिले के किशनगंज, शाहाबाद, मांगरोल क्षेत्र में सहरिया जाति का आदिवासी नृत्य विदेशों तक में ख्याति प्राप्त कर चुका है. किशनगंज कस्बे में सवा सौ साल से ज्यादा समय से धुलंडी के दिन फूलडोल लोकोत्सव मनाया जाता है. इस लोकोत्सव में वैसे तो कई झांकियां सजाई जाती हैं, लेकिन उनमें सहरिया नृत्य की विशेष भूमिका होती है. सहरिया क्षेत्र के गांवों में आज भी होली के आठ दिन पहले से ही लोग रात-रात भर फाग गाते रहते हैं. चौपालों में ग्रामीण परंपरागत वाद्य यंत्रों के साथ फाग गाते रहते हैं.
बूंदी के नैनवां में मनाया जाता है हडूडा त्योहाररंगों का त्योहार हाड़ौती में अलग-अलग तरीके से रियासतकाल से मनाया जाता है. चाहे हम बारां जिले के किशनगंज-शाहाबाद के सहरिया अंचल की लोक परंपरा की बात करें. या फिर बूंदी जिले के नैनवां क्षेत्र में मनाए जाने वाले हडूडा लोकोत्सव की. बूंदी जिले के नैनवां कस्बे में 150 साल से हर साल धुलंडी पर राजा मालदेव व रानी मालदेवकी का विवाह होता है. इस पुरुष प्रधान लोक पर्व में महिलाओं का प्रवेश तक नहीं होता. लोग दो समूहों में बंट जाते है. एक राजा मालदेव की बारात में शामिल होते हैं. वहीं दूसरे रानी मालदेवकी के ब्याह की तैयारियों में जुटते हैं.
सांगोद में न्हाण लोकोत्सव का है विशेष महत्वहाड़ौती के ही सांगोद में पांच दिवसीय न्हाण का विशेष महत्व है. रियासत काल से आयोजित होने वाले इस लोकपर्व का आगाज सोरसन स्थित ब्रह्माणी माताजी की सवारी के साथ होता है. इसके बाद पांच दिन तक ज्वलंत मुद्दों, राजनीति पर व्यंग्यात्मक झांकियां सजाकर सवारी निकाली जाती है. इस दौरान कई हैरतअंगेज करतबों का अनूठा प्रदर्शन भी देखने को मिलता है.
डूंगरपुर में अंगारों पर चलने की परंपरावागड़ अंचल में आने वाले डूंगरपुर जिले में सबसे जुदा अंदाज में होली खेली जाती है. वागड़वासियों पर होली का खुमार एक महीने तक रहता है. होली के तहत जिले के कोकापुर गांव में लोग होलिका के दहकते अंगारों पर नंगे पांव चलने की परंपरा निभाते हैं. मान्यता है कि अंगारों पर चलने से घर में विपदा नहीं आती.
वागड़ और सरहदी जिलों में पत्थरमार होलीराजस्थान के कुछ क्षेत्रों में आदिवासी भी होली के त्योहार को अपने ही अंदाज में मनाते हैं. खासकर बांसवाड़ा, बाड़मेर, बारां आदि में आदिवासी पत्थरमार होली खेलते हैं. ढोल और चंग की आवाज जैसे-जैसे तेज होती है, वैसे-वैसे हुरियारे दूसरी टीम पर तेजी से पत्थर मारना शुरू कर देते हैं. बचने के लिए हल्की-फुल्की ढाल और सिर पर पगड़ी का इस्तेमाल होता है. पत्थरमार होली छोटे रूप में जैसलमैर में भी मनाई जाती है. यहां पर कंकड़मार कर होली की बधाई दी जाती है.
दो सदी पुरानी भीलूडा की खून भरी होलीडूंगरपुर के ही भीलूडा में खूनी होली खेली जाती है. पिछले 200 साल से धुलंडी पर लोग खतरनाक पत्थरमार होली खेलते आ रहे हैं। डूंगरपुरवासी रंगों के स्थान पर पत्थर बरसा कर खून बहाने को शगुन मानते हैं. भारी संख्या में लोग स्थानीय रघुनाथ मंदिर परिसर में एकत्रित होते हैं. फिर दो टोलियों में बंटकर एक दूसरे पर पत्थर बरसाना शुरू कर देते हैं. इसमें कुछ लोगों के पास ढाले भी होती हैं लेकिन हर साल कई लोग इस खेल में गंभीर रूप से घायल हो जाते हैं और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया जाता है.
पंजाब से सटे जिलों में कोड़ामार होलीपंजाब से सटे श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ में कोड़ामार होली की परंपरा है. टोंक में भी रंगोत्सव का त्योहार यानी होली मनाने को लेकर अलग-अलग परंपराए हैं. होली मनाने के इस खास अंदाज में यहां देवर-भाभी के बीच कोड़े वाली होली काफी चर्चित है. होली पर देवर-भाभी को रंगने का प्रयास करते हैं और भाभी-देवर की पीठ पर कोड़े मारती है. इस मौके पर देवर-भाभी से नेग भी मांगते हैं. इसके अलावा ढोल की थाप और डंके की चोट पर जहां महिलाओं की टोली रंग-गुलाल उड़ाती निकलती है. वहीं महिलाओं की मंडली किसी सूती वस्त्र को कोड़े की तरह लपेट कर रंग में भिगोकर इसे मारती हैं तो होली का समां बंध जाता है.
भीलवाड़ा में होली पर ‘मुर्दे’ की सवारीभीलवाड़ा ज़िले के बरून्दनी गांव में होली के सात दिन बाद शीतला सप्तमी पर खेली जाने वाली लट्ठमार होली का अपना एक अलग ही मजा है. यहां होली के बाद बादशाह की सवारी निकाली जाती है, वहीं शीतला सप्तमी पर चित्तौड़गढ़ वालों की हवेली से मुर्दे की सवारी निकाली जाती है. इसमें लकड़ी की सीढ़ी बनाई जाती है और जिंदा व्यक्ति को उस पर लिटाकर अर्थी पूरे बाज़ार में निकालते हैं. इस दौरान युवा इस अर्थी को लेकर पूरे शहर में घूमते हैं. लोग इन्हें रंगों से नहला देते हैं.
बीकानेर और भीनमाल में गोटा गैर व डोलची होलीडोलची होली की बीकानेर में और गोटा गैर की भीनमाल, सिरोही आदि में परंपरा है. गोटा गैर होली में पुरुष मंडली समूह में हाथों में डंडे लेकर नृत्य करते हैं. अब इस परंपरा से नया चलन आ गया है. बीकानेर में होली एक अनूठे रूप में खेली जाती है. यहां दो गुटों में पानी डोलची होली खेली जाती है. जहां चमड़े की बनी डोलची में पानी भरकर एक-दूसरे गुटों पर डाला जाता है. इस होली में सैकड़ों लोग भाग लेते हैं
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जालौर के आहौर में आदिवासियों की होलीराजस्थान के जालौर के आहौर में पत्थरमार होली खेली जाती है. पत्थरमार होली राजस्थान के आदिवासी खेलते है. पत्थरमार होली ढ़ोल और चंग पर खेली जाती है. ढ़ोल और चंग की आवाज जैसे-जैसे तेज होती जाती है वैसे-वैसे दूसरे टीम को तेजी से पत्थर मारना शुरु कर देते है. बचने के लिए हल्की-फुल्की ढाल और सिर पर पगड़ी का इस्तेमाल होता है.
मारवाड़-गोडवाड में गेर नृत्य और गालियांपाली के ग्रामीण इलाकों में फाल्गुन लगते ही गेर नृत्य शुरू हो जाता है. यह नृत्य, डंका पंचमी से भी शुरू होता है. फाल्गुन के पूरे महीने रात में चौखटों पर ढोल और चंग की थाप पर गेर नृत्य किया जाता है. मारवाड-गोडवाड इलाके में डांडी गैर नृत्य बहुत होता है और यह नृत्य इस इलाके में खासा लोकप्रिय है. यहां फाग गीत के साथ गालियां भी गाई जाती हैं. यहां स्त्री और पुरुष सभी साथ में मिलकर गेर नृत्य करते हैं.
राजसमंद के नाथद्वारा में दूध-दही की होलीराजसमंद के नाथद्वारा में होली के पहले दूध-दही की होली खेली जाती है. नाथद्वारा में कृष्ण स्वरुप श्रीनाथ जी का विशाल मंदिर है. दूध-दही की होली में विशाल महोत्सव का आयोजन किया जाता है. सुबह जल्दी श्रीनाथ जी की प्रतिमा को पंचामृत से स्नान कराया जाता है. सैंकड़ों की संख्या में श्रीनाथ के भक्त उनके द्वारे पहुंचते हैं. दूध-दही में केसर मिलाकर श्रीनाथ जी को भोग लगाया जाता है. इसके बाद दूध-दही की होली खेली जाती है. फिर भक्तों द्वारा नाथ जी के भजन-कीर्तन किये जाते हैं. यह नंद महोत्सव की तरह ही मनाया जाता है.
Location :
Udaipur,Rajasthan
First Published :
March 06, 2025, 11:42 IST
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